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श्री कच्छप अवतार कथा (कूर्म अवतार की कहानी)

Kachhap Avatar Katha (Kurma Avatar Story)

भाग 6 - Part 6

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श्री कच्छप अवतार-कथा

भगवान्की कृपासे हमें जब कोई अभिलषित पदार्थ प्राप्त होता है, तब हम बहुधा प्रसन्नतासे फूल उठते हैं और कई बार तो उतावली भी कर बैठते - हैं। ऐसे अवसरोंपर जो अपनेको काबूमें रख लेता है, | अपनेको सँभाल सकता है, अपने बल-पौरुषकी डींग नहीं हाँकता, वास्तवमें वह महापुरुष है।

परंतु दैत्योंकी तो बात ही दूसरी है। उन्हें अपने मथनेका अभिमान होता, वे अपने बल-पौरुषकी डींग हाँकते अथवा अमृत पीनेकी उतावली करते तो हम उन्हें उतना दोषी नहीं कहते। उनके मनमें बेईमानी आ गयी, उनकी नीयत बिगड़ गयी। उन्होंने बुद्धिपूर्वक सोचा कि अब तो अमृत निकल ही गया। भगवान्सेअपना कोई मतलब नहीं। देवताओंमें इतनी शक्ति है। नहीं कि हमसे लड़कर वे जीत सकें इसलिये अमृत छीन लिया जाय। हुआ भी ऐसा ही दैत्योंने धन्वन्तरिके हाथोंसे अमृतका घड़ा छीन लिया। देवताओंका चेहरा कुछ फीका पड़ गया। उन्हें भगवान्‌का विश्वास था, इसीसे विचलित नहीं हुए।

प्रायः देखा गया है कि बेईमानोंकी गुटबंदी बहुत समयतक नहीं चलती। दैत्योंमें जो बली थे, उन्होंने निर्बलोंसे छीन लिया और फिर जो उनसे बली थे, उन्होंने उनपर दो धौंस जमायी और अमृतका घड़ा ले लिया। जब अपने काम न आते देखा, समझ लिया कि अब तो हमसे अमृतका घड़ा छिन गया, तब निर्बलोंने यह आवाज उठायी कि 'भाई ऐसा अन्याय नहीं होना चाहिये। देवताओंने भी हमारे साथ ही बराबर परिश्रम किया है। उन्हें भी अमृतका हिस्सा मिलना चाहिये। कई बार विवशताके कारण भी लोग न्यायका आश्रय लेते हैं। जबतक अपनी चलती है, तबतक तो अन्याय करनेमें कोर-कसर नहीं करते। जब हार जाते हैं तब न्यायकी दुहाई देने लगते हैं !

सर्वादासे स्वार्थियोंकी यही गति होती आयी है। जो लोग अन्याय-अत्याचारके बलपर दूसरोंके न्यायोचित स्वार्थमें बाधा डालते हैं, उनका अपना स्वार्थ भी नहीं सधता भगवान्‌की ऐसी ही कुछ लीला थी। दैत्योंमें छीना-झपटी होने लगी। वैर-विरोध बढ़ गया और अमृत पीनेमें बाधा पड़ गयी। वे आपसमें झगड़ने लगे। इसी समय भगवान्ने एक दूसरी लीला रची।

दैत्योंने देखा एक परम सुन्दरी त्रिभुवन मनोमोहिनी स्त्री सामनेसे आ रही है। उसके सौन्दर्य, हाव-भाव और मस्तीको देखकर सब-के-सब दैत्य मोहित हो गये। सबकी आँखें उस मोहिनीको एकटक देखने लगीं। उनका झगड़ा शान्त हो गया। सब-के-सब अमृतको गौण समझने लगे। उनका मुख्य विषय हो गया मोहिनीको प्रसन्न करके अपने अनुकूल करना । कभी-कभी बड़ी वस्तुको लालच से लोग सामान्य वस्तुको उपेक्षा कर देते हैं और उसके लिये आपसके रगड़े-झगड़े भूलकर उसीकी प्राप्तिकी पेशा करने लगते हैं।

उस स्त्रीके रूपमें कोई दूसरा नहीं स्वयं भगवान्थे। उनकी छविमें ऐसा आकर्षण ही है कि अमृत उसके सामने फीका पड़ जाता है। दैत्योंने कहा 'सुन्दरि ! हम हृदयसे तुम्हारा स्वागत करते हैं। बड़े शुभ अवसरपर तुम्हारा आगमन हुआ है। इस समय हमलोग आपस में लड़-झगड़कर कट मरते। अब तुम्हीं यह झगड़ा निपटा दो। यह अमृतका कलश है, इसे तुम चाहे जिसे पिलाओ, मत पिलाओ, हम तुम्हारी प्रसन्नतामें ही प्रसन्न हैं।'

बहुत से लोग लोभके कारण अपनी आत्मातक बेच डालते हैं। इस अनजान स्त्रीके हाथों अमृत समर्पण करनेका यह अर्थ नहीं है कि वे न्याय चाहते हैं या इस स्त्रीकी न्यायशीलतापर विश्वास करते हैं। बल्कि इसका यह कारण है कि वे मोहिनीका सौन्दर्य देखकर मोहित हो गये हैं और कामवश होनेके कारण इतने परिश्रम से प्राप्त किये हुए अमृतका निर्णायक चुनकर अपनेको उसकी प्रसन्नताका पात्र बनाना चाहते हैं।

मोहिनीने अपनी भौंहें कुछ टेढ़ी करके उनकी और देखते-देखते एवं मन्द मन्द मुसकराते मुसकराते | कहा- 'आप लोग तो महर्षि कश्यपकी पवित्र संतान हैं। इतना परिश्रम करके यह अमूल्य अमृत प्राप्त किया है। आपके बल-पौरुषकी कीर्ति सारे संसारमें फैली हुई है। आपलोग मेरे जैसी अनजान स्त्रीपर इतना विश्वास कैसे कर रहे हैं? वीरो! पण्डितलोग स्त्रियोंका विश्वास नहीं करते। क्या पता, ये क्या कर डालें !'

दैत्योंने मोहिनीकी इस बातको विनोद समझा और आग्रह करके उसके हाथमें अमृतका कलश दे दिया। अमृतका घड़ा अपने हाथमें आ जानेपर मोहिनीने अपनी मधुर चितवनसे उनका मन हरण करते हुए कहा 'जब आपलोग मुझपर विश्वास ही करते हैं, तब मैं चाहे ठीक करूँ या बेठीक; आपको मानना ही पड़ेगा। देव-दानव सब-के-सब एक पंक्तिमें बैठ जायें, मैं क्रमशः अमृत पिला दूँगी।'

आज्ञाकी ही देर थी। सब स्नानादि करके पवित्रतासे बैठ गये। मोहिनी दैत्योंकी ओर तो तिरछी आँखोंसे देखने लगी और देवताओंको अमृत पिलाने लगी। कई दैत्योंके मनमें शङ्का हुई, उन्होंने आपत्ति भी करनी चाही; परंतु मोहिनीके सौन्दर्यने उनकी जीभपर ताला लगा दिया। वे कुछ न बोल सके। देवताओंकी पंक्तिसमाप्त होते-होते सूर्य और चन्द्रमाके बीचमें एक राहु नामका दैत्य वेश बदलकर आ बैठा था। उसे अमृत - पिलाया ही जा रहा था कि चन्द्रमा और सूर्यने बतला दिया और तुरंत भगवान्के चलने उसका सिर से अलग कर दिया। परंतु कुछ अमृत उसे मिल चुका था! अतः सिर कट जानेपर भी वह मरा नहीं। इसलिये - उसे ग्रहोंमें स्थान दिया गया। उसकी धड़ आज भी | पुच्छल तारा अथवा केतुके नामसे प्रसिद्ध है। राहु अब भी सूर्य चन्द्रमासे बदला लेनेके लिये उनके पर्व अमावस्या और पूर्णिमापर आक्रमण करता है, जिसे 'ग्रहण' कहते हैं। इस राहुको कहीं-कहीं भी कहा गया है।

इस प्रकार देवताओंका अमृतपान समाप्त होते ही मोहिनीने अपना वास्तविक रूप धारण किया। यह तो भगवान्की ही एक लीला थी। उन्होंने ही मोहिनीरूप धारण किया था। सबके देखते-देखते अब वे अन्तर्धान हो गये।

एक ही उद्देश्यसे एक ही साथ और एक हो प्रकारसे देवता और दानवोंने प्रयत्न किया था। किसीने भी अपनी ओरसे काम करनेमें कुछ कोर-कसर नहीं रखी थी। परंतु फलमें महान् अन्तर पड़ गया! इसका कारण क्या है? अवश्य कुछ कारण है और वह इतना स्पष्ट है कि विचार करनेवालेसे छिपा नहीं रह सकता। देवता और दानवोंमें इतना ही अन्तर है कि देवता तो भगवान्के आश्रित हैं और दानव अभिमानके आश्रित हैं। अभिमानका आश्रय लेकर सम्भव हैं, हम बहुत बड़ा काम कर .. डालें, परंतु सच्चे सुख, सच्ची शान्ति और अमृत या व अमृतत्वकी प्राप्ति नहीं कर सकते परंतु वहाँ काम यदि है भगवान्का आश्रय लेकर किया जाय तो काम तो हो ही अ जाता है और फल मिलनेमें कोई शङ्का रहती ही नहीं, बल्कि काम करनेके समय ही भगवानके सांनिध्यका ब अनुभव अथवा पवित्र स्मरण होते रहनेके कारण महान् ज आनन्दकी प्राप्ति होती है। यही कारण है कि देवता अ आरम्भसे अन्ततक सुखी रहे, शान्त रहे और अमृतके भागी बने तथा दैत्योंको केवल कष्ट हो हाथ लगा। भगवान्के अन्तर्धान होते ही दैत्योंके अङ्ग अङ्गसे भूि आगकी चिनगारियाँ छिटकने लगीं। इतना परिश्रम जी करनेपर भी फलके समय इस प्रकार वञ्चित रह जानेसेउनके क्रोधको सीमा न रही। उन्हें अपनी मूर्खतापर बड़ी झुंझलाहट हुई और एकमत होकर सबने शस्त्र उठा लिये। उनके मनमें यह बात बैठ गयी कि देवताओंने अमृत पी लिया तो क्या हुआ, उनके शरीरमें बल तो उतना ही है न! स्वर्गसे मारकर खदेड़ देंगे। ये अपने अमर होनेकी दुर्दशा भोगते रहेंगे। आत्महत्या भी नहीं कर सकेंगे। हम इन्हें चिड़ा-चिड़ाकर स्वर्ग भोगेंगे। मनुष्य घोर विकलताकी अवस्थामें भी कल्पित आशा बाँधकर पहले की अपेक्षा भी अधिक उत्साहसे पुनः प्रयत्न करने लगता है, यह तो हम संसारमें प्रतिदिन ही देखते हैं। एक आशा टूटती है और दूसरी बाँधकर हम जीवन-संग्राममें पुनः अग्रसर होते हैं। हमारा यह प्रवृत्तिमय जीवन आशाओंका ही घनीभाव है और संसारसे निराश होते ही निवृत्तिमय जीवनका प्रारम्भ होता है। उसमें भी पारमार्थिक आशा है, परंतु वह आशा-निराशा दोनोंसे ही ऊपर उठानेवाली है।

देवताओंने तो अमृत पी ही लिया था, भगवान्का आश्रय था ही, दैत्योंकी तैयारी देखकर उन्होंने भी शस्त्र उठाये। बड़ा घमासान युद्ध हुआ। अपने-अपने वाहनोंपर सवार होकर नमुचि, शम्बर, बाण आदिने देवताओंपर अनेक प्रकारके शस्त्रोंका प्रहार करना प्रारम्भ किया और बलिने भी मय दानवके बनाये हुए युद्ध सामग्रीसे सुसज्जित विमानपर सवार होकर युद्ध भूमिके लिये प्रस्थान किया बलिके प्रहारोंसे जब इन्द्र जर्जरित हो गये, तब उन्होंने भगवान्‌का स्मरण किया और स्मरण करते ही वे प्रकट हो गये। उनके आते ही देवताओंका बल बढ़ गया। बलिसे इन्द्र, तारकासुरसे स्वामिकार्तिक, हेतिसे वरुण, कालनाभसे यमराज, मयसे विश्वकर्मा आदि लड़ने लगे।

बलिसे इन्द्रने कहा-'मूह तू अपनेको बड़ा बलिष्ठ लगाता है। एक क्षणभर मेरे सामने और ठहर जा! तू मायाके बलपर अबतक हमलोगों को छकाता आया है। आज उसका मजा चख! अभी-अभी मैं वज्रसे तेरा सिर काट लेता हूँ।' बलिने कहा-'देवेन्द्र! काल और कर्मकी प्रेरणाके अनुसार हम सभी संग्राम भूमिमें उतरे हुए हैं। जय-पराजय, कीर्ति अकीर्ति और जीना मरना जो कुछ जैसा होनेवाला होगा, वह होकर ही रहेगा। विद्वान्लोग सारे जगत्‌को कालके गाल मेंदेखते हैं। न कभी प्रसन्न होते और न कभी शोक करते हैं। तुम इस बातको नहीं जानते। मूर्ख हो । इसलिये तुम्हारी इन कड़ी बातोंसे मैं दुःखी नहीं होता।' यह कहते-कहते बलिने बाणोंसे इन्द्रका शरीर छेद डाला। वे व्याकुल हो गये। सँभलकर इन्द्रने बलिपर वज्र प्रहार किया।

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