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भक्त अप्पर की मार्मिक कथा
भक्त अप्पर की अधबुत कहानी - Full Story of भक्त अप्पर (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [भक्त अप्पर]- भक्तमाल


ईसाकी सातवीं शताब्दीमें अप्परका आविर्भाव हुआ। काञ्चीके पल्लवनरेश महेन्द्र प्रथमके समय ये विद्यमान थे। 600 ई0 सन्में, दक्षिण आरकाट जिलेके एक छोटे-से गाँवमें एक सम्पन्न वेळाल-परिवारमें इनका जन्म हुआ। बहुत बचपनमें ही इनके माता-पिता स्वर्ग सिधार गये। इनकी बड़ी बहिनने इनको पाला पोसा। एक बार इन्हें भयङ्कर पीड़ा हुई। बहिनके कहनेपर ये एक शिवमन्दिरमें जाकर प्रभुसे सुन्दर काव्य-गीतोंमें प्रार्थना करने लगे। दर्द तो मिट ही गया। साथ ही आकाशवाणी हुई कि 'तुम्हारी वाणीमें सरस्वती बसेंगी।' बहिनके आदेशानुसार ये शरीरसे प्रभुकी सेवा, मनसे उनका ध्यान और वाणी से उनका गुणगान करने लगे। इन्हें पल्लवनरेश जैनधर्ममें दीक्षित करना चाहते थे और न होनेपर इनको नाना प्रकारके कष्ट दिये गये। कहा जाता है कि इनकी गर्दनमें एक भारी पत्थर बाँधकर इन्हें नदीमें छोड़ दिया गया, परंतु पत्थर जलपर तैरने लगा। प्रह्लादकी भाँति ये अपने धर्मपर अटल रहे।चिदम्बरम् में भक्त सम्बन्धसे आप मिले। सम्बन्धने इनको अप्पर (पिता) कहकर पुकारा। तबसे ये सभीके लिये 'अप्पर' हो गये। दोनों भक्तोंने साथ ही देशके भिन्न भिन्न प्रान्तोंमें भ्रमण किया। दोनोंमें बड़ी प्रगाढ़ मैत्री हो गयी। तिरुपुगळूमें इनको काञ्चन और कामिनीके प्रलोभन दिये गये। परंतु अब इन चीजोंके लिये इनके हृदयमें कोई स्थान नहीं रह गया था। अन्तिम दिनोंमें ये भगवान्से आतुर प्रार्थना करते थे कि मुझे अपनी गोदमें उठा लो । यह प्रार्थना प्रभुने स्वीकार कर ली। 81 वर्षके होकर ये परमात्मामें लीन हो गये। बड़ा ही सरल जीवन इनका था। कौपीनमात्र इनकी सम्पत्ति थी। हाथमें एक झाडू लिये रहते और मन्दिरोंको बुहारा करते थे। सदैव पाँव - पयादे ही चलते । हृदय प्रभु और जीवमात्रके लिये प्रेमसे पूर्णतया भरा था। ये बालकके समान सरल और सैनिककी भाँति दृढ़-प्रतिज्ञ थे। इनके उनचास हजार पदोंमें अब केवल तीन सौ ग्यारह मिलते हैं। इनकी जीवनी और गीतोंसे आज भी हमें अपूर्व प्रोत्साहन मिलता है।



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