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श्रीपरशुरामदेवजी की मार्मिक कथा
श्रीपरशुरामदेवजी की अधबुत कहानी - Full Story of श्रीपरशुरामदेवजी (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [श्रीपरशुरामदेवजी]- भक्तमाल


श्रीपरशुरामदेवजीका जन्म जयपुर राज्यमें सोलहवीं सदीमें हुआ था। वे परमरसिक महात्मा हरिव्यासदेवजीके शिष्य थे। परशुरामदेव अच्छे कवि और रसोपासक थे। भगवान् की कथा-सुधाके रसास्वादनमें उन्हें अमित आनन्द मिलता था। दूसरोंको कथामृतपान करानेके लिये वे सदा प्रस्तुत रहते थे। वे तिलक लगाने, माला फेरने और भगवद्गुणानुवाद करनेको बड़ा महत्त्व देते थे। वे कहा करते थे कि जहाँ धर्मकी खेती होती है, भगवान्के भक्तजन रहते हैं, वहीं साधु और संत अपने रहनेका स्थान बना लेते हैं। जिस तालाबमें पानी नहीं होता, उसके किनारे हंस नहीं रहा करते। जिस मनुष्यमें भगवान्का प्रेम नहीं होता, उसके पास भक्तजन भूलकर भी नहीं जाते।

परशुरामदेवका व्यक्तित्व बहुत ऊँचा था। उनमें अलौकिक तेज था। उनका जीवन पूर्णरूपसे तपोमय था। विधर्मीतक उनके दर्शनसे प्रभावित हो जाया करते थे। अजमेरके निकट सलेमशाह नामका एक फकीर रहता था। वह हिंदुओं तथा अन्य मतावलम्बियों को हेय दृष्टिसे देखता था। साधु-संतोंपर अत्याचार करनेमें उसे तनिक भी संकोच नहीं होता था। लोग उससे डरते थे कि कहीं अपनी सिद्धियोंसे वह उन्हें हानि न पहुँचा दे। महात्मा हरिव्यासजीकी आज्ञासे परशुरामदेवने उसके दम्भ और पाखण्डका अन्त किया। जनताका उसके आतङ्कसे परित्राण करके भगवद्भक्तिकी महिमाका विस्तार किया। सलेमाबादमें उन्होंने राधा-माधवके मन्दिरका निर्माण करवाया और शहरका नाम परशुरामपुर रखा।परशुरामदेवजी उच्चकोटिके रसिक थे, बड़े दार बाटसे रहते थे। देखनेवालोंको भ्रम हो जाया करता था कि वे विरक्त हैं या गृहस्थ एक बार एक ब्राह्मणने इनकी त्यागवृतिकी परीक्षा ली। उसने इनसे त्यागकी बात चलायी। संतों और भक्तोंका चरित्रवैचि दूसरोंके उपकारके लिये होता है। परशुरामदेवने अपने सारी वस्तुएँ त्याग दीं, केवल कौपीन धारणकर वे उसके साथ नागेश्वर पहाड़की गुफार्मे चले गये। थोड़ी ही देरमें एक बनजारा आया, उसने अपनी सम्पत्ति इनके चरणोंमें चढ़ा दी ब्राह्मण परशुरामदेवको इस सिद्धि और प्रभावसे चकित हो उठा। उसने चरण पकड़कर क्षमा माँगी, उनकी आज्ञामें प्राणतक निछावर करने को तैयार हो गया।

परशुरामदेवने भगवान्की रसमयी भक्तिसे अनेकों जीवोंका कल्याण किया। एक बार एक अद्वैतवादी वेदान्ती संन्यासीके शिष्यने उनसे दीक्षा लेकर भक्तिमार्गका अवलम्बन लिया। संन्यासीने उसके सिरपर एक घड़ा जल भरकर उनके सामने भेजा, जिसका आशय यह था कि मैंने इसके हृदयको अद्वैतजलसे परिपूर्ण कर दिया था। इसे नये ज्ञानकी आवश्यकता नहीं थी। परशुरामदेवने घड़े में मीठा डाल दिया, जिसका अभिप्राय यह था कि अभी भक्ति-माधुरीकी उसमें कमी थी। संन्यासी उनकी ओर आकृष्ट हो गया और उनमें उसकी श्रद्धा हो गयी। उन्होंने 'परशुरामसागर' नामका एक ग्रन्थ निर्माण किया। इस ग्रन्थमें बाईस सौ दोहे, छप्पय, छन्द और अनेक पद हैं। इस सरस ग्रन्थमें भक्ति, ज्ञान, गुरुनिष्ठा और प्रेमकी महिमाका बखान विशेषरूपसे किया गया है।



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