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इष्टदेवताकी कृपा

करीब ३० वर्ष पहलेकी घटना है। मेरे पिताजी उस समय दाण्डेर, जिला पूनामें रहते थे। शनिवारका दिन था। दोपहरके समय वे मण्डीमें साग-सब्जी लेने गये थे। रास्तेमें एक बड़े पत्थरसे टकराकर वे गिर पड़े। बहुत चोट लगी। लोगोंने उन्हें पहिचाना और घर ले आये। इस दुर्घटनामें उनका एक पैर टूट गया । घरमें मेरी फुआजी थीं और उन्हींपर सारी जिम्मेदारी थी। पिताजी उठ नहीं सकते थे। इसलिये उनकी शौच क्रिया आदि भी बिस्तरमें ही होती थी। एक सालतक यही स्थिति रही, घरके सभी लोग तंग आ गये और पिताजीकी देखभालमें टालमटोल करने लगे ।

पिताजीका मानसिक कष्ट बहुत बढ़ गया। उन्हें जीना भाररूप प्रतीत होने लगा और तब उन्होंने आत्महत्या करनेकी बात सोची। पैरसे चल नहीं सकते थे, इसलिये आत्महत्याका कोई साधन उन्हें नहीं मिल पाया। एक दिन रातके ११ बजे आत्महत्याकी बात उनके मनमें बड़े जोरोंसे आयी। बिस्तरके पास एक रस्सी पड़ी थी। उन्होंने पासकी खिड़कीकी छड़से उसका एक छोर बाँधकर दूसरा अपने गलेमें लगाया। वे श्रीभैरवनाथजी भक्त थे। उनको भैरवनाथजीकी स्मृति हुई। उन्होंने प्रार्थना की, इतनेमें उन्हें भैरवनाथजी दिखायी दिये और उन्होंने इनके गलेकी रस्सी निकाल दी और कहा 'बेटा! तू मेरा उपासक है। आज रविवार, मेरा दिन है। आजके दिन मैं अपने भक्तोंको मुँहमाँगी वस्तु दिया करता हूँ। तू मेरा भक्त होकर भी आत्महत्या करने क्यों जा रहा है ?'

पिताजीने बड़ी दीनतासे कहा— 'महाराज ! इतने दिनोंसे मेरी जो दुर्दशा हो रही है, उसे आप जानते ही हैँ। मेरा पैर अब ठीक होनेसे रहा, फिर मैं जीकर दूसरोंको क्यों तकलीफ दूँ। अब इस दुनियामें मेरा जीना बेकार है।' इसपर भैरवनाथजीने कहा- 'बेटा! तेरा यह प्रारब्धका भोग था। अब यह समाप्त हो गया है। जल्दी ही अच्छा हो जायगा।' पिताजी कहने लगे तू ‘आज ही रातको मैं अच्छा हो जाऊँ, तब तो आपकी बात सत्य है।' भैरवनाथजी बोले- 'देख, तेरी इच्छा पूरी होगी।' इसके बाद भैरवनाथजी अन्तर्धान हो गये। अन्तर्धान होनेके समय वहाँ एक साँप आया और उन्होंने साँपको आज्ञा दी कि 'तुम इसके शरीरमें लिपट जाओ और प्रातःकाल होते ही इसे छोड़कर मेरे पास चले आना।' पिताजीके शरीरसे साँप लिपट गया। प्रातःकाल होते ही साँप शरीर छोड़कर चला गया और आश्चर्यकी बात यह है कि उनका पैर भी पूर्ववत् ठीक हो गया।

इस आश्चर्यजनक घटनाकी बात सारे गाँवमें फैल गयी। लोग उन्हें देखने आने लगे। तभीसे पिताजी प्रत्येक रविवारको श्रीभैरवजीकी पूजा करते हैं और वहाँसे भस्म लाकर घरमें बिखेर देते हैं। तबसे आजतक उनको किसी बड़ी बीमारीने कभी नहीं सताया।

[ श्रीबालकृष्ण रघुनाथजी सुपेकर ]



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ishtadevataakee kripaa

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pitaajeene bada़ee deenataase kahaa— 'mahaaraaj ! itane dinonse meree jo durdasha ho rahee hai, use aap jaanate hee hain. mera pair ab theek honese raha, phir main jeekar doosaronko kyon takaleeph doon. ab is duniyaamen mera jeena bekaar hai.' isapar bhairavanaathajeene kahaa- 'betaa! tera yah praarabdhaka bhog thaa. ab yah samaapt ho gaya hai. jaldee hee achchha ho jaayagaa.' pitaajee kahane lage too ‘aaj hee raatako main achchha ho jaaoon, tab to aapakee baat saty hai.' bhairavanaathajee bole- 'dekh, teree ichchha pooree hogee.' isake baad bhairavanaathajee antardhaan ho gaye. antardhaan honeke samay vahaan ek saanp aaya aur unhonne saanpako aajna dee ki 'tum isake shareeramen lipat jaao aur praatahkaal hote hee ise chhoda़kar mere paas chale aanaa.' pitaajeeke shareerase saanp lipat gayaa. praatahkaal hote hee saanp shareer chhoda़kar chala gaya aur aashcharyakee baat yah hai ki unaka pair bhee poorvavat theek ho gayaa.

is aashcharyajanak ghatanaakee baat saare gaanvamen phail gayee. log unhen dekhane aane lage. tabheese pitaajee pratyek ravivaarako shreebhairavajeekee pooja karate hain aur vahaanse bhasm laakar gharamen bikher dete hain. tabase aajatak unako kisee bada़ee beemaareene kabhee naheen sataayaa.

[ shreebaalakrishn raghunaathajee supekar ]

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