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श्री वाराह अवतार कथा (वाराह अवतार की कहानी)

Varah Avatar Katha (Varaha Avatar Story)

भाग 7 - Part 7

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श्री वाराह अवतार - कथा

भगवान्‌की दृष्टि कभी कठोर नहीं होती। अपने नन्हे नन्हे शिशुओंपर परम दयालु भगवान् कभी कठोर दृष्टि डाल ही नहीं सकते। वैसी दृष्टि तो शत्रुओंपर, स्पर्धा करनेवालोंपर डाली जाती है। परंतु भगवान्से स्पर्धा करनेवाला, शत्रुता करनेवाला कोई है ही नहीं। लोग अपने अज्ञानके कारण भगवान्पर शत्रुताका आरोप करते हैं, परंतु उनपर भी भगवान्‌का भाव कोमल ही रहता है। बल्कि औरोंकी अपेक्षा अधिक कोमल रहता है। वे अधिक दयाके पात्र हैं। उन्हें अति शीघ्र वे अपने पास बुला लेना चाहते हैं।

भगवान्ने हिरण्याक्षकी ओर देखकर कहा- 'नीच दैत्य ! सचमुच मैं शूकर हूँ और तुम्हारे-जैसे ग्रामसिंहों (कुत्तों) को ढूँढ़ा करता हूँ। वीर! अब तुम मृत्युके - पंजे में आ गये हो, तुम्हारा यह बहकना शोभा नहीं देता। मान लो मैं तुम्हारी सम्पत्ति पृथ्वी चुराकर लाया हूँ और तुम्हारी गदाके भयसे भागता भी हूँ; परंतु अब तो किसी प्रकार तुम्हारे सामने खड़ा हूँ न ! तुम्हारे जैसे बलवान्से वैर पैदा करके जा ही कहाँ सकताहूँ? आओ, दो हाथ देख लो। तुम्हारी जितनी शक्ति हो, मेरा अनिष्ट करनेके लिये उसे लगा दो मुझे मारकर अपने मित्रोंके आँसू पोंछो तुमने प्रतिज्ञा की है उसे पूरी करो जो अपनी प्रतिज्ञा पूरी नहीं करता वह सभ्य पुरुषोंकी गिनतीमें नहीं आ सकता।'

भगवान्की यह आक्षेपभरी बात सुनकर तथा अपने सामने ही देवताओंद्वारा उनका सम्मान देखकर और | अपनी इच्छा विपरीत जलपर पृथ्वीको स्थित देखकर क्रोधके मारे हिरण्याक्ष जलने लगा। उसका सारा शरीर काँपने लगा। लंबी साँसें चलने लगीं। अपनी गदा उठाकर बड़े वेग से भगवान्के वक्षःस्थलपर उसने प्रहार किया। परंतु भगवान्ने अपना शरीर टेढ़ा कर दिया और उसका आक्रमण व्यर्थ हो गया। अपनी गदा उठाकर वह जोरसे घुमाने लगा। भगवान् भी अपने दाँतोंसे ओठ दबाकर क्रोधका अभिनय करते हुए हाथमें गदा लेकर दौड़े और हिरण्याक्षको भौहोंमें एक गदा लगायी।

अब दोनोंमें गदायुद्ध होने लगा। जैसे दो मदमत्त साँड़ आपसमें लड़ते हैं, वैसे ही वे दोनों एक दूसरेपर प्रहार करने लगे। युद्ध देखनेके लिये ब्रह्मा आदि देवता तथा ऋषिगण अपने-अपने विमानपर चढ़कर वहाँ आ गये थे। जब उन्होंने देखा कि बड़ी देरसे युद्ध चत रहा है और अभी हिरण्याक्ष थका नहीं, तब उनके मनमें कुछ-कुछ चिन्ता हो गयी। ब्रह्माने कहा *भगवन्! आप इससे ऐसा खेल क्यों खेल रहे हैं। प्रभो! जो लोग आपके चरणोंकी शरण ग्रहण किये हुए हैं या करना चाहते हैं, उन देवताओं, ब्राह्मणों मौओं और सम्पूर्ण प्राणियोंका यह शत्रु है। यह निरपराधोंका अपराधी है, सज्जनोंको भयभीत करनेवाला है, इसका जीवन पापमय है। हमारे ही वरसे इसे ऐसी शक्ति प्राप्त हो गयी है। यह अपनी जोड़ीका योद्धा ढूँढ़ता हुआ त्रिलोकीमें विचरण किया करता है और लोगोंको बड़ा कष्ट देता है। यह किसीकी बात नहीं मानता बड़ा कपटी है, दुष्ट है। प्रभो। इसके साथ बालकोंकी भाँति खिलवाड़ न करें यह साँप है, सप |इसका कोई विश्वास नहीं। अभी-अभी संध्याकाल होनेवाला है, निशाचरी बेला होनेपर इसका बल जायगा। वह समय आनेके पहले ही इसका संहार कर दीजिये। यह समय इसकी मृत्युके लिये बड़ही अच्छा है। हमलोगों का कल्याण कीजिये, हमारा कष्ट मिटाइये। भगवन्! आपकी जय हो!! आपकी जय हो !!'

ब्रह्माके निष्कपट और प्रेमभरे वचन सुनकर भगवान् कनखियों से स्वीकार किया। भगवान्ले बड़े जर एक गढ़ा चलायी; परंतु लगने के पहले ही हिरण्याक्षने उनकी गदापर अपनी गदासे ऐसा आक्रमण किया कि भगवान्की गदा उनके हाथोंसे छूटकर गिर पड़ी। तीनों लोकोंमें हाहाकार मच गया। जिनके संकल्पमात्रसे सारी सृष्टिका संहार हो सकता है, उन्हीं भगवान्के हाथोंसे छूटकर गदा गिर जाए, वह बड़ी अद्भुत बात है। परंतु कभी-कभी भगवान् अपने भक्तोंका बल दिखानेके लिये ऐसी परिस्थिति भी पैदा कर दिया करते हैं। हिरण्याक्ष उनका भक्त था न ! हिरण्याक्षका बल भगवान्का ही बल है।

यद्यपि इस समय हिरण्याक्षको अवसर मिल गया था। चाहता तो भगवान्पर दुबारा आक्रमण कर देता; परंतु युद्धके धर्मको दृष्टिसे और भगवान‌को क्रोधित करनेकी इच्छासे उसने ऐसा नहीं किया भगवान्ने मन ही मन उसकी प्रशंसा की और चक्रका स्मरण किया। उनके हाथमें चक्र चक्कर लगा रहा था और आकाशमें देवतालोग उसको देख-देखकर प्रसन्न होते हुए भगवान्से प्रार्थना कर रहे थे कि शीघ्र से शीघ्र इसका अन्त कर दें । हाथमें चक्र घुमाते देखकर अपने दाँत पीसकर हिरण्याक्ष दौड़ा और 'अब मर गये' यह कहता हुआ उसने भगवान्पर आक्रमण किया। भगवान्ने बायें पैरसे ऐसी ठोकर लगायी कि उसकी गदा गिर पड़ी। भगवान् अपने हाथोंसे उसकी गदा उठाकर देने लगे; परंतु उसने लिया नहीं अब उसने त्रिशूल उठाया; परंतु आक्रमण करनेके पहले ही भगवान्ने अपने चक्रसे उसको खण्ड-खण्ड कर दिया। इसके बाद हिरण्याक्ष अन्तर्धान होकर माया युद्ध करने लगा। सारे संसारमें तहलका मच गया। प्रजाको ऐसा मालूम हुआ कि अभी प्रलय हो जायगा। जोरसे आँधी चलने लगी। भूलसे दिशाएँ भर गयीं, पत्थरोंकी वर्षा होने लगी, आकाशमें भयंकर गर्जना होने लगी और खूनकी, पीबकी, हड्डियोंकी वर्षा होने लगी। बड़े-बड़े पहाड़ उड़ते हुए की वर्षा करते हुए दीखने लगे। डाकिनी शाकिनी आदि बाल खोलकरनंगे सिर हाथोंमें खप्पर लिये घूमने लगीं। सभी भयभीत हो गये।

भगवान्ने सुदर्शन चक्रका प्रयोग किया। क्षणभरमें ही सारी माया नष्ट हो गयी। वह भगवान्‌के सामने आकर बलपूर्वक लिपट जाना चाहता था कि भगवान्ने उसके कानमें एक ऐसा घूँसा जमाया कि उसका सिर फट गया, मुँहसे खून गिरने लगा और वह धड़ामसे जमीनपर गिर पड़ा। उस समय दितिको छाती काँप रही थी। उसके स्तनोंसे खून बहने लगा था।

हिरण्याक्षकी मृत्यु हो जानेके पश्चात् सारे संसारमें आनन्द-मङ्गल छा गया। ऋषि, मुनि, देवता आ-आकर भगवान्की पूजा करने लगे। सुर-सुन्दरियोंने पुष्पवर्षा की, अप्सराएँ नाचने लगीं, सबने भगवान्‌की स्तुति की। भगवान्ने सम्मानपूर्वक सबको विदा किया।

विभिन्न पुराणों में हिरण्याक्षकी कथा विभिन्न प्रकारसे आती है। वह सब कल्पभेदसे अथवा एक ही कल्पमें यथासम्भव घट सकती है। किसी-किसी पुराण में लिखा है कि किसी समय पर्वतोंके अत्याचारसे ऊबकर देवराज इन्द्रने उनके पाँख काटना शुरू कर दिया। कई पर्वत भयभीत होकर पातालमें चले गये। इन दिनों पाताल ही असुरोंकी बस्ती थी। पर्वतोंने असुरोंसे कहा कि 'देवतालोग छोटे होनेपर भी तुमपर राज्य करते हैं और तुमलोग बड़े होकर भी उनके शासन में रहते हो। यह बात तुम्हारे लिये गौरवजनक नहीं है।' पर्वतोंकी बात सुनकर असुरोंको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने हिरण्याक्षको अपना अधिपति बनाकर देवताओंपर आक्रमण कर दिया। देवतालोग पराजित हो गये और स्वर्ग छोड़कर भग गये। इसके बाद सब देवताओंने मिलकर प्रतीकार करनेके लिये विष्णुभगवान्‌की शरण ली, उस समय चक्रधारी भगवान् विष्णुने यज्ञवाराह मूर्ति धारण करके हिरण्याक्ष के पास आगमन किया और युद्धमें हिरण्याक्षको मारकर देवताओंको अभयदान दिया।

किसी-किसी पुराण में दैत्यपति हिरण्याक्षके सम्बन्धमें दूसरे प्रकारका वर्णन आता है। वहाँ लिखा है कि पुत्रकी कामनासे इसने महादेवकी दीर्घकालतक उपासना: की थी। जब इसकी तपस्या और आराधनासे प्रसन्न होकर आशुतोष भगवान् शङ्करने इसे अपना दर्शन दिया और वर माँगने को कहा, तब हिरण्याक्षने उनसे एक पुत्रकी प्रार्थना की। भगवान् शङ्करने उसे अन्धकनामका एक पुत्र दिया। हिरण्याक्षने अन्धकको पुत्ररूपमें पाकर उसके साथ देवताओंसे युद्ध किया और उन्हें पराजित करके अपने पुत्रके साथ पृथ्वीको भी पातालमें ले गया। उस समय देवताओंकी प्रार्थनासे भगवान्ने वाराहावतार धारण किया और पातालमें जाकर हिरण्याक्षका वध करके पृथ्वीका उद्धार किया। अस्तु,

इस प्रकार पुराणोंमें विभिन्न प्रकारसे इसका वर्णन हुआ है। कहीं-कहीं चार-चार, पाँच-पाँच पुत्रोंके नाम मिलते हैं और कहीं-कहीं बिना पुत्रके ही युवावस्था में इसके वधकी बात मिलती है; परंतु सर्वत्र इसका वध भगवान् वाराहके द्वारा ही हुआ है। हिरण्याक्षके साथ भगवान्‌की दयालुताकी कथा जुड़ी हुई है।

स्तुति - प्रार्थना आदि होनेके पश्चात् भगवान्ने सबको सम्मानपूर्वक विदा कर दिया और वे स्वयं पृथ्वीके प्रेम और प्रार्थनासे विवश होकर उसीके पास रहने लगे।

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