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अन्तकालमें बलदेव पखावजीको दिव्य कृपानुभूति

श्रीबलदेव पखावजीका जन्म बरेलीके मोहल्ला ब्राह्मणपुरीमें हुआ था। इनका पखावज बजानेमें बड़ा नाम था। ये हर साल रजवाड़ोंसे दो-तीन हजार रुपये अपने कला-चातुर्यसे ले आते थे और उसीसे जीवन निर्वाह होता था।

इनका अधिक समय भगवान्‌के भजन-पूजनमें ही व्यतीत होता था। रुपया जमा करना ये पाप समझते थे। दान, पुण्य, तीर्थ, व्रत और साधुसेवामें यह अपनी सब आय खर्च कर देते थे। सूरदासके पद गाते समय तो ये प्रेमकी मूर्ति बन जाते थे। दर्शक भी इनके स्नेह-सने गीतोंको सुनकर बेसुध हो जाते थे।

बिना कृष्णके इन्हें एक पग चलना भी कठिन था। इनके छातेमें आँखोंके सामने कृष्णभगवान्की तसवीर लगी हुई थी - ये उसी तसवीरमें अपने प्रभुकी छवि निहारते चलते थे। श्रीबलदेवजी बड़े सरल, सीधे, प्रेमी और उदार भक्त थे। पर इनमें एक दोष था, वह था अपने गुणपर अभिमान ये समझते थे कि उनके जोड़का पखावजी और गायनशास्त्रका जाननेवाला संसारमें कोई नहीं है। बात ऐसी ही थी ! ये जहाँ भी गये, इन्हें अपनी टक्करका पखावजी कोई न मिला। इनके बजानेमें जादू था, चमत्कार था। पशु-पक्षी भी इनके वाद्यसे मोहित हो जाते थे, फिर मनुष्योंका तो कहना ही क्या? ये बड़े हँसमुख थे। बात-बात में हास्यधाराएँ इनके प्रसन्न वदनसे स्रवित होने लगती थीं।भगवान् अपने भक्तका अभिमान नहीं रखते। श्रीबलदेवजी खुदागंज गये हुए थे। गायकोंका जमघट था। दर्शक एकके ऊपर एक गिर रहे थे। बहुत-से गायनाचार्योंको बलदेवजीने बात की बातमें तालसे अलग कर दिया। जब गायक तालसे अलग हो जाते थे, तो ये हुँकारकर उनको गानेसे रोक देते थे। विजयगर्वसे बलदेवजीका मुख खिला हुआ था।

अब खिलाड़ीबाबाने (जो कि एक बड़े महात्मा तथा योगी थे) गाना प्रारम्भ किया। बलदेवजीने बहुत चालें चलीं, पर बाबा टस से मस न हुए। दो-एक चीजें गानेके बाद बाबाने ऐसा गीत प्रारम्भ किया कि बलदेवजी बजाना भूल गये। इनका मुँह फक् पड़ गया! यह इनकी हारका पहला अवसर था। बलदेवजीको तब तो और भी लज्जा मालूम हुई जब एक साधारण-से व्यक्तिने उसी गीतपर ठीक-ठीक पखावज बजायी। बाबाने कहा- 'बलदेव! अभिमान अच्छा नहीं होता।' बलदेवजी बाबाके चरणोंपर गिर पड़े। तबसे बलदेवजीका अभिमान जाता रहा।

उन दिनों न अधिक गरमी थी, न सरदी। बलदेवजीने अपनी स्त्रीसे कहा, 'आज जल्दी भोजनसे निबट जाना, आज हमारी यात्रा है।'

स्त्रीने पूछा- 'कैसी यात्रा ?'

पखावजी - 'उस लोककी।'

स्त्री- 'ऐसी हँसी मुझे अच्छी नहीं लगती।' पखावजी - 'हँसी नहीं, सच्ची बात है।'
बलदेवजी मसखरे प्रसिद्ध थे। इनकी स्त्रीने कुछ ध्यान न दिया। बलदेवजीने घर-घर जाकर मुहल्ले में अपनी महायात्राका सन्देश सुनाया, पर किसीने विश्वास न किया। दोपहरका समय था, बलदेवजीने अपनी स्त्रीसे घर लीपनेको कहा।

स्त्रीने पूछा- 'क्यों?'

बलदेवजी - 'अब समय निकट आ गया है।' तबतक मुहल्लेके कई व्यक्ति इनके घर इनके मरनेका स्वाँग देखनेको एकत्रित हो गये थे। स्त्रीने जब न लीपा, तब बलदेवजीने स्वयं स्थानको गोबरसे लीपा - उसपर कुशासन बिछाया। तुलसी और गंगाजल अपने मुखमें डाला और उस स्थानपर दक्षिणको पैर करके लेट गये।उनकी स्त्री उनके इस कृत्यपर बहुत झुंझलायी, पर इन्होंने कुछ ध्यान न दिया। मुहल्लेके आदमी खड़े हँस रहे थे। तत्पश्चात् इन्होंने भगवान्की मूर्ति वक्षःस्थलपर रखी और एक रेशमी चद्दर ओढ़कर लेट गये। कुछ देर तो सब लोग इनको देखकर हँसते रहे, फिर इन्हें आवाज दी। पर बलदेवजीने कोई उत्तर न दिया । एकने इनका मुख उघाड़कर देखा तो उस समय बलदेवजी भगवान्के निकट पहुँच चुके थे। सबको बड़ा आश्चर्य हुआ। भक्तोंके कार्य बड़े आश्चर्यजनक होते हैं। उस समय बलदेवजीकी आयु लगभग ५० या ५५ वर्षकी थी। इन्होंने लगभग १९०४ ई० में शरीर त्याग किया था।

[ श्रीगोपीवल्लभजी कटिहा]



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antakaalamen baladev pakhaavajeeko divy kripaanubhooti

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