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गजेन्द्रमोक्षके पाठका चमत्कार

मानव-जीवनमें घटनाओंका घटित होना स्वाभाविक है, किंतु कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं, जिनकी अमिट छाप जीवनपर्यन्त बनी रहती है। ऐसी ही एक घटना मेरे जीवनमें घटी है। मेरे पिताजीकी ५७ वर्षकी मध्यायुमें तपेदिकसे मृत्यु हो गयी। जिससे मेरी माताजीको ४२वर्षोंकी लम्बी अवधितक दुस्सह वैधव्य-जीवन व्यतीत करना पड़ा। हम तीन भाई हैं, सभी शिक्षित, सम्पन्न तथा राजकीय सेवाओंमें उच्चपदस्थ हैं। मैं बड़ा हूँ। काशीमें हमारा एक बड़ा मकान है, पिताजीने इसी मकानमें शरीर त्यागा था। इस कारण माताजी काशीमें तथा इसीमकानमें रहना पसन्द करती थीं। नौकरीमें मेरा स्थानान्तरण एक जिलेसे दूसरे जिलेमें होता रहता था। दो भाई अपने परिवारसहित काशीमें ही रहते थे। माँकी काशी निवासकी रुचिके कारण वे छोटे भाइयोंके साथ ही रहती थीं, अतः मैं माताजीको अपने साथ रहनेके लिये अधिक जोर नहीं दे पाता था। वैसे वे ३-४ वर्षों बाद कुछ दिनके लिये मेरे पास भी आकर रह जाती थीं। जबतक वे स्वस्थ रहीं, घरके काम-काजमें हाथ बँटाती रहीं; लेकिन बीमारीके कारण अस्वस्थ हो जानेपर भाइयोंद्वारा उनकी उपेक्षा होने लगी। काशीके मोक्षदायिनी नगरी होने, पिताद्वारा सारा जीवन वहीं व्यतीत करने और वहीं शरीर त्यागने आदि कारणोंसे माताजीकी भी भीतरी इच्छा वहीं शरीर त्यागनेकी थी। इस कारण मैंने भाइयोंको समझाया और माताजीकी पूर्णतः सेवा करनेकी बात कही; किंतु उन्हें यह अच्छा नहीं लगा। मैं माताजीको लेकर अपने निवास स्थान प्रयाग चला गया। वहाँ मैं माँकी सेवामें तत्पर रहने लगा। प्रयाग आने, सेवा होने तथा स्नेह मिलने से माताजीका स्वास्थ्य बहुत सुन्दर हो गया, तथापि कुछ दिनों बाद गलेमें तपेदिककी गिल्टी हो जानेके कारण माताजीका स्वास्थ्य पुनः काफी गिर गया। उन्होंने चारपाई पकड़ ली। उनकी यह दशा देखकर मैं बहुत परेशान हो गया। भाइयों एवं पारिवारिक जनोंसे कोई सहयोगकी आशा नहीं थी। अस्पतालमेंकैसे रह पाऊँगा, बार-बार घरका आवागमन, दवाकी व्यवस्था, मरीजकी देख-रेख अकेले कैसे सम्भव होगी। घबड़ाकर मैं एक विद्वान् पंडितजी महाराजके घर गया, उन्होंने संकट निवारण हेतु 'गजेन्द्रमोक्ष' का पाठ करने के लिये कहा। पंडितजीके निर्देशानुसार मैं अत्यन्त मनोयोगसे सविधि 'गजेन्द्रमोक्ष' का पाठ करने लगा। २०-२५ पाठ करनेके उपरान्त स्पष्ट सुधार दीखने लगा और गिल्टीसे मवाद निकलना काफी कम हो गया । १०-१५ दिनोंमें वह भी समाप्त हो गया और घाव भर गया। लगभग १०० पाठ होते-होते वे उठने-बैठने लगीं तथा अपना नित्यकर्म नियमसे करनेमें समर्थ हो गयीं।

इस प्रकार 'गजेन्द्रमोक्ष' के पाठने हमारे ऊपर कितनी कृपा की है, वह मैं सोच भी नहीं सकता था । मेरी माँ जो दो माह पूर्व भोजनका एक ग्रास भी नहीं निगल सकती थीं, अपने नैत्यिक कार्य भी नहीं कर सकती थीं, वे १०८ पाठ समाप्त होते ही समस्त कष्टोंसे छुटकारा पा गर्यो और श्रद्धापूर्वक जीवनपर्यन्त 'गजेन्द्रमोक्ष' का पाठ करती रहीं तथा अन्त समयमें भी इस स्तोत्रका पाठ करते हुए ही परलोक सिधार गयीं। यह है इस स्तोत्रका चमत्कार कि रोगनाशके साथ-ही-साथ परम मुक्ति भी प्राप्त हो गयी। अब यह स्तोत्र मेरे जीवनका प्राण बन गया है।

[ एक भक्त ]



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gajendramokshake paathaka chamatkaara

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[ ek bhakt ]

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