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वह कौन था

घटनाको लगभग पन्द्रह वर्ष बीत चुके, किंतु वह आज भी स्मृतिपटपर नवीनकी भाँति अंकित है। मेरे पूज्य पिता प्रधान अध्यापकके पदपर स्थानान्तरित होकर एक ग्राममें, जो मध्यप्रदेशके अन्तर्गत बीना जंक्शनसे ग्यारह मीलकी दूरीपर स्थित है, चले गये थे। उनसे मिलने मैं जा रहा था साथमें मेरे लघु भ्राता भी थे। हम दोनों भ्राता करीब साढ़े पाँच बजे दिनमें बीना जंक्शनपर ट्रेनसे उतरे। अब वहाँसे आठ मील पैदल चलना था । अतः पूछ ताछकर हमलोग रेलवे लाइनके किनारे-किनारे चले। मनमें भय था कि यहाँका मार्ग देखा नहीं है, अतः सायंकालतक ग्राम पहुँचना सम्भव नहीं है। बरसातका मौसम था, आठ मील गेट नं० ८ तक लाइन किनारे जाना था। पश्चात् तीन मील वहाँसे ग्रामका मार्ग तय करना था । हमलोग लगभग दो मील आगे बढ़े होंगे कि एक पथिकने कहा- 'भैया! लाइन किनारे होकर जानेमें तुम्हें बहुत चक्कर पड़ेगा; तुमलोग इस पगडण्डीसे जाओगे तो जल्दी पहुँच जाओगे।' अतएव उसकी बतलायी पगडण्डीसे हमलोग चलने लगे। कुछ दूर चलनेपर वह मार्ग समाप्त हो गया । अतः हमलोग पुनः वापस होकर लाइनके समीपसे राह तय करने लगे। उस समय सूर्यास्त हो चुका था। यह मुझे खूब स्मरण है- भयभीत हृदयसे ही समझिये, हम दोनों भ्राता बीना जंक्शनसे पैदलका मार्ग शुरू होते ही बारी-बारीसे 'हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे 'बोलते चल रहे थे । एक अर्धाली मैं कहता दूसरी मेरा भाई। इस प्रकार प्रभु-नाम उच्चारण करते हुए हमलोग रात्रिके लगभग ८ बजे सेमरखेड़ी गेट नं० ८ तक पहुँच गये। वहाँ कोई भी चौकीदार नहीं था, जिससे पूछकर निर्दिष्ट ग्रामतक पहुँचा जा सकता। अब यह निर्णय करना कठिन था कि ग्राम पहुँचनेके लिये किस दिशामें चला जाय। यहाँतक कि कोई प्रकाश भी किसी ओर दिखायी नहीं दिया। पश्चिमकी ओर सघन वृक्षोंको देखकर हमलोग कुछ दूर चले। मार्गकी बड़ी कठिनाई थी। जगह-जगह पानी भरा था। आगे बढ़नेको कोई मार्ग नहीं दिखायी दिया। अतः वापस गेटपर लौटने के हेतु हम मुड़ना ही चाहते थे कि सामने अपने कंधे पर बड़ी लाठी रखे एक व्यक्ति दिखायी दिया। उसे देखते ही एक बार तो हमलोग डर गये, पर मैंने साहस करके पूछा—— भाई ! तुम कहाँ जा रहे हो ?' उसने स्नेहपूर्वक उत्तर दिया- 'मेरी भैंस खो गयी है, उसकी खोजमें आगासौद जा रहा हूँ, तुम कहाँ जा रहे हो ?' यह सुनकर मानो हमें प्राण मिल गये सारी घबराहट दूर हो गयी। मैंने कहा 'हमें भी वहीं जाना है।' वे आगे होकर मार्गप्रदर्शन करते हुए बहुत आरामसे हमें ले गये। मेरे लघु भ्राताको उन्होंने कन्धेपर बैठानेका बहुत आग्रह किया, किंतु मैंने अस्वीकार कर दिया। हृदय उनके प्रति कृतज्ञतासे भर रहा था। वहाँ पहुँचते ही मैं पिताजीसे मिलकर मार्गकी कठिनाइयोंका वर्णन करने लगा। फिर बाहर आकर देखता हूँ तो वहाँ कोई व्यक्ति नहीं था । न कानीहौसमें कोई भैंस ही आयी थी। आज भी सोचता रहता हूँ कि वह कौन था - मानव, भगवान् या भगवन्नाम !

[ श्रीरामकृष्णजी वैद्य ]



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vah kaun thaa

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[ shreeraamakrishnajee vaidy ]

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