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श्री वाराह अवतार कथा (वाराह अवतार की कहानी)

Varah Avatar Katha (Varaha Avatar Story)

भाग 3 - Part 3

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श्री वाराह अवतार- कथा

जब अपनेसे अपराध बन जाता है, किसीकी सहानुभूतिका भरोसा नहीं रहता, चारों ओर निराशा-हीनिराशा नजर आती है, उस समय यदि कोई थोड़ा-सा भी सद्व्यवहार कर देता है तो बड़ा आश्वासन मिलता है और लोग उसके कृतज्ञ हो जाते हैं। यदि ऐसे अवसरपर किसी बड़े आदमीका सहारा मिल जाय तब तो प्रसन्नताका ठिकाना ही नहीं रहता!

ऐसे ही अवसरपर भगवान्‌की सहायता प्राप्त होती है वे दूसते हुएको उबार लेते हैं, मरते हुएको जिला देते हैं, विष पीनेकी इच्छा करनेवालेको अमृतसे सराबोर कर देते हैं। इसीसे उन्हें परम दयालु कहा जाता है। है और इसीमें उनकी दीनबन्धुता है। जब जय-विजय सर्वथा निराश हो गये, ब्राह्मणोंका अपराध, भगवान्‌का अपराध और बहुत दिनोंतक भगवान्से वियोग होनेका घोरतम शाप देख-सुनकर वे घबरा गये, तब भगवान्ने उनपर अपनी कृपादृष्टि डाली। वे एक कोने में मुँह छिपाये खड़े थे। उन्हें साहस नहीं होता था कि वे भगवान् के सामने आवें और उनसे क्षमा माँगें। यद्यपि भगवान्‌का करुणामय स्वभाव उनसे छिपा न था, वे जानते थे कि 'भगवान् हमारे दोषोंपर दृष्टि न डालेंगे; क्योंकि यदि वे दोषोंपर दृष्टि डालने लगें तो करोड़ों कल्पोंमें भी उद्धार सम्भव नहीं, परंतु वे परम दयालु हैं, हमें क्षमा कर देंगे, हमें अपना लेंगे, तथापि आज न जाने क्या बात थी कि वे भगवान्के सामने जानेमें हिचकते थे।

जब उन्होंने देखा कि भगवान् स्वयं ही प्रेमभरी दृष्टिसे हमारी ओर देख रहे हैं, तब वे दौड़कर उनके चरणोंपर गिर पड़े, उनकी आँखों आँसुओंको धारा बह निकली, रोते-रोते हिचकी बँध गयी, वे कुछ बोल न सके। भगवान्ने अपने हाथोंसे उन्हें उठाते हुए कहा- 'जय-विजय! तुमलोग इतना घबराते क्यों हो ? क्या तुम्हें मेरी लीलाका रहस्य मालूम नहीं? मेरी इच्छाके विपरीत जगत् में कोई काम हो ही नहीं सकता, स्वयं जगत् भी नहीं हो सकता। तब भला इस वैकुण्ठमें मेरी इच्छाके विपरीत कोई बात कैसे हो सकती है? बात यह है कि मैं संसारमें अवतार ग्रहण करके कुछ लीला करना चाहता हूँ। उस लीलामें तुमलोगोंको प्रधान पात्र बनाना आवश्यक है। हमलोगोंकी जो सम्मिलित लीला होगी, उसे गाकर तथा स्मरण करके संसारके लोग सुगमतासे मेरे पास आ सकेंगे। केवल लोगोंके उद्धारके लिये ही यह लीला करनी है। और कोई ऐसा काम हो नहीं सकता,जिसके लिये मुझे जाना पड़े।

'इस लीलामें तुमलोगों को बड़ा कठोर काम करना होगा। परंतु तुम्हारा अधिकार देखकर ही यह काम तुम लोगोंको सौंपा गया है। तुम्हें मुझसे वैरभाव रखना होगा। और मैं तुमलोगों को अपने हाथोंसे मारूंगा उस समय तुमलोगोंको याद नहीं रहेगा कि ये हमारे स्वामी हैं, हमारे सेव्य हैं। लक्ष्मीने भी तुम्हें शाप दे दिया है, इन ब्राह्मणोंका भी शाप हो चुका है, अब इसका सदुपयोग करना चाहिये। मेरे प्यारे पार्षदो मैं तुम्हें छोड़ नहीं सकता। मेरी शरणमें आकर किसीका पतन नहीं हो सकता। यदि तुम्हें तीन बार संसारमें जन्म लेना पड़ेगा तो मैं तुम्हारे लिये चार बार आऊँगा। तुम मेरे हो। मैं तुम्हारा हूँ। मेरे लिये इतना कष्ट उठाने में तुम्हें आपति नहीं होनी चाहिये।'

भगवान् तो उन्हें समझाकर अपने धाममें चले गये, परंतु विजयको संतोष नहीं हुआ। वह दुखी होकर अपने भाई जयसे कहने लगा-'भैया! मैं बड़ा दुखी हूँ। मैं यह सोचकर दुखी नहीं है कि मुझे अयोनिमें जाना पड़ेगा। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ। यदि अपने किये हुएका दण्ड भोगनेके लिये मुझे नरकमें जाना पड़े और उसमें करोड़ों वर्षोंतक रहना पड़े तो भी मुझको दुःख नहीं होगा। मैं भगवान्का स्मरण करते-करते बात-की यातमें उन ययोको बिता दूंगा। परंतु अपने स्वामीसे, भगवान् से पृथक् होकर मैं उनका प्रेमसे स्मरण भी नहीं कर सकूँगा, इतना ही नहीं, उनसे वैरभाव रखूंगा यह सोचकर मैं चिन्ताके मारे मरा जा रहा हूँ। भैया! मुझे बचाओ!' इतना कहकर वह जोर-जोर से रोने लगा।

विजयको समझाते हुए जयने बड़ी गम्भीरतासे कहा- 'मेरे प्राणप्रिय भाई! तुम इतना घबराते क्यों हो? तुम तो भगवान् से प्रेम रखते हो, तुम तो उनके सच्चे सेवक हो, मुझे तो इसमें जरा भी संदेह नहीं है। भाई। प्रेमधर्म, सेवाधर्मका पालन करना बड़ा ही कठिन है। इसमें अपनी मनोवृत्तियोंकी परवा छोड़ देनी पड़ती है, अपने सुख-दुःखकी उपेक्षा कर देनी पड़ती है। जिससे अपने प्रियतमको प्रसन्नता हो, अपने स्वामी सुखी हों, वही करना पड़ता है। भगवान् जहाँ भेजें, जिस रूपमें भेजें और जैसे रखें, हमें उसी प्रकार जाना होगा, रहना होगा। हम उनके हैं, उनकी कठपुतली हैं, ये जो नाचनचायेंगे, हम प्रसन्नतासे नाचेंगे, उनकी प्रसन्नता हो हमारी प्रसन्नता है।

'क्या तुम उनसे इसलिये प्रेम हो, इस भावसे सेवा करते हो कि वे हमारी इच्छाके अनुसार काम करें? हमें जिसमें सुख प्रतीत हो वही करें? हमारी | इच्छाके अनुसार न होनेपर हम दुखी हों। दुःखका मूल मन है। मनमें जब कोई कामना होती है कि हम इस प्रकार रहें, इस प्रकार रखे जायें और वैसा नहीं होता तब हमारी कामनापर ठेस लगती है, तभी हम दुखी होते हैं। बिना कामनाके कोई दुखी हो ही नहीं सकता। भगवान् जो कुछ करते हैं, हमारे भलेके लिये करते हैं और उनकी इच्छापर आनन्दमग्न होकर नाचते रहना ही हमारा धर्म है। उठो, चलो, विषाद छोड़ो। भगवान्‌की इस आज्ञाका अविलम्ब पालन किया जाय!"

जयकी बात सुनकर विजयको बड़ा संतोष हुआ। दोनोंने श्रद्धाभक्तिपूर्वक भगवान्को प्रणाम किया। इतनेमें ही उनके वैकुण्ठसे गिरनेका समय आ पहुँचा। उनके गिरनेके समय हाहाकार मच गया। ब्रह्मा उस समय अपनी सभामें बैठे हुए थे। उन्होंने जब देखा कि भगवान्‌के प्रिय पार्षद वैकुण्ठसे गिरकर असुरयोनिमें जा रहे हैं और अभी इसी समय इन्हें भगवान्‌को स्मृति नहीं है, तब उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उनके मनमें ऐसे भाव आने लगे कि जो अबतक कभी नहीं हुआ था, वह इस समय कैसे हो रहा है! अबतक केवल मेरे लोकतक ही पुनर्जन्मकी गति थी, आज वैकुण्ठसे भी पुनर्जन्म होनेकी बात देखी गयी। क्या भगवान्‌के लोक में भी कालकी पहुँच हो गयी! परंतु ऐसा कैसे हो सकता है! काल तो भगवान्के लोकका स्पर्श भी नहीं कर सकता, परंतु ये गिर तो रहे हैं। अवश्य इसमें कुछ न कुछ भगवान्की लीला होगी। भगवान् भी कैसी कैसी लीलाएँ करते हैं।

भगवान्‌की लीलाका स्मरण करते-करते ब्रह्मा तन्मय हो गये। थोड़ी देरके बाद जब उनकी तन्मयता भंग हुई, तब उन्हें स्मरण हो आया कि यह तो कोई नयी बात नहीं है। प्रत्येक वाराह-कल्पमें ऐसा ही होता आया है। अब भगवान् जगत्‌का कल्याण करनेके लिये प्रकट होनेवाले हैं। अहा! भगवान् कितने दयालु हैं। | जगत्के प्रपोंमें फँसे हुए जीवोंका उद्धार करनेके लियेवे स्वयं जगत् में आते हैं। अनेक प्रकारकी लीलाएँ करते हैं, बहुतोंको तार देते हैं और ऐसी लीला कर जाते हैं कि उसका स्मरण- चिन्तन करके लोग भव सागरसे पार उतरते रहें। धन्य हैं भगवान् और धन्य है उनकी लीला !

ब्रह्मा पुनः समाधिस्थ हो गये। वे भगवान्‌के चिन्तनमें इतने तल्लीन हो गये कि उनकी समाधि तब खुली, जब जय-विजय ऊपरके लोकोंसे बहुत ही नीचे आ चुके थे। ब्रह्माने सोचा अब इन्हें कहीं स्थान देना चाहिये। इन्हें गर्भमें धारण करनेकी शक्ति भला किसमें है ! हाँ, दिति इन्हें अपने गर्भमें धारण कर सकती है। अच्छा, तब यही ठीक है। ब्रह्माने उन्हें दितिके गर्भमें जानेकी व्यवस्था कर दी।

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