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श्री वाराह अवतार कथा (वाराह अवतार की कहानी)

Varah Avatar Katha (Varaha Avatar Story)

भाग 2 - Part 2

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श्री वाराह अवतार-कथा

भजन-पूजनके समय तो भगवान्‌की याद आती ही है; परंतु उससे भी अधिक याद तब आती है जब अपराध करनेपर हमें पश्चात्ताप होता है। सच्चे पश्चात्तापके समय अभिमान नहीं रहता, दीनता रहती है और यह अभिमानका न रहना, दीनताका होना भगवान्के प्रकटहोने का शुभ समय है। हम खूब पुण्य करें, दान करें, करना अच्छा ही है; परंतु यदि उनके कर्तृत्वका भार अपने सिरपर लाद लें, अभिमानसे फूल उठें तो हम भगवान् से पृथक् हो जायँगे। भगवान्‌का ही राज्य रहना चाहिये, अभिमानका नहीं अभिमान और अभिमानके अभावका अभिमान नष्ट होते ही भगवान् प्रकट होते हैं।

अपराध होनेके कारण जय-विजय दीन हो गये हैं और क्रोध आ जानेके कारण सनकादि भी शिथिल पड़ गये हैं। ठीक यही अवसर है भगवान्‌के प्रकट होनेका। आखिर, भगवान् आ ही गये उनके सौन्दर्यातका पान करके सबकी आँखें छक गयीं। उन लोगोंने निर्निमेष नयनोंसे देखा कि कमलनयन भगवान् श्यामसुन्दर श्रीलक्ष्मीजीके साथ स्वयं आ रहे हैं। उनके कंधोंपर पीताम्बर फहरा रहा है, काले-काले मुँघराले बाल कपोलोंतक लटके हुए हैं, मकराकृत कुण्डलकी छटा न्यारी ही है, मुकुटसे सूर्यके समान हजारों किरणें निकल रही हैं, ऊँचे ललाटपर गोरोचनका तिलक है, टेढ़ी-टेड़ी भी अनुग्रहकी वर्षा कर रही हैं, प्रेमभरी चितवन और तोते के समान ऊँची नाक है, मरकतमणिके समान स्वच्छ चमकते हुए कपोल हैं, लाल-लाल ओठोंमेंसे दाँतोंकी धवलता मुसकानके बहाने सुधाकी वर्षा कर रही है, शङ्ख-जैसे कण्ठमें वैजयन्ती माला शोभा पा रही है और वक्षःस्थलपर कौस्तुभ मणिकी चमक तो निराली ही है। पहने हुए पीताम्बरके नीचेसे शरीरकी श्यामता निकल निकलकर उसकी प्रतिभाको दबाना चाहती है। चरणोंके नख-मण्डलसे लालिमामिश्रित ज्योति निकलकर प्राणोंमें एक नवीन चेतनताका संचार कर रही है। तीन हाथोंमें शङ्ख, चक्र, गदा हैं और चौथे हाथसे वे मानो अभय दान कर रहे हैं। मानो सबको वे अपनी दयाके समुद्रमें अवगाहन करानेके लिये ही बड़े वेगसे चले आ रहे हैं।

भगवान्को इस रूपमें आते देखकर सनकादि विद्वल हो गये और आनन्दमय होकर अतृप्त आँखों भगवान्को निहारने लगे। इनकी आँखें मुखमण्डलपर ही अटक गर्यो; चरण-स्पर्श अथवा प्रणाम आदि करनेका ध्यान ही न रहा। भगवान् तो बड़े लीलाप्रिय हैं। वे सनकादिके पास आकर भी न आये, कुछ दूरपर खड़े-खड़े मुसकराते रहे इधर सनकादिका शरीर भी जड़वत् हो रहा था।

वे भगवान्का आलिङ्गन करना चाहते थे, पर न उनके पैर उठते थे न हाथ! वे आँखोंद्वारा भगवान्‌की रूपमाधुरीको पी जाना चाहते थे, पर आँखोंने कोरा जवाब दे दिया। वे भूले हुएकी भाँति, छके हुएकी भाँति जहाँ थे वहीं खड़े रहे, अपना शरीर हिला न सके। उस समय उनकी तन्मयता दर्शनीय थी और स्वयं भगवान् भी उसे देख-देखकर आनन्दित हो रहे थे। पता नहीं, कितनी देरतक वे लोग इसी अवस्थामें रहे। यदि वैकुण्ठमें कालकी गति होती, समयका माप होता तो बतलाया जा सकता कि कितनी देरतक उनकी यह विलक्षण समाधि लगी रही होगी।

जब ध्यान आया कि भगवान् सामने खड़े हैं, तब वे साष्टाङ्ग उनके चरणोंपर गिर पड़े। वे सब कुछ भूलकर भगवान्की चरणधूलि लोटने लगे। बाँकी मणिमय भूमिपर पड़े हुए भगवान्‌ के चरणोंके पद्म पराग उनके शरीरमें लग लगकर उनके स्वर्ण वर्ण शरीरकी आभाको और भी चमकाने लगे। उनकी आँखोंसे आँसुओंकी धारा बह रही थी। शरीर पुलकित था और चेतना लुप्त थी। भगवान्ने अपने हाथों उठाकर सत्कार किया, मानो कोई अपने गुरुजनोंका सम्मान कर रहा हो। भगवान्‌का प्रेम देखकर सब-के-सब मुग्ध हो गये। कुछ क्षणोंमें सम्हलकर सिर झुकाकर अञ्जलि बाँधे हुए रुँधे कण्ठसे वे भगवान्‌की स्तुति करने लगे। उन्होंने कहा-'प्रभो! आपकी यह नयनाभिराम मूर्ति सभीके हृदयोंमें रहती है। बड़े-बड़े योगीश्वर बहुत समयतक ध्यान-समाधि लगाकर इसके दर्शनकी अभिलाषा किया करते हैं। जिनके हृदयमें छल, कपट, राग द्वेष आदि हैं, उन्हें तो कभी इसके दर्शन होते ही नहीं। परंतु आपने कृपा करके अपनी वही अनूप रूप राशि हमारी आँखोंके सामने कर दी है। हम अपने सौभाग्यकी कितनी प्रशंसा करें। परंतु प्रभो! यह हमारे सौभाग्यकी महिमा नहीं है, यह तो आपकी अहैतुकी
कृपाका फल है।' 'अबतक हम केवल कानसे सुना करते थे, हमारे पिता ब्रह्मा प्रायः आपके स्वरूप, लीला और गुणोंका वर्णन करके हमें आपकी ओर प्रवृत्त किया करते थे; परंतु हम अपने ज्ञानके घमंडमें उनकी बातोंको इतना अधिक महत्त्व नहीं देते थे। आज उनकी बातोंका अर्थसमझमें आया हमें अपनी भूल स्वीकार है। दीनबन्धो हमें सर्वदा आपकी कृपाका अनुभव होता रहे।'

'जगत्के झमेलेमें ठोकर खाते-खाते जब संत सद्गुरुकी कृपा होती है और अपने जीवन एवं समयके व्यर्थ बितानेका पश्चाताप होता है, संसारके किसी विषयका भरोसा नहीं रहता, तब कहीं जाकर आपके चरणोंका आश्रय मिलता है और आपके प्रेमका कुछ कुछ उदय होता है। जिसे संसारमें भटकनेके समय आनन्द मालूम होता है, हृदयमें वैराग्यकी प्रखर ज्वाला नहीं जल उठती, वह आपकी भक्ति और ज्ञानका लेशमात्र भी नहीं पा सकता और जिसने आपके चरणोंकी शरण ग्रहण कर रखी है, उसे किसीका भय नहीं, वह तो सर्वदा निर्भय रहता है।'

'प्रभो! हमारे अपराधोंके कारण चाहे हमारे सैकड़ों जन्म हों, बार-बार नरकमें जाना पड़े और वहीं रहना पड़े, इसकी हमें तनिक भी चिन्ता नहीं है। हम केवल इतना ही चाहते हैं कि हमारा चित्त भौरोंके समान सदा आपके चरणकमलोंमें रमा करे। वाणी तुलसीकी भाँति आपके चरणकमलोंसे लिपटी रहे और कान आपके ही दिव्य अनन्त गुणगणोंसे भरते रहें और सर्वदा अनभरे ही बने रहें ।'

'भगवन्! आपके दर्शनसे हमें परम आनन्द प्राप्त हुआ है। हम आपके चरणोंमें शतशः सहस्रशः और कोटिशः प्रणाम करते हैं।'

भगवान् ने कहा- 'ऋषियो! आपकी महिमा अनन्त है। आप मेरे पूजनीय देवता हैं। मुझे आपलोगोंसे ही कीर्ति प्राप्त हुई है। मेरी सत्ता आपकी ही सत्तापर अवलम्बित है। जिस लक्ष्मीके लिये बड़े-बड़े लोग तपस्या करते हैं, वह विरक्त होनेपर भी मेरी चरण सेवा इसलिये करती है कि मुझपर ब्राह्मणोंकी, कृपालु महात्माओंकी बड़ी कृपा है। मैं धनिकोंके द्वारा किये हुए यज्ञोंमें, जिनमें अग्रिमें खूब घी आदि हविष्योंकी आहुतियाँ दी जाती हैं, उतनी प्रसन्नतासे स्वीकार नहीं करता जितनी ब्राह्मणोंको खिलाये हुए पदार्थोंको स्वीकार करता हूँ। जिन ब्राह्मणोंकी पूजा मैं करता हूँ, किसमें ऐसी सामर्थ्य है, जो उनका तिरस्कार कर सके? जो तिरस्कार करनेपर, गाली देनेपर भी ब्राह्मणोंका तिरस्कार नहीं करते बल्कि प्रसन्नताके साथ प्रेमभरी वाणीसे उनका सम्मान करते हैं और उन्हें मेरा स्वरूपसमझते हैं, वे मानो मेरी ही पूजा करते हैं।" 'ब्राह्मणो! ये जय और विजय यों तो मेरे पार्षद हैं;

परंतु इन्होंने मेरे शासन और आज्ञा उल्लङ्घन करके। आपका अपमान किया है। सेवकका अपराध स्वामीका | ही है। मैं अपने इस अपराधके लिये स्वयं लज्जित है।। आपलोगोंने जो इन्हें दण्ड दिया है, वह भी मुझे मालूम है आपलोगोंकी इच्छा मेरी इच्छा है और वही हुआ है, जो मैं चाहता था। इन दोनोंने मेरे अभिप्रायको न समझकर जो यह दुर्व्यवहार किया है, उसके फलस्वरूप ये तीन जन्मोंतक असुरयोनिमें जायँ और शीघ्र ही पुनः अपने स्थानपर लौट आयें। यह मैं इनपर कृपा कर रहा । ये मेरे प्यारे सेवक हैं, बहुत दिनोंतक मुझसे ये अलग रहें, यह मुझे अभीष्ट नहीं है।'

भगवान्‌की बात सुनकर ऋषियोंकी बुद्धि चकरा गयी। मानो उन्होंने समझा ही नहीं कि 'भगवान् क्या कह रहे हैं।' वे गद्गद वाणीसे भगवान्से कहने लगे। वे बोले-भगवन्! आपकी बात हमारी समझमें नहीं आ रही है। आप त्रिलोकीनाथ होकर हमें अपना आराध्यदेव बतला रहे हैं, यह आपकी कृपा है। आप ब्राह्मणोंक आत्मा हैं, स्वामी हैं, सनातनधर्मके परम रहस्य हैं। आप यदि ब्राह्मणोंका इतना सम्मान न करेंगे तो और कौन करेगा? परंतु प्रभो ! यहाँ सत्त्वके साम्राज्यमें आकर हमलोगोंने बड़ा अनुचित कार्य किया है। इसके लिये आप हमें दण्ड दें और इन्हें शापसे मुक्त कर दें। ये निरपराध हैं।'

भगवान्ने कहा- इसके लिये आपलोगोंको चिन्ता करनेकी आवश्यकता नहीं। ये असुरयोनिमें जाकर वैरभावसे मेरा चिन्तन करेंगे और फिर मैं स्वयं जाकर इनका उद्धार करूँगा। यह शाप मेरी इच्छासे ही इन्हें मिला है, ऐसा आपलोग समझें।'

इसके बाद बड़े प्रेमसे वैकुण्ठकी शोभा देखकर और भगवान्की परिक्रमा, प्रणिपात आदि करके उनकी सम्मति लेकर सनकादि वहाँसे विदा हुए। वे मार्गमें भगवान् और उनके वैकुण्ठकी प्रशंसा करते हुए यथेच्छ चले गये।

अब भगवान्ने जय-विजयपर दृष्टि डाली।

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