भक्त श्रीनरहरिदेवजी

श्रीनरहरिदेवका जन्म बुन्देलखण्ड के गूढो नामक गाँवमें संवत् १६४० वि०मे हुआ था। उनके पिताका नाम विष्णुदास और माताका उत्तमा था । उनके जीवन में बचपन से ही श्री भगवान् की कृपा से कुछ अलौकिक और पर हितकारी सिद्धियाँ थीं। उनका रूप अत्यन्त आकर्षक और मनोमोहक था । गाँववाले उनको अपने बच्चे की ही तरह प्यार करते थे बाल्यावस्था से ही उनकी सिद्धि और ईश्वर भक्ति की चर्चा दूर दूर तक फैलने लगी। लोग सुदूर देशो से उनके दर्शन के लिये आने लगे ।

वे जब छोटे से बालक थे, तभी उन्होंने एक बनिये को भयंकर कुष्ठ रोग से मुक्त किया था। वह बड़ा सम्पन्न और कुलीन व्यक्ति था। पर कुष्ट के कारण लोग उससे घृणा करते थे । उसे अपना जीवन भार स्वरूप प्रतीत होने लगा । वह जगन्नाथपुरी गया भगवान् के सामने उसने संकल्प किया यदि मेरा रोग अच्छा नहीं होगा तो मैं प्राण दे दूँगा।’ भगवान ने रात में उसे स्वप्न दिया— ‘गूढो गाँव में मेरे भक्त नरहरि रहते हैं। मेरे और मेरे भक्तों के स्वरूप में तनिक भी विभिन्नता नहीं है। तुम उनके चरणामृत के पान से कुष्ठरोग मुक्त हो सकोगे ।’ बनिया प्रभु की प्रसन्नता और कृपा का संबल लेकर गूढो ग्राम जा पहुँचा। लोग उसके मुख से स्वप्न में भगवत्साक्षात्कार और नरहरिदेव की सिद्धि की बात सुनकर हँस पड़े । उन्हें विश्वास ही न हुआ । पर बनिया तो भगवान् और उनके भक्त की कृपा का अधिकार-पत्र पा ही चुका था । जिसने भगवान के दर्शन किए हों उसे क्यों कर श्रद्धा न होगी? उसने श्रद्धापूर्वक भगवान् का स्मरण किया और नरहरिदेव के चरणामृत से अपने अधरों की प्यास बुझायी । कुष्ठरोगसे उसे मुक्ति मिल गयी । लोग नरहरिदेवमे श्रद्धा और भक्ति करने लगे। उनकी प्रसिद्धि दिन-दूनी रात चौगुनी बढने लगी।

परसिद्धि पाकर भी नरहरीदेव जी भगवान की भक्ति से दूर न हुए । नरहरिदेव नित्य भगवान् के चरित्रों और लीलाओं पर पद बना-बनाकर गाया करते थे । उनकी भक्ति में ही रात-दिन तल्लीन रहते थे । यद्यपि उनका जीवन गूढो में सुचारु रूप से बीत रहा था, तो भी वृन्दावनकी निकुञ्ज -माधुरी ने उनका मन संपूर्ण रूप से आकृष्ट कर लिया था। ब्रज का विरह और प्रेम इतना बड गया की वो ब्रज के लिए चल ही पड़े । यमुनाजी के जल की लहरियो ने उनकी भावनाओं में भगवान् श्रीकृष्ण की शृंगार-माधुरी भर दी, उन्होंने बालु के कुछ कण अपने मस्तक पर चढा लिये । ब्रज की रज के स्पर्श से वे प्रेम में मतवाले हो उठे । वे सोचने लगे, कितनी पवित्र है यह भूमि । अरे, वंशीवट का सौभाग्य तो निराला ही है । श्रीकृष्ण वहीं रात-दिन रास किया करते हैं, सामने रेती की रजत चन्द्रिका में ही तो श्रीचैतन्य आदि ने भगवान् की दिव्य लीला का दर्शन किया था । वे आत्ममुग्ध थे । उनमें प्रेम के लक्षण प्रगट हो रहे थे । उन्होंने वृन्दावन के मंदिरो पर भगवान् ‌के यश को दिग्दिगन्त मे फैलाने वाली गगनस्पर्गी पताकाओं को नमस्कार किया । वे भगवान्‌की दिव्य छवि की झॉकी के लिये लालायित हो उठे । बृन्दावन के कण-कण में उन्हे भगवान श्री कृष्ण के मधुर रूप का दर्शन होने लगा । प्रभु के अधरों ने रसमयी स्वरलहरी के माध्यम से भगवान्‌ का प्रेमामृत नरहरीदेव जी पर उड़ेल दिया। रसिक नरहरिदास जी भी गाने लगे। वे गाते-गाते मूच्छित हो गये । एक बुड़िया ने उनका हाथ पकड़ लिया और उन्हें संभाला । थोडे समय के बाद उन को चेत हुआ ।बुड़िया ने उन्हे महात्मा सरसदेव के विषय में बताया । यह बात सुनकर नरहरी देव जी के पूर्व संस्कार जाग उठे । उन्हे अपने गुरु श्री सरसदेव जी की समृति हो आई । वे आनन्द मगन हो गये, उन्हें ऐसा लगा कि कोई अदृश्य शक्ति उनको अपने पास बुला रही है । वे आगे बड़े और उन्हे वहीं पर महात्मा सरसदेवका दर्शन हुआ । गुरुदेव श्री सरसदेव जी ने नरहरीदास जी को श्रीराधाकृष्ण की रूप-माधुरी का पूरा-पूरा ज्ञान कराया। वे स्वयं एक उच्च कोटि के रसोपासक संत थे। इस समय नरहरिदेव जी की अवस्था केवल पैंतीस साल की थी । वे सरसदेव जी के विशेष कृपा पत्रों में से थे । संवत् १७४१ वि० में श्री नरहरिदेव जी नित्य निकुञ्जलीलामे लीन हो गये ।