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विनयपत्रिकाका पुण्य प्रसाद

मेरा जन्म उत्तर प्रदेशके हरदोई जनपदके अन्तर्गत कुँवरपुर बसीठ नामक ग्रामके एक सुशिक्षित एवं सुसंस्कृत वैष्णव परिवारमें हुआ था। ऐसे परिवेशमें बचपन से ही मुझमें धार्मिक अभिरुचि, सद्ग्रन्थों एवं सन्त-साहित्यकी उपादेयता तथा सन्त-महात्माओंके प्रति श्रद्धा-सम्मानका बीजारोपण हो जाना स्वाभाविक ही था। प्रभु श्रीरामद्वारा शरणागत विभीषणके प्रति तथा भगवान् श्रीकृष्णद्वारा अर्जुनको दिये गये आश्वासनके प्रति मेरा अटूट विश्वास था। वे दैवी आश्वासन हैं


सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते अभयं
सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम ॥ (वाल्मीकीय रामायण ६। १८। ६३१) तथा सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं
शरणं व्रज । अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥ ( श्रीमद्भगवद्गीता १८ । ६६ )

गोस्वामी तुलसीदासजीकी अलौकिक कृति विनयपत्रिका शरणागतियोगकी श्रेष्ठतम आचार-संहिता है। 'विनय-पत्रिका 'के श्रद्धा-विश्वासपूर्वक अनुशीलनने मेरे जीवनको समृद्धि एवं सुख कैसे प्रदान किया, इसका संक्षिप्त उल्लेख निम्नवत् है

लखनऊ विश्वविद्यालयसे बी०ए०, बी०एड० करनेके उपरान्त मेरी नियुक्ति प्रशिक्षित स्नातक शिक्षक (टी०जी०टी०)- के रूपमें हरदोईके आर०के० कालेजमें हुई। पूर्ण मनोयोग तथा निष्ठापूर्वक अध्यापन-कार्य करनेके कारण मैं एक सफल अध्यापक तो माना जाने लगा, किंतु शिक्षक-अभ्यर्थीके रूपमें एम०ए० उत्तीर्ण करने हेतु अनुमति मुझे तीन वर्ष बाद ही मिल सकी। प्रथम वर्षकी परीक्षा उत्तीर्ण करनेके बाद मुझे द्वितीय वर्षकी तैयारी करनी थी। दुर्भाग्यदिया। ऐसी स्थितिमें मुझे उपर्युक्त भगवद्-आश्वासनोंसे बहुत मानसिक बल मिला तथा 'राम सुमिरि साहस करिय, मानिय हिये न हारि' (रामाज्ञा प्रश्न ५ । १ । ३) का स्मरणकर मैंने 'विनय पत्रिका' का पूर्ण आश्रय ग्रहण किया। दृढ़ निश्चय कर लिया कि फलासक्ति छोड़कर मैं इस ग्रन्थके कुछ पदोंका नित्य प्रति नियमित पाठ, मनन तथा चिन्तन परीक्षामें सम्मिलित होनेतक करता रहूँगा। मैंने सन्तशिरोमणि गोस्वामी तुलसीदासके स्तुति परक उन पदोंको विशेष रूपसे चुना; जिनमें उन्होंने स्वयंको 'दीन सब अंगहीन, छीन, मलीन अघी, अघाइ' (विनय पत्रिका पद सं० ४१) स्वीकारते हुए तथा अपनी साधनहीनता उजागर करते हुए दुःखसे त्राण पाने हेतु सर्वसमर्थ प्रभु श्रीरामसे करुणा तथा दमासे द्रवित होनेकी कातर प्रार्थना की है।

साथ ही सूरदासजीका वह पद 'अबर्क राखि लेहु भगवान' भी मेरा आश्रय बना रहा। इस विनयपत्रिकाश्रय रूप साधनके फलस्वरूप ज्यों-ज्यों परीक्षा तिथि निकट आती गयी, त्यों-त्यों मेरा आत्मविश्वास बढ़ता गया। मेरा परीक्षा केन्द्र डी०ए०पी० कालेज, कानपुर था, अतः मैं नित्य प्रातः पतित-पावनी गंगाजीमें स्नानकर परीक्षा देता रहा। भगवत्कृपासे में आशातीत अच्छे अंकोंसे उत्तीर्ण हुआ। कालान्तरमें अंग्रेजी साहित्यका अध्येता और परास्नातक होनेके कारण मेरी नियुक्ति कई महाविद्यालयोंमें निश्चित हो गयी, किंतु मेरी हार्दिक अभिलाषा अयोध्या के साकेत महाविद्यालय में अध्यापन कार्य करनेकी थी सो संयोगवश उसी वर्ष अर्थात् सन् १९६१ ई० में उस महाविद्यालय में बी०एड०की कक्षाओंकी मान्यता मिली और मैंने भी अपना प्रार्थनापत्र प्रेषित कर दिया। प्रभुकृपासे मेरी नियुक्ति उसी विद्यालयमें हो गयी। बी० ए० तथा बी० एडकी कक्षाओंके अध्यापनके अतिरिक्त मुझे सपरिवार सरयूस्नान तथा देव दर्शनोंका और अनेक सन्त-महात्माओंके सत्संगका सुयोग प्रायः मिलने लगा और वहाँका तीन वर्षका कार्यकाल सुखपूर्वक व्यतीत हुआ।

[ श्रीराजेन्द्रप्रसादजी द्विवेदी ]



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vinayapatrikaaka puny prasaada

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sakridev prapannaay tavaasmeeti ch yaachate abhayan
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sharanan vraj . ahan tva sarvapaapebhyo mokshayishyaami ma shuchah .. ( shreemadbhagavadgeeta 18 . 66 )

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[ shreeraajendraprasaadajee dvivedee ]

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