View All Puran & Books

श्री वामन अवतार कथा (वामन अवतार की कहानी)

Vaman Avatar Katha (Vamana Avatar Story)

भाग 2 - Part 2

Previous Page 2 of 8 Next

श्री वामन अवतार- कथा

सुमेरु पर्वतके एक ऊँचे शिखरपर महर्षि कश्यपका आश्रम था। चारों ओर हरे-भरे वृक्ष, लताओंके सुन्दर कुञ्ज, खिले- अधखिले रंग-बिरंगे अनेक प्रकारके सुगन्धित पुष्प और उनपर मँडराते हुए भौंरोंके गुञ्जार तथा नाना प्रकारके पक्षियोंके कलरवसे वह शोभायमान था। सामने ही वेगसे बहते हुए झरनेकी धवल धारा हर हर हर हरकी आकाशभेदी ध्वनिसे प्रकृतिके अणु अणुमें भगवत्प्रेमका संचार कर रही थी। सर्वत्र शान्ति थी।

अपने शान्तिमय कुटीरमें पवित्र आसनपर स्वाभाविक सिद्धासनसे बैठकर महर्षि कश्यप भगवच्चिन्तनमें तल्लीन थे। न उनके सामने जगत्की विभिन्नताएँ थीं, न जगत् था। एकमात्र रसमय आनन्दमय ज्ञानस्वरूप सर्वत्र और सर्वत्रके परे विराजमान अनुभवरूप भगवान् श्यामसुन्दर ही उनके हृदय मन्दिरमें विहार कर रहे थे और महर्षि कश्यप सब कुछ भूलकर उनके स्वरूप और लीलाकी अभेदानुभूतिमें ही मग्र थे।

न जाने कितना समय बीत गया। ऐसी स्थितिमें युग-के-युग एक क्षणकी भाँति बीत जाते हैं। मध्याह्न संध्याके अवसरपर प्रतिदिनकी भाँति ध्यान टूटा। धीरे धीरे शरीर और जगत्‌का स्मरण आया। पर्वत, वृक्ष, नदी, आश्रम और अदिति एक-एक करके सभी सामने आये। परंतु सबकी स्मृति आनेपर भी वे भगवान्‌को नहीं भूले। बल्कि वे सबको भगवान्‌की लीला समझ रहे थे। यह जगत् तभीतक भगवान्‌को भुलाने में समर्थ होता है, जबतक इसके भगवत्सम्बन्धका बोध नहींहोता। जब यह बात समझमें आ जाती है कि यह सब भगवान्का है या सब भगवान् हैं, तब इस जगत्की सभी चीजें भगवान्की याद दिलाती हैं। महर्षि कश्यप सभी वस्तुओं को देख-देखकर मुग्ध हो रहे थे आज एकाएक भगवत्प्रेरणा हुई कि अदितिके आश्रमपर चलें। भगवान्‌की इस लीलाका रस लेनेके लिये वे तुरंत चल पड़े मार्गमें उछलते हुए हिरन, कूजते हुए मयूर, चहकते हुए पक्षी और गरजते हुए साँवले बादलोंको देख-देखकर भगवत्प्रेममें मस्त होते जाते थे। अदितिका आश्रम इतना जल्दी आ गया कि वे देखकर आश्चर्यचकित हो गये।

अदितिने बड़ी तत्परता से अगवानी की चरणोंमें साष्टाङ्ग दण्डवत् करनेके पश्चात् पवित्र आसनपर बैठाकर उनके चरण पखारे। चरणामृत लेकर उसने अपने आश्रमका अभिषेक किया। फिर विधिपूर्वक षोडशोपचार पूजा करके हाथ जोड़कर सामने बैठ गयी। मानो किसी आज्ञाकी प्रतीक्षामें हो।

कश्यपने देखा - सब व्यवहार पूर्ववत् सप्रेम और सविधि होनेपर भी आज अदिति कुछ उदास है। इसके मनमें कोई चिन्ता अवश्य आ गयी है। सोचने लगे क्या वह किसी अतिथि अभ्यागतका सत्कार नहीं कर सकी है अथवा किसी याचकको कुछ देनेकी प्रतिज्ञा करके नहीं दे सकी है, परंतु यह तो इसके लिये असम्भव है। किसीका तिरस्कार तो इससे हो ही नहीं सकता। तब इसकी चिन्ताका क्या कारण है ? महर्षि कश्यप स्वयं चिन्तित हो गये।

थोड़ी ही देर मानो उनके हृदयमें किसीने कहा- माता केवल पुत्रके कष्टसे ही चिन्तित होती है। उन्होंने योगबलसे जान लिया कि इन्द्रादि देवता किस प्रकार स्वर्गसे वञ्चित हो गये हैं। क्रमशः अदितिके पास इन्द्रका आना और अदितिके आश्वासनकी बात भी जान ली। अदितिके हृदयमें भगवान्का अगाध विश्वास देखकर महर्षि कश्यप पुलकित हो गये। उन्होंने सोचा- अदिति तो कुछ कहेगी नहीं, अब इसकी चिन्ता-निवृत्तिका कुछ उपाय होना चाहिये।

कहीं-कहीं और विशेष करके महात्माओंके पास कुछ कहने की अपेक्षा न कहनेका प्रभाव अधिक पड़ता है। परंतु इसमें बड़े धैर्यकी आवश्यकता होती है। इस परीक्षामें अदिति पास हो गयी। इसी समय इन्द्रने आकरप्रणाम किया। उन्हें चरणोंमेंसे उठाकर कश्यपने हृदयसे लगाया और अनेक प्रकारसे समझाया।

उन्होंने बताया कि इस सृष्टिका उद्देश्य तभी पूरा होता है जब भगवान्का भजन किया जाय। यदि तुम स्वर्गके स्वामी होकर भगवान्‌को ही भूल गये; अभिमान, काम, क्रोध और विषयोंके सेवक बन गये तो यह आवश्यक था कि तुम्हें उस स्थानसे च्युत करके चेतावनी दी जाय। अब सम्हल जाओ और पूर्णरूपसे भगवान् की शरण ग्रहण करो। उनकी सेवामें ही अपनी सारी शक्ति लगा दो।

इसके बाद सभी देवता और इन्द्र इकट्ठे हुए और सब आग्रह करके कश्यप तथा अदितिको ब्रह्मलोक ब्रह्माकी सभाएँ ले गये। वहाँ उस समय देवाधिदेव महादेव सम्पूर्ण अधिष्ठातृदेवता एवं मुख्य-मुख्य महर्षि उपस्थित थे एवं भगवान्की लीला तथा संसारकी रक्षा दीक्षाकी चर्चा चल रही थी।

इन लोगोंका यथायोग्य सत्कार हुआ सब यथास्थान बैठ गये। जगत्की वर्तमान अवस्थाका विचार होने लगा। देवताओंने अपनी विपद्-गाथा कह सुनायी। बलिके राज्यके कारण दैत्योंकी मनमानी बढ़ गयी है। स्वभावसे ही आसुरी सम्पतियुक्त होनेके कारण ये महान् उपद्रव कर रहे हैं, इत्यादि बातें होनेके पश्चात् सर्वसम्मति से क्षीरसागरके तटपर जानेका निश्चय हुआ।

ब्रह्मा, शङ्कर, कश्यप, अदिति, इन्द्र एवं सम्पूर्ण महर्षि देवता आदि क्षीरसागरके तटपर जाकर एक स्वरसे भगवान्की स्तुति करने लगे। पुरुषसूक्तको मधुर एवं गम्भीर ध्वनिसे सारा वायुमण्डल मुखरित हो उठा। सबके मन, वाणी, प्राण, शरीर, बुद्धि एवं आत्मा भगवान्की प्रार्थनामें लग गये।

प्रार्थना कभी विफल नहीं जाती, किंतु उसे पूर्ण शक्तिसे होना चाहिये। अपने तमोगुण, रजोगुणकी समस्त वृत्तियोंकी प्रवृत्ति सत्त्वाभिमुख करके भगवान्‌की प्रार्थनामें लग जाना चाहिये। जितनी गम्भीरतासे प्रार्थनाके भाव या शब्द निकलेंगे उतनी ही जल्दी प्रार्थनाकी पहुँच होती है।

आज तमोगुण और रजोगुणके अधिदेवता शङ्कर एवं ब्रह्मा सत्त्वगुणके उज्वल प्रतीक क्षीरसागरके तटपर एकत्रित हुए हैं। उनके साथ समस्त देवता, महर्षि आदि जिन्हें विश्वके इन्द्रिय, मन, बुद्धि एवं आत्मा कह सकते हैं, सब के सब एक स्वरसे भगवान्‌कोपुकार रहे हैं। सर्वत्र होनेपर भी भगवान् क्षीरसागरमें अर्थात् सत्वके साम्राज्यमें ही निवास करते हैं एवं प्रकट होते हैं।

ज्यों ही एकाग्रता हुई और सबको सम्पूर्ण शकि प्रार्थनामें लगी कि भगवान् प्रकट हो गये। वर्षाकालीन मेघके समान श्यामल शरीर, पीताम्बर धारण किये हुए, शङ्ख, चक्र, गदा, पद्मधारी भगवान्‌को गरुडपर आते हुए देखकर सब-के-सब आनन्दसे भर गये। तन-बदनकी सुध भूल गयी। नेत्रोंमें आँसुओंकी धारा शरीरमें रोमा और वाणीमें बोलनेकी शक्ति नहीं, यही सबकी दशा थी। सब निश्चेष्ट थे।

भगवान् ने अपनी कृपामयी दृष्टिसे सबमें शक्तिसंचार किया। लोग उठकर खड़े हुए। सिर झुके थे, अञ्जलियाँ बँधी थीं। ब्रह्माने सबका प्रतिनिधित्व किया-'प्रभो! आप तो सर्वज्ञ है, सर्वशक्तिमान् हैं और परम दयालु हैं। क्या इस समय आपकी यही इच्छा है कि आसुरी सम्पत्तिकी वृद्धि हो। इन्द्रके राजत्वकालमें बलिका राज्य हो। असुरोंके उपद्रवसे त्रिलोकी त्रस्त है, भगवन्! दया करो! दया करो !!'

भगवान्ने मुसकराते हुए कहा- 'आपलोग घबरायें नहीं। मैंने सब व्यवस्था कर रखी है। मैं शीघ्र ही कश्यपके द्वारा अदितिके गर्भसे अवतार ग्रहण करूँगा। संतोष करो, शान्त हो, मुखी हो।'

भगवानको अभववाणी सुनते ही सभी प्रसन्नता खिल उठे। कश्यप अदितिके आनन्दकी तो सीमा ही नहीं थी। भगवान्के अन्तर्धान होनेपर सभी अपने अपने लोकमें चले गये। कश्यप-अदिति भी अपने आश्रमपर आये।

अदितिकी प्रसन्नताका वर्णन नहीं किया जा सकता। उसे चिन्ता थी तो केवल यही कि जिन प्रभुके संकल्पमें समस्त विश्व ब्रह्माण्ड रहते हैं, उनको मैं अपने गर्भ में कैसे वहन कर सकूँगी। फिर सोचती मानो भगवान् कह रहे हैं'अरी पगली तू मुझे मेरे गर्भ रहनेकी चिन्ता क्यों कर रही है, मैं तुम्हें भी धारण करूंगा और सारे 'जगत्को भी। कभी-कभी उसके मनमें यह बात आती कि- मैं तो स्वार्थकी पुतली हूँ। मैंने अपने पुत्रोंके लिये भगवान् से प्रार्थना की। फिर मनमें आता कि इसीमें तो जगत्का हित भी है न। उनकी इच्छा भी ऐसी ही है। यह बात सोचते ही वह गद्गद हो जाती कि भगवान्हमारे पुत्र होंगे। वह भगवान्‌की दया और करुणाकी बात सोचकर आनन्दके समुद्रमें डूब जाती।

महर्षि कश्यपसे आज्ञा लेकर उसने अनेकों व्रत अनुष्ठान आदि किये। वह सोचती कि मेरे कलुषित हृदयमें भगवान् कैसे रहेंगे ? महर्षि कश्यप कहते—'तू तो बावली हो गयी है, भगवान् जहाँ आते हैं वहाँ सब स्वयं शुद्ध हो जाता है। बस, तू उनका नाम रट । ' अदितिका समय आत्मशुद्धिके नियमोंमें और भगवान्‌की मधुर प्रतीक्षामें ही बीतता । आखिर एक दिन भगवान् उसके गर्भमें आ ही गये।

Previous Page 2 of 8 Next

वामन अवतार कथा को वामन अवतार की कहानी, Vaman Avatar Katha, Vamana Avatar Story, विष्णु अवतार वामन कथा, Vishnu Avatar Vaman कथा, विष्णु अवतार कथा, Vishnu Avatar Katha, विष्णु कथा और Vishnu Katha आदि नामों से भी जाना जाता है।