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साक्षात् भगवत्कृपा

घटना कई दशक पूर्वकी है। उस समय मैं दरभंगा जिला-स्कूलमें संस्कृताध्यापक था। उन दिनों मेरे पास धनाभावके साथ-साथ समयाभाव भी था। धनाभावके कारण मैं सामनेकी दूकानसे दीपावलीके लिये समयपर सामान उधार नहीं ले सका। इधर दीपावलीके दो दिन पूर्वसे दूकानदारोंने उधार देना बन्द कर दिया था। दीपावलीके दिन किसीसे दो-चार रुपये कर्ज भीलेना सम्भव नहीं था, इसलिये मुख भी नहीं खोला। एक भी पैसा हाथमें न था । घरमें छोटे-छोटे तीन बच्चे, एक छोटा भाई तथा पत्नी थी। चारों ओर दो दिन पहलेसे ही दीपावलीकी चहल-पहल थी।

मैंने अपनी पत्नीके साथ गुप्त रूपसे यह तय किया कि प्रातः चार बजेके लगभग ही हमलोग सभी बच्चोंके साथ दरभंगा रेलवे स्टेशनकी ओर चल दें और घूमते फिरते रात नौ-दस बजे घरपर आकर चुपचाप सो जायेंगे। घर बन्द देखकर मुहल्लेवाले समझेंगे कि पण्डितजी अपने गाँव चले गये। (यद्यपि यह चक्कर भी पैदल ही लगाना होता; क्योंकि पासमें पैसे नहीं थे।)

इसी विचारमें मग्न था कि सड़कपर एक ताँगा रुका, उससे एक नवयुवक उतरा और उसने मेरा नाम लेकर कहा कि 'मैं उनसे मिलना चाहता हूँ।' मैंने कहा—'कहिये, मैं ही हूँ।' वह नवयुवक बोला-'मैं प्राइवेट पैट्रिक परीक्षा के टेस्टमें बैगा में अपने आवेदन-पत्रको लेकर प्रधानाध्यापकसे मिला, उन्होंने कहा कि जाओ 'मैथिलोंका ठेका पं० आद्याचरण झा लिये हुए हैं, वे ही तुम्हारे फोटोको अभी प्रमाणित कर देंगे, दीपावलीके बाद अमुक तिथिको विद्यालय खुलेगा, उसी दिन फार्म जमा करना होगा। इसलिये कृपया मेरे चित्रको प्रमाणित कर दें, फार्म फीस रख लें तथा विद्यालय खुलनेके दिन जमा कर दें। मैं पुनः शीघ्र आऊँगा।' यह कहते हुए फोटोसहित फार्म तथा दस रुपये फीस आदिके लिये देते हुए उसने प्रणाम किया और घर जानेकी आज्ञा माँगी; क्योंकि ट्रेन छः बजे खुलती थी, उसे उसीसे घर जाना था। मैं किंकर्तव्यविमूढ़सा देखता रहा और वह छात्र बड़ी नम्रतासे पुनः मैथिली भाषामें प्रणाम निवेदन करते हुए चला गया।

विद्यालयके तत्कालीन प्रधानाध्यापक मुझसे किसी विषयको लेकर अप्रसन्न थे। यद्यपि प्रधानाध्यापक महोदयने उक्त छात्रसे सीधे व्यंगमें ही मेरी ओर इशारा किया था, किंतु वह अज्ञात छात्र इसे न समझ सका और सीधे मेरे पास चला आया।

मैंने अस्थायी रूपमें प्राप्त उक्त दस रुपयेसे तुरंत दीपावली के लिये सामानको व्यवस्था की उन दिनों दस रुपये पर्याप्त थे।

संकट-भरे दिनोंमें मुझ जैसे गरीब शिक्षकको दीपावलीके दिन बच्चोंके साथ चुपके-चुपके मोहल्लासे पैदल भाग निकलनेकी कारुणिक स्थितिसे भगवान्ने असामयिक, अकाल्पनिक दस रुपये भेजकर बचा लिया। इस अविस्मरणीय रहस्यमयी घटनाकी आज भी स्मृति मुझमें भगवच्चरणोंके प्रति अगाध प्रीतिका संचार कर रही है। आजका पाश्चात्त्य विचार-धारासे प्रभावित मानव सम्भवतः इसे मात्र 'संयोग' कहकर टाल देगा, परंतु मेरी दृष्टिमें यह साक्षात् भगवत्कृपा है।

[ पं० श्रीआद्याचरणजी झा]



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saakshaat bhagavatkripaa

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[ pan0 shreeaadyaacharanajee jhaa]

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