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तारकेश्वरके शिव

बंगालके हुगली जिलेके अन्तर्गत तारकेश्वर नामक प्रसिद्ध ग्राम है। वहाँके अनादिलिंग श्रीश्रीतारकेश्वर शिवके नामसे ही इस ग्रामका नामकरण हुआ है। इस समय हुगली जिला पश्चिम वंगके अन्तर्गत माना जाता है। संस्कृत भाषानुसार इसको राढ़ देश कहते हैं।

'राढे च तारकेश्वर : ' - यह तन्त्रशास्त्रका वचन है। भक्तोंके मुखसे सदा बाबा तारकनाथ, बाबा तारकेश्वर शब्द उच्चरित होते हैं। ये जाग्रत् देवता हैं। कृपामय आशुतोष इस अनादि मूर्तिमें अधिष्ठित होकर प्रतिदिन इतने दुखियोंके दुःखको दूर करते हैं, जिनकी गणना नहीं हो सकती।

इस घोर अविश्वासके युगमें भी बाबाके मन्दिरके सामने अपनी-अपनी दुःख यन्त्रणा दूर करनेके उद्देश्यसे कितने ही लोग धरना दिये हुए पड़े देखे जाते हैं। इनके प्रसादसे कुष्ठप्रभृति दुःसाध्य रोगोंकी शान्ति तथा अपुत्रको पुत्रकी प्राप्ति हो जाती है। अब भी ये शरणागतको स्वप्नमें ओषधि या आदेश प्रदान करते हैं। कभी कोई वहाँ जाय, औषधि या आदेशके प्रार्थी मनुष्य मन्दिरके सामने पड़े हुए दिखायी देंगे। मैंने अपनी आँखोंसे देखा है कि एक मुसलमानने उनके शरणागत होकर अपना अभीष्ट प्राप्त किया। मेरे जन्म वृत्तान्तमें भी बाबा तारकेश्वरकी महिमा प्रकट है।

मेरे पूज्यपाद पितृदेव स्व० नन्दलाल विद्यारल भट्टाचार्य महाशय परम धार्मिक, सुकवि और पण्डित थे। मेरी पूज्यचरणा जननी उनकी अत्यन्त अनुगता आदर्श सती सहधर्मिणी थीं। हमारा वंश पाण्डित्यमें उज्ज्वल था, हमारे वृद्धप्रपितामहका बहु पण्डित-मण्डित विशाल वंश क्रमशः क्षयको प्राप्त हो गया, केवल एकमात्र मेरे पितृदेव ही बचे थे। परंतु पितृदेव निःसन्तान थे। माताकी अवस्था २४ वर्षकी थी, किंतु इसी उम्रमें उनका मासिक स्त्री-धर्म बन्द हो गया था, वंशलोपकी आशंका प्रबल हो उठी। तब बन्धुबान्धवोंने पिताजीको दूसरा विवाह करनेके लिये आग्रह किया; किंतु पितृदेवने दैवकृत्यमें मन लगा दिया,उनकी बात नहीं मानी।

उस समय तारकेश्वर पहुँचना दुर्गम था। रेलका रास्ता नहीं था, मार्गमें लुटेरोंका डर था। इसी अवस्थामें मेरी परमाराध्या जननी कुछ रक्षकोंको साथ ले बाबाके चरणोंमें शरणागत होनेके लिये चलीं और वहाँ पहुँचकर पाँच दिनतक केवल चरणामृत पानकर मन्दिरके सामने मण्डपमें पड़ी रहीं। इसके बाद उन्हें स्वप्नादेश हुआ और उसके अनुरूप आचरण करनेपर मासिकधर्म पुनः होने लगा। एक ही वर्षके अन्दर जननीके गर्भसे मेरे ज्येष्ठ भ्राताने जन्म लिया। जननीका वन्ध्या-दोष दूर हो गया।

माताजीके मनमें यह भाव छिपा हुआ था कि किसी तरह मेरा वन्ध्या नाम दूर हो जाय, इसका कारण वही पिताजीके दूसरे विवाह करनेकी चर्चा थी। परंतु दो वर्ष, छः महीनेके बाद मेरे उस भाईकी मृत्यु हो गयी, दीर्घजीवी पुत्रको कामनासे पुनर्वार आशा लगाकर मेरी पूजनीया जननी बाबा तारकेश्वरके शरणापन्न हुईं। इस बार भी स्वप्नादेश प्राप्त हुआ और उसके अनुरूप कार्य करते कुछ समय बीता। पश्चात् तीसवें वर्षकी उम्रमें मैं माताके गर्भ में आया।

मेरे परमाराध्य पिताजी जबतक जीवित थे, तबतक मेरे किसी भी रोग प्रशमनमें और शिक्षा-विधानमें वे श्री तारकेश्वर महादेवको स्मरण करते थे। फल भी हाथोंहाथ मिलता जाता था। जब मैं सात वर्षका था, मेरे श्लीपद-रोग हो गया। बहुत दवाइयाँ की गयीं, परंतु कोई लाभ नहीं हुआ। आखिर एक दिन पूज्यपाद पिताजीने श्री श्रीतारकेश्वर बाबाको रोगका हाल सुनाकर उनसे रोग मिटानेके लिये कातरभावसे प्रार्थना की, दूसरे ही दिन रोग दूर हो गया।

वहाँ जाकर प्रत्येक मनुष्यको इस प्रकारकी सैकड़ों बड़ी-बड़ी घटनाओंका प्रमाण मिल सकता है। जय अनादिलिंग बाबा तारकेश्वर जय ! जय वांछाकल्पतरु आशुतोषकी जय !! जय करुणानिधानकी जय !!! [पं० श्रीपंचाननजी भट्टाचार्य, तर्करत्न ]



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