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श्रीमद्भागवतसप्ताहके श्रवणसे सर्पदंशभयका निवारण

बरेली जनपदान्तर्गत आँवला तहसीलके ग्राम सतारनगरमें जुलाई सन् १९७५ से जून १९७६ तक सर्पदंशकी लगभग सौ घटनाएँ घटित हुई। तीसरे या चौथे दिन सर्पदंशकी किसी एक नयी घटनाका होना प्रायः अनिवार्य सा हो गया था, जबकि ग्रामकी सीमासे बाहर एक भी घटना नहीं घटती थी। इस प्रकार निरन्तर बढ़ती हुई सर्पदंशकी घटनासे ग्रामवासी व्याकुल हो उठे।

भगवत्कृपासे उसी समय एक वैष्णव महात्मा ग्राम में पधारे। उनके आगमनकी सूचना प्राप्त होनेपर ग्रामके प्रमुख प्रमुख व्यक्ति उन महात्माके पास पहुँचे और यथोचित दण्डवत् प्रणामके बाद उन महात्माके समक्ष ग्राममें व्याप्त भय और सर्पदंशकी घटनाका वर्णन सुनाया तथा रक्षाका उपाय पूछा।

उन महात्माने ग्रामकी समस्त करुण कथाको तन्मयता से श्रवण किया। एक क्षण मौन रहनेके बाद कहने लगे- आप लोग भगवन्नामकीर्तन करते हुए श्रीमद्भागवत कथाको सात दिनतक पूर्ण श्रद्धा, भक्तिके साथ सुनें। इससे यह सर्पदंशभय दूर होकर ग्रामभर में सुख समृद्धिका साम्राज्य हो जायगा। लेकिन सप्ताहभरके लिये ग्राम में पूरी तरहसे सद्व्यवहार होना आवश्यक है तथा किसी योग्य एवं सच्चरित्र, भगवन्निष्ठ, विद्वान् ब्राह्मणद्वारा कथावाचनका यह कार्य सम्पन्न करायाजाना चाहिये। तभी कार्यमें सफलता प्राप्त हो सकेगी। साथ ही यह भी ध्यान रहे कि यह पुण्य कार्य किसी एक व्यक्तिद्वारा न होकर सार्वजनिकरूपसे (चंदेके द्वारा) किया जाय। सफलता अवश्यम्भावी है।

इससे ग्रामवासियोंके म्लान मुखमण्डलपर हर्षकी एक लहर दौड़ गयी। उस समय सबलोग अपने-अपने घरको वापस चले गये। उसी रातको ग्रामप्रधानके यहाँ समस्त ग्रामवासियोंकी एक सभा हुई। उसमें महात्माजीद्वारा बताये श्रीमद्भागवत सप्ताहका विधिपूर्वक श्रवण करनेका निश्चय किया गया। तत्काल ही यथाशक्ति समस्त ग्रामवासियोंने दानकी धनराशि ग्रामप्रधानके पास जमा कर दी।

योजनानुसार श्रीशुकोद्गीत भगवच्चरितामृतकी सरितामें भक्तगण अवगाहन करने लगे। यह सुधाधारा सप्ताहपर्यन्त अबाधगतिसे प्रवाहित होती हुई अपने लक्ष्यपर पहुँचकर ग्रामके विषाक्त वातावरणको शान्त करने लगी।जिस दिनसे चंदेकी धनराशि ग्राम प्रधानके पास जमा की गयी, उसी दिनसे सर्पदंशकी घटना सर्वथा बन्द हो गयी।

यह है श्रीहरिकी वाङ्मयी मूर्ति श्रीमद्भागवतपुराणकी लोकोत्तर कृपामयता, जिसके संकल्पमात्रसे समस्त ग्रामवासियोंका प्रवर्तमान सर्पदंशभय चिरकालके लिये समूल नष्ट हो गया।

[ श्रीलेखरामजी शास्त्री ]



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shreemadbhaagavatasaptaahake shravanase sarpadanshabhayaka nivaarana

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[ shreelekharaamajee shaastree ]

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