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जपके सम्बन्धमें स्वयंकी अनुभूतियाँ

जीवनके शैशव - कालसे ही मेरे अबोध मनपर मेरे पिताजीकी भक्ति एवं उनके द्वारा निर्देशित राम-नाम जपकी महत्ताके संस्कार आजतक बनते चले आ रहे हैं। मैं पाँच वर्षका था। मेरे पिताजी चाहते थे कि मैं पढ़ने बैठ जाऊँ। पर मेरा मन पढ़नेसे उसी प्रकार कोसों दूर भागता था, जिस प्रकार किसी संसार-विषयासक्तका भगवन्नामसे। पिताजी बड़े चिन्तित रहते थे। सोचते थे कि इसके भाग्य में विद्या है ही नहीं । अन्तमें उन्होंने प्रतिदिन इसीके निमित्त 'ओम्' का जप किया। हरि इच्छासे मेरा मन पढ़नेके लिये व्याकुल होने लगा और बार-बार उचटनेकी स्थितिके बाद भी मैं प्रत्येक कक्षा में प्रथम श्रेणीमें उत्तीर्ण होता रहा ।

बात सन् १९४८ ई० की है। इलाहाबाद नगरसे सम्बन्धित घटना है। मैं गवर्नमेण्ट ट्रेनिंग कालेजमें एल०टी० का विद्यार्थी था। वार्षिक परीक्षाके दिन निकट थे। कालेजमें प्रथम श्रेणीकी प्राप्तिके लिये भयंकर होड़ें लग रही थीं। मैं तिमाही और छमाही परीक्षामें प्रथम श्रेणीमें उत्तीर्ण हुआ था। अतएव अब सभी विद्यार्थियोंका यही प्रयत्न था कि प्रथम श्रेणी प्राप्त कर ली जाय। आठ-दस विद्यार्थी प्रतियोगिताके क्षेत्रमें कूद पड़े। वे रातों-दिन एक करने लगे। इधर रातके बारह बजेतक पढ़ते और उधर प्रातः चार बजे उठ बैठते। पर मेरी स्थिति भिन्न थी । रातको जगनेकी आदत नहीं थी। नौ बजे सो जाता और प्रात: सात बजे उठता। पर मैं सोनेके पूर्व लगभग पन्द्रह मिनटतक संस्कारवश 'ओम्' का जप अवश्य कर लेता और उठनेके साथ ही तुलसीकृत रामायणका यह दोहा गुनगुनाने लगता—

भव भेषज रघुनाथ जस सुनहिं जे नर अरु नारि ।

तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि ॥

परीक्षा हुई और समाप्त हो गयी। जूनमें परीक्षा फल घोषित हुआ। मैं सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दोनों परीक्षाओंमें प्रथम श्रेणीमें उत्तीर्ण हुआ। ओम्के जपने
मेरी मन:कामना पूर्ण की।

मेरे जीवनमें ऐसी अनेक घटनाएँ घटित हुई हैं, जिनकी प्रत्यक्ष अनुभूतिके बलपर मैं यह कहने में समर्थ हूँ कि रामनाम जप और 'ओम्' के जपसे सभी विघ्न बाधाओंपर विजय प्राप्त की जा सकती है और मनोवांछित फलकी प्राप्ति की जा सकती है।

आध्यात्मिक दृष्टिकोणसे यह विश्वासकी बात है और यह स्पष्ट करनेके लिये पर्याप्त है कि जब हम आर्तरूपमें हरिकी शरणमें सच्ची आस्था लेकर जाते हैं, तब दीनदयाल, भक्तवत्सल, आनन्दकन्द भगवान् हमारी रक्षा अवश्य करते हैं। भगवान् दम्भके विरोधी हैं, पर सच्चे स्नेहके भूखे हैं।

ओम् शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।

[ आचार्य श्रीभगवानदासजी झा]



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japake sambandhamen svayankee anubhootiyaan

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baat san 1948 ee0 kee hai. ilaahaabaad nagarase sambandhit ghatana hai. main gavarnament trening kaalejamen ela0tee0 ka vidyaarthee thaa. vaarshik pareekshaake din nikat the. kaalejamen pratham shreneekee praaptike liye bhayankar hoda़en lag rahee theen. main timaahee aur chhamaahee pareekshaamen pratham shreneemen utteern hua thaa. ataev ab sabhee vidyaarthiyonka yahee prayatn tha ki pratham shrenee praapt kar lee jaaya. aatha-das vidyaarthee pratiyogitaake kshetramen kood pada़e. ve raaton-din ek karane lage. idhar raatake baarah bajetak padha़te aur udhar praatah chaar baje uth baithate. par meree sthiti bhinn thee . raatako jaganekee aadat naheen thee. nau baje so jaata aur praata: saat baje uthataa. par main soneke poorv lagabhag pandrah minatatak sanskaaravash 'om' ka jap avashy kar leta aur uthaneke saath hee tulaseekrit raamaayanaka yah doha gunagunaane lagataa—

bhav bheshaj raghunaath jas sunahin je nar aru naari .

tinh kar sakal manorath siddh karahin trisiraari ..

pareeksha huee aur samaapt ho gayee. joonamen pareeksha phal ghoshit huaa. main saiddhaantik aur vyaavahaarik donon pareekshaaonmen pratham shreneemen utteern huaa. omke japane
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om shaantih shaantih shaantih .

[ aachaary shreebhagavaanadaasajee jhaa]

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