प्रेम पगे जु रँगे रँग साँवरे, माने मनाये न लालची नैना

प्रेम पगे जु रँगे रँग साँवरे, माने मनाये न लालची नैना ।
धावत है उत ही जित मोहन रोके रुकै नहिं घूघट ऐना ॥
कानन को कल नाहिं परै बिन प्रीति में भीजे सुने मृदु बैना ।
‘रसखान’ भई मधु की मखियाँ अब नेह को बंधन क्यों हूँ छुटेना ॥