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एक गृहस्थ भक्त

सेठ राधाकृष्णजी अजमेरके सराधना गाँवके निवासी थे। सत्यता, मृदुभाषिता, परोपकारशीलता आदि गुण इनमें प्रचुर मात्रामें थे। बाल्यावस्थासे ही अपने पिताजीके आदर्शके अनुसार आप नित्यप्रति भगवान्‌की प्रार्थना किया करते थे। सेठजी स्वभावसे ही उदार थे। यथायोग्य सभीका सम्मान करते थे। शायद ही कोई ऐसा हो, जो आपके पास जाकर खाली हाथ लौटा हो । व्यापारमें भी आप उदारतासे काम लेते थे। किसीपर नालिश करके उसकी जमीन-जायदादको कुर्क करवाना तो आप जानते ही नहीं थे, बल्कि मौका पड़नेपर मुनीमोंके रोकनेपर भी उन्हें पुनः कर्ज दे देते थे। आपके इष्टदेव भगवान् श्रीकृष्ण थे और आपप्रायः निरन्तर 'श्रीकृष्णः शरणं मम' मन्त्रका स्मरण किया करते थे। अभ्यास इतना बढ़ गया था कि मन्त्रके साथ अँगुलियोंपर अँगूठा हर समय चलता ही रहता था। निद्रावस्थामें भी यह कार्य बन्द नहीं होता था स्वप्नमें आप भगवान् श्रीकृष्णकी विचित्र लीलाएँ देखा करते थे और कभी-कभी नेत्रोंसे प्रेमाश्रु बहाते हुए उनका वर्णन भी किया करते थे ।

आपकी दयालुता और सदाशयता प्रसिद्ध थी। एक समयकी बात है - आप रातको ग्यारह बजे बैलगाड़ीपर अजमेरसे सराधना आ रहे थे। उस समय आपके साथ बहुत-से जेवर और नकद रुपये थे। सुनसान जंगलमें गाड़ी चली जा रही थी। आप भगवान्‌की स्तुति करकेगाड़ी में सोये ही थे कि बन्दूक लिये हुए दो डाकुओंने आकर गाड़ीको ठहराया। सेठजी जाग उठे और बोले 'क्या बात है ?' मुँहसे कपड़ा हटाते ही डाकुओंने आपको पहचान लिया और यह कहकर कि 'अरे! यह तो सेठजी हैं' वे भाग गये। उस समयका दृश्य बड़ा विचित्र था। डाकू भाग रहे थे और सेठजी पीछेसे पुकार- पुकारकर कह रहे थे- ' भाई ! कुछ तो ले जाओ!' बहुत पुकारनेपर भी डाकू नहीं लौटे। अन्तमें सेठजीने विवश होकर उनको आवाज देकर कहा 'भाई! मेरे पास आकर खाली हाथ लौट जाओ, यह तो ठीक नहीं। मैं तुम्हारे लिये पेड़के नीचे दो सौ रुपये रख 'देता हूँ, आकर ले जाना।' इसके बाद दो सौ रुपये पेड़के नीचे रखकर सेठजी वहाँसे आगे चले। पता नहीं, डाकू फिर रुपये लेने आये या नहीं। यह बात सेठजीने किसीसे नहीं कही थी। गाड़ीवानको भी मना कर दिया था। जब वे इस असार संसारको छोड़कर चले गये, तब गाड़ीवानने यह बात बतायी थी।

सेठजी प्रतिदिन नियमपूर्वक दो घण्टे ब्राह्मणके द्वारा भगवत्कथा-श्रवण करते थे और स्वयं श्रीमद्भागवतका पाठ करते थे। एक वर्ष, श्रावणमासमें आप कुछ अस्वस्थ हुए। मृत्युके तीन दिन पूर्व खूब दान-पुण्य किया और घरका सारा हिसाब-किताब पुत्रोंको सँभला दिया। मृत्युके दिन सेठजी देखनेमें स्वस्थ मालूम होते थे और वैद्य डॉक्टर भी उन्हें स्वस्थ बता रहे थे, परंतु वे कहते थे कि 'रातको ग्यारह बजे मैं चला जाऊँगा।' गीता सुनायी जा रही थी और आप भी ध्यानपूर्वक श्लोकोंका उच्चारण कर रहे थे। कुछ समय बाद आपनेअपने इष्टदेवके चित्रपटको पूजास्थानसे मँगवाकर सामने रखवाया और घृतका दीपक जलाकर खड़े होकर प्रतिदिनकी भाँति भगवान्से प्रार्थना की। तदनन्तर आप लेट गये और कहने लगे कि 'अब दुर्बलता प्रतीत होती है; किंतु मुझे कोई भी दवा न देना और मेरी मृत्युके बाद पचीस मिनटतक कोई रोना नहीं।' इतना कहकर सेठजीने अपने नेत्रोंको भगवान्‌की मूर्तिपर लगा दिया और वे अपने इष्ट-मन्त्र 'श्रीकृष्णः शरणं मम' का स्मरण करने लगे। उस समय साढ़े दस बजे थे। उपस्थित वैद्य -डॉक्टर तथा प्रियजन सब यही कह रहे थे कि 'अब ग्यारह बजनेमें केवल तीस मिनट रह गये । मालूम होता है कि सेठजीको भ्रम हो गया है।' तदनन्तर दस बजकर पचपन मिनटपर आप पुनः उठ बैठे और कहने लगे 'मोरमुकुटवाले! आप अब क्यों विलम्ब करते हैं? क्या अब भी तस्वीरमें ही रहेंगे ?' इतना कहकर आप ध्यानावस्थित हो गये और दो मिनट बाद आपने कहा 'भगवान् श्रीकृष्ण आ गये हैं!'

पूर्वसे प्रस्तुत किये हुए कुशासनपर आपको लेटा दिया गया। ठीक ग्यारह बजे 'श्रीकृष्णः शरणं मम' की बड़े जोरकी ध्वनिके साथ आपको अन्तिम श्वास आया । इस प्रकार आपने दुर्लभ मृत्यु प्राप्त की । वहाँ उपस्थित लगभग सौ व्यक्ति एक साथ 'हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे' की ध्वनि पचीस मिनटतक करते रहे और आपकी ऐसी विचित्र मृत्युको देखकर सभी लोग आश्चर्यान्वित हो गये। इस सत्य घटनाका मैंने अपनी आँखों-देखा वर्णन किया है।

[ पं० श्रीछगनलालजी शर्मा, ज्योतिषाचार्य ]



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ek grihasth bhakta

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[ pan0 shreechhaganalaalajee sharma, jyotishaachaary ]

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