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श्री वामन अवतार कथा (वामन अवतार की कहानी)

Vaman Avatar Katha (Vamana Avatar Story)

भाग 3 - Part 3

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श्री वामन अवतार कथा

किसी-किसी पुराणमें ऐसी कथा आती है कि स्वर्गपर दैत्योंके आधिपत्य और देवताओंकी पराजयकी समाचार सुनकर अदितिके मातृ-हृदयको बड़ा कष्ट पहुँचा। वह उदास रहने लगी। आश्रमके कामकाज भी ठिकानेसे न होते। एक दिन जब महर्षि कश्यप उसके आश्रमपर आये, तब वहाँकी दशा देखकर आश्चर्यमें पड़ गये। अदितिने विधिपूर्वक उनकी पूजा की। इस उदासीका कारण पूछनेपर अदितिने सारी बात कह सुनायी और इस आपत्तिके निवारणका उपाय पूछा।

महर्षि कश्यपने पहले तो समझानेकी चेष्टा की। उन्होंने कहा- 'प्रिये! हमलोग आश्रमवासी हैं। हमारा बस, यही काम है कि सम्पूर्णरूपसे भगवान्का ही भजन करें। यह सारा संसार भगवान्‌का है। इसके बनानेवाले, रक्षा करनेवाले एवं प्रलय करनेवाले वही हैं। वे जो कुछ करते हैं अच्छा ही करते हैं। उनके दरबारमें अन्यायके लिये स्थान नहीं। अपनी संतानपर भी भला कोई अत्याचार कर सकता है ? हम सब देव, दानवादि उन्हींकी संतान हैं। हमने झूठ-मूठ यह सम्बन्ध जोड़ रखा है कि यह मेरा पुत्र हैं, यह मेरा भाई है। यह सब मोहके कारण है। इसे छोड़कर भगवान् जो कुछ करते हैं उसीमें प्रसन्न रहकर प्रेमपूर्वक भजन करो।'

महर्षि कश्यपके इस उपदेशका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उसका मातृ-हृदय अपने पुत्रोंके कल्याणके लिये अकुला उठा। वह उनका चरण पकड़कर रोने लगी। भगवान की ऐसी ही प्रेरणा समझकर उन्होंने पयोव्रत नामके अनुष्ठानकी विधि बतायी और उसीके द्वारा भगवान्की आराधना करनेकी सलाह दी। अदिति बड़ीतत्परताके साथ प्रेमसे उसमें जुट गयी।

यद्यपि सकामकी अपेक्षा भगवान्की निष्काम आराधना ही उत्तम है तथापि जिनके मनमें सांसारिक कामनाएँ हैं वे निष्काम आराधना नहीं कर सकते। उन्हें यदि निष्काम भावका उपदेश किया जाय तो उसमें उनका मन नहीं लगेगा और यदि अपनी आशा पूरी न होनेकी सम्भावनासे आराधना ही छोड़ दी तब तो सर्वनाश हो गया। ऐसी स्थितिमें दो ही उपाय हैं, यदि कामना नाशकी श्रेष्ठता साधककी समझमें आ जाय तब तो वह आराधना करके भगवान्से उसके नाशकी प्रार्थना करे, नहीं तो, अपनी कामनाओंकी पूर्तिके लिये ही भगवान्की आराधना करे। उसका कल्याण अवश्य होगा। सर्वसाधारण प्रायः इसीके अधिकारी हैं।

अदितिके हृदयमें विश्वास था श्रद्धा थी, पूरी तत्परता थी और था इन्द्रियोंका महान् संयम किसी भी साधनाके लिये इनकी अनिवार्य आवश्यकता है। वह लग गयी, पूर्णतः लग गयी।

वह फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशीयुक्त अमावास्याके प्रातः काल उठी, नित्यकृत्यसे निवृत्त होकर वाराह भगवान्की वन्दना करके अपने शरीरमें मिट्टी लगायी और झरनेमें विधिपूर्वक स्नान किया। संध्या-वन्दनादि करके भगवान्की पूजामें लग गयी आवाहन, स्वागत, अर्घ्य, पाद्य आदि षोडशोपचार पूजा की अलग-अलग सबके मन्त्रोंका तथा द्वादशाक्षर मन्त्रका उच्चारण किया। खीर आदि दूधके बने पदार्थोंका भोग लगाकर भक्तोंको प्रसाद बाँटकर स्वयं बड़े प्रेमसे प्रसाद ग्रहण किया। एक सौ आठ मन्त्रोंका जप करके श्रद्धा-भक्तिसे स्तुति करने लगी।

'प्रभो! आप ही सारे जगत्के रक्षक हैं, आप ही सबके आधार हैं। भक्तवत्सल भगवन्। दया करो। दया करो।'

स्तुति करते-करते गद्गद होकर साष्टाङ्ग जमीनपर लोट गयी। प्रदक्षिणा की, पुष्पाञ्जलि की और विसर्जन करके दो ब्राह्मणों को भोजन कराया। उनके खीर आदि खा लेनेके पश्चात् आज्ञा लेकर स्वयं भोजन किया। फिर रातमें भूमि-शयन आदिका व्रत ग्रहण किया।

फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदसे लेकर द्वादशी पर्यन्त पयोव्रत होता है। इसमें दूधकी ही मुख्यता रहती है। दूधमें भगवान्का स्नान, दूधसे बनी वस्तुओंका नैवेद्य,उसीसे ब्राह्मण भोजन और उसीका प्रसाद पाना होता है। प्रतिदिन विधिपूर्वक भगवान्‌को पूजा, हवन, ब्राह्मणभोजन, त्रिकाल स्नान, तर्पण आदि किया जाता है। अदितिने बड़े मनोयोगसे बारह दिनतक सब नियमोंका पालन किया। वह कुसङ्गसे दूर रहकर सम्पूर्ण प्राणियोंसे प्रेम करती और सम्पूर्ण विषयभोगों एवं आरामको सामग्रियोंसे विरत रहकर भगवान्के चिन्तन, स्तवन एवं भजनमें लगी रहती।

त्रयोदशीके दिन तो महान् उत्सव हुआ। अपनी शक्तिके अनुसार भगवान्की पूजा हुई। बड़ा भारी हवन हुआ ऋत्विजों एवं गुरुओंको बहुत बड़ी दक्षिणा दी। ब्राह्मणोंसे लेकर चाण्डालतिकको यथायोग्य भोजन कराया। भजन, कीर्तन, नृत्य, गान हुए। भगवान्‌के स्वरूप, जन्म-कर्मकी कथाएँ हुईं। इन दिनों निरन्तर सावधान रहकर बड़ी एकाग्रतासे भगवान् वासुदेवका चिन्तन करती हुई ही अदितिने अपना सारा समय पूरा किया। इस प्रकार तेरहवें दिन यह 'पयोव्रत" पूरा हुआ।

पूर्णाहुति दिन अदितिको श्रद्धा-भक्ति एवं नियम निष्ठासे प्रसन्न होकर शङ्ख, चक्र, गदा धारण किये हुए, पीताम्बरधारी, वर्षाकालीन मेघके समान श्यामल, मुसकराते हुए भगवान् अदिति के सामने एकाएक प्रकट हो गये। करोड़ों सूर्यके समान प्रकाशमान तथा करोड़ों चन्द्रमाके सदृश शीतल भगवान्के ज्योतिर्मय रूपको देखकर अदिति आदरके साथ उठकर खड़ी हो गयी और फिर श्रद्धासे सिर झुकाकर उनके चरणोंमें साष्टाङ्ग गिर गयी। बेसुध हो गयी।

थोड़ी देर बाद जब चेतना आयी, तब अञ्जलि बाँधकर उठ खड़ी हुई। उस समय अदितिको विलक्षण दशा थी। आँखें आँसुओंसे भरी थीं। सारा शरीर पुलकित था। आनन्दसे गद्गद होकर वह काँप रही थी। स्तुति करना चाहती थी, परंतु कर नहीं सकती थी, गला रुंधा हुआ था। उसकी आँखें एकटक भगवान् के मुख कमलपर लगी थीं, उसके रसपान में वह मस्त थी। ओठ फुरफुरा रहे थे, परंतु स्पष्ट बोला नहीं जाता था।

धीरे-धीरे बोलनेकी शक्ति आयी। वह हाथ जोड़कर प्रेम- गद्गद वाणीसे कहने लगी'भक्तवत्सल! दयालो! आपका स्वरूप अनिर्वचनीय है, आपकी महिमा अनन्त है और आपको लीला दयामयी है। आपने मुझपर कृपा करके दर्शन दिया है। आपकी प्रसन्नतासे, आपकी कृपासे मोक्ष भी मिल जाता है फिर सांसारिक सम्पत्तियोंकी तो बात ही क्या है ?

भगवन्! प्रसन्न हों, प्रसन्न हों।' अदितिको प्रेमभरी प्रार्थना सुनकर मुसकराते हुए भगवान्ने कहा-

"देवि! तुम्हारी अभिलाषा में जानता हूँ तुम चाहती हो कि तुम्हारे पुत्र ही स्वर्गके राजा हों, दैत्योंको पराजित कर दें और सुखी रहें; परंतु यह समय दैत्योंके अनुकूल है। वे ब्राह्मणोंके गुरूओंके भक्त हैं। सदाचारके मार्गपर चलते हैं। देवताओ इतनी शक्ति नहीं कि दैत्योंको इस समय पराजित कर दें। परंतु जब तुमने इसीलिये मेरी आराधना की हैं, तब मुझे यह काम करना ही पड़ेगा। मैं भक्तोंके अधीन हूँ। जब वे कोई हठ करते हैं. तब मुझे पूरा करना ही पड़ता है। मैं उनसे हारा हुआ हूँ। देवि! तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करनेके लिये मैं तुम्हारे गर्भ से जन्म लूंगा। इन्द्रका छोटा भाई बनूँगा। उसे स्वर्गका राज दूंगा, सुखी करूँगा देखि मैं तुमपर प्रसन्न हूँ।'

इतना कहकर भगवान्‌के अन्तर्धान हो जानेपर अदितिको बड़ी प्रसन्नता हुई। भगवान् हमारे पुत्र होंगे यह सोचकर वह आनन्दमग्न हो गयी। बड़े प्रेमसे, बड़े उत्साहसे अपने पतिदेवकी सेवामें लग गयी। यह सब उसे अपने पतिदेव महर्षि कश्यपकी कृपाका फल ही मालूम पड़ता था कभी-कभी उसे अपने स्वार्थपर क्षोभ भी होता, परंतु भगवान्के पुत्र होनेकी स्मृतिसे वह सब कुछ भूल जाती। अब प्रायः देवताओंके राज्यकी भी उसे याद नहीं पड़ती। भगवान्के चिन्तनमें ही लगी रहती। उनकी कृपा सोचकर वह आत्म विस्मृत हो जाती।

महर्षि कश्यप सब जानते थे भगवान्को लोलाके औचित्यपर उन्हें पूर्ण विश्वास था। वे सोचते थे भगवान् यदि इन्द्रको स्वर्गराज्य देंगे तो बलिकी भी कोई न-कोई व्यवस्था करेंगे ही। सम्भव है इन्द्रसे भी अच्छा पद उन्हें दे दें। भगवान्‌को लोलाका रहस्य भला कोईक्या जान सकता है। वे जो कुछ करें, उसे देख देखकर आनन्दित होते रहना चाहिये- य - यह सोचकर वे भगवान्के ध्यानमें मस्त हो जाते थे। अदिति उनकी सेवामें लगी रही। थोड़े ही दिनोंके बाद भगवान्ने उसके गर्भमें प्रवेश किया।

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