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श्रीशत्रुघ्नकुमारजी की मार्मिक कथा
श्रीशत्रुघ्नकुमारजी की अधबुत कहानी - Full Story of श्रीशत्रुघ्नकुमारजी (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [श्रीशत्रुघ्नकुमारजी]- भक्तमाल


रिपुसूदन पद कमल नमामी सूर सुसील भरत अनुगामी ॥

संसारमें भगवान् के कई प्रकारके भक्त होते हैं। सबके आचार तथा सबके व्यवहार भिन्न-भिन्न प्रकारके होते हैं। शत्रुघ्रकुमार उन सब भक्तोंमें विलक्षण हैं। वे मूक कर्मयोगी हैं। उन्हें न कुछ कहना रहता, न पूछना रहता। भगवान्‌के भक्तका अनुगमन करना, भक्तकी सेवा करना, भक्तके ही पीछे लगे रहना-यह सबसे सुगम साधन है। भगवान् क्या करते हैं, कब कृपा करेंगे, कैसे कृपा करेंगे, इन बातोंको सोचना छोड़कर किसी सच्चे प्रेमी संतकी शरण ले लेना और निश्चिन्त होकर उसकी सेवा करना, उसीपर अपनेको छोड़ देना अनेक महाभाग पुरुषोंमें देखा गया है। शत्रुघ्रकुमारने भी इसी प्रकार भगवान् के परम प्रिय भक्त श्रीभरतलालजीकी सेवाको अपना आदर्श बना लिया था और इससे वे कभी भी विचलित नहीं हुए।

शत्रुघ्नजीके विषयमें ग्रन्थोंमें बहुत ही कम चर्चा आयी हैं; पर जो आयी है, उससे उनकी एकान्त निष्ठाका पूरा परिचय मिलता है। उन्होंने भरतजीका आश्रय लिया और फिर एक बार भी उस आश्रयसे पृथक् नहीं हुए।कोई भी यह सोचतक नहीं सकता था कि शत्रुघ्र कभी भरतसे अलग रह सकते हैं। चित्रकूटमें परीक्षाके लिये जब वसिष्ठजीने भरतलालसे कहा-'श्रीराम-लक्ष्मण अयोध्या लौट जायँ और तुम दोनों भाई वनको जाओ।' तब बिना एक क्षणके विलम्बके भरतजीने इसे स्वीकार कर लिया। शत्रुघ्नसे भी पूछना चाहिये, यह सोचनेकी आवश्यकता मानना तो शत्रुघ्नके भावपर अविश्वास करना होता ।

एक बार ननिहालसे जब भरत शत्रुघ्र लौटे, तव मन्थरापर छोटे कुमारका रोष प्रकट हुआ। वे उस कुटिलाको बहुत कठोर दण्ड देना चाहते थे। दया करके भरतजीने उन्हें रोक दिया। इसके पश्चात् वे शान्त हो गये। फिर किसीसे वे रुष्ट नहीं हुए। चित्रकूटसे लौटनेपर भरतजी नन्दिग्राममें तपस्वी बनकर रहने लगे। माताओंकी, राज-परिवारकी, सेवकोंकी, सभीकी व्यवस्थाका भार शत्रुघ्रजीपर पड़ा। शत्रुघ्नजीको क्या किसीसे कम दुःख था? श्रीरामके वनवाससे उन्हें कम पीड़ा हुई थी? ऐसी व्यथामें सारे भोग-सुख काटने दौड़ते हैं। उस समय सब कुछ छोड़कर व्रत, उपवास, संयम, नियम, तप करनेसे । आत्मतोष होता है। हृदयकी पीड़ा कुछ घटती है। परंतुजब हृदय पीड़ासे हाहाकार कर रहा हो, जब वस्त्र आभूषण जलती अग्नि-से लगते हों, तब दूसरोंको प्रसन्न करनेके लिये, दूसरोंको सुख देनेके लिये हृदय दबाकर, मुखपर हँसी बनाये रखकर उन सबको स्वीकार करना कितना बड़ा तप है- इसका कोई सहृदय अनुभवी पुरुष ही अनुमान कर सकता है। शत्रुघ्रजीपर माताओंकी सेवाका भार था। उन दुःखिनी माताओंको समान भावसे प्रसन्न रखना था। शत्रुघ्र स्वयं वस्त्राभरणसे सजे न रहें, प्रसन्न न दीखें तो माताओंका शोक जग जायगा। उन्हें अपार पीड़ा होगी। अतएवशत्रुघ्रजीने चौदह वर्ष अंदरसे भगवान्‌ के साथ पूर्ण योग रखते हुए, पूर्ण संयम पालते हुए भोगको स्वीकार करके, प्रसन्न रहनेकी मुद्रा रखनेका सबसे कठोर तप | किया। उन्होंने सबसे कठिन कर्तव्यका पूरे चौदह वर्ष निर्वाह किया।

श्रीरामराज्याभिषेकके पश्चात् रघुनाथजीकी आज्ञासे लवण नामक असुरको मारकर शत्रुघ्नजीने मधुपुरी बसायी, | वहाँ राज्यको स्थापना की और पीछे वहाँका राज्य अपने पुत्रोंको देकर फिर वे श्रीरामके समीप पहुँच गये। पूरे जीवनमें वे भरतलालकी आज्ञाके अनुवर्ती थे।



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