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Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 38

भगवद् गीता अध्याय 2 श्लोक 38

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।2.38।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 2.38)

।।2.38।।जयपराजय लाभहानि और सुखदुःखको समान करके फिर युद्धमें लग जा। इस प्रकार युद्ध करनेसे तू पापको प्राप्त नहीं होगा।

हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद

।।2.38।। सुखदुख? लाभहानि और जयपराजय को समान करके युद्ध के लिये तैयार हो जाओ इस प्रकार तुमको पाप नहीं होगा।।

हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी

 2.38।। व्याख्या  अर्जुनको यह आशंका थी कि युद्धमें कुटुम्बियोंको मारनेसे हमारेको पाप लग जायगा पर भगवान् यहाँ कहते हैं कि पापका हेतु युद्ध नहीं है प्रत्युत अपनी कामना है। अतः कामनाका त्याग करके तू युद्धके लिये खड़ा हो जा। सुखदुःखे समे ৷৷. ततो युद्धाय युज्यस्व   युद्धमें सबसे पहले जय और पराजय होती है जयपराजयका परिणाम होता है लाभ और हानि तथा लाभहानिका परिणाम होता है सुख और दुःख। जयपराजयमें और लाभहानिमें सुखीदुःखी होना तेरा उद्देश्य नहीं है। तेरा उद्देश्य तो इन तीनोंमें सम होकर अपने कर्तव्यका पालन करना है।युद्धमें जयपराजय लाभहानि और सुखदुःख तो होंगे ही। अतः तू पहलेसे यह विचार कर ले कि मुझे तो केवल अपने कर्तव्यका पालन करना है जयपराजय आदिसे कुछ भी मतलब नहीं रखना है। फिर युद्ध करनेसे पाप नहीं लगेगा अर्थात् संसारका बन्धन नहीं होगा।सकाम और निष्काम दोनों ही भावोंसे अपने कर्तव्यकर्मका पालन करना आवश्यक है। जिसका सकाम भाव है उसको तो कर्तव्यकर्मके करनेमें आलस्य प्रमाद बिलकुल नहीं करने चाहिये प्रत्युत तत्परतासे अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये। जिसका निष्काम भाव है जो अपना कल्याण चाहता है उसको भी तत्परतापूर्वक अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये।सुख आता हुआ अच्छा लगता है और जाता हुआ बुरा लगता हौ तथा दुःख आता हुआ बुरा लगता है और जाता हुआ अच्छा लगता है। अतः इनमें कौन अच्छा है कौन बुरा अर्थात् दोनोंही समान हैं बराबर हैं। इस प्रकार सुखदुःखमें समबुद्धि रखते हुए तुझे अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये।तेरी किसी भी कर्ममें सुखके लोभसे प्रवृत्ति न हो और दुःखके भयसे निवृत्ति न हो। कर्मोंमें तेरी प्रवृत्ति और निवृत्ति शास्त्रके अनुसार हो ही (गीता 16। 24)। नैवं पापमवाप्स्यसि   यहाँ पाप शब्द पाप और पुण्य दोनोंका वाचक है जिसका फल है स्वर्ग और नरककी प्राप्तिरूप बन्धन जिससे मनुष्य अपने कल्याणसे वञ्चित रह जाता है और बारबार जन्मतामरता रहता है। भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन समतामें स्थित होकर युद्धरूपी कर्तव्यकर्म करनेसे तुझे पाप और पुण्य दोनों ही नहीं बाँधेंगे। प्रकरण सम्बन्धी विशेष बात भगवान्ने इकतीसवें श्लोकसे अड़तीसवें श्लोकतकके आठ श्लोकोंमें कई विचित्र भाव प्रकट किये हैं जैसे (1) किसीको व्याख्यान देना हो और किसी विषयको समझाना हो तो भगवान् इन आठ श्लोकोंमें उसकी कला बताते हैं। जैसे कर्तव्यकर्म करना और अकर्तव्य न करना ऐसे विधिनिषेधका व्याख्यान देना हो तो उसमें पहले विधिका बीचमें निषेधका और अन्तमें फिर विधिका वर्णन करके व्याख्यान समाप्त करना चाहिये। भगवान्ने भी यहाँ पहले इकतीसवेंबत्तीसवें दो श्लोकोंमें कर्तव्यकर्म करनेसे लाभका वर्णन किया फिर बीचमें तैंतीसवेंसे छत्तीसवेंतकके चार श्लोकोंमें कर्तव्यकर्म न करनेसे हानिका वर्णन किया और अन्तमें सैंतीसवेंअड़तीसवें दो श्लोकोंमें कर्तव्यकर्म करनेसे लाभका वर्णन करके कर्तव्यकर्म करनेकी आज्ञा दी।(2) पहले अध्यायमें अर्जुनने अपनी दृष्टिसे जो दलीलें दी थीं उनका भगवान्ने इन आठ श्लोकोंमें समाधान किया है जैसे अर्जुन कहते हैं मैं युद्ध करनेमें कल्याण नहीं देखता हूँ (1। 31) तो भगवान् कहते हैं क्षत्रियके लिये धर्ममय युद्धसे बढ़कर दूसरा कोई कल्याणका साधन नहीं है (2। 31)। अर्जुन कहते हैं युद्ध करके हम सुखी कैसे होंगे (1। 37) तो भगवान् कहते हैं जिन क्षत्रियोंको ऐसा युद्ध मिल जाता है वे ही क्षत्रिय सुखी है (2। 32)। अर्जुन कहते हैं युद्धके परिणाममें नरककी प्राप्ति होगी (1। 44) तो भगवान् कहते हैं युद्ध करनेसे स्वर्गकी प्राप्ति होगी (2। 32 37)। अर्जुन कहते हैं युद्ध करनेसे पाप लगेगा (1। 36) तो भगवान् कहते हैं युद्ध न करनेसे पाप लगेगा (2। 33)। अर्जुन कहते हैं युद्ध करनेसे परिणाममें धर्मका नाश होगा (1। 40) तो भगवान् कहते हैं युद्ध न करनसे धर्मका नाश होगा (2। 33)।(3) अर्जुनका यह आग्रह था कि युद्धरूपी घोर कर्मको छोड़कर भिक्षासे निर्वाह करना मेरे लिये श्रेयस्कर है (2। 5) तो उनको भगवान्ने युद्ध करनेकी आज्ञा दी (2। 38) और उद्धवजीके मनमें भगवान्के साथ रहनेकी इच्छा थी तो उनको भगवान्ने उत्तराखण्डमें जाकर तप करनेकी आज्ञा दी (श्रीमद्भा0 11। 29। 41)। इसका तात्पर्य यह हुआ कि अपने मनका आग्रह छोड़े बिना कल्याण नहीं होता। वह आग्रह चाहे किसी रीतिका हो पर वह उद्धार नहीं होने देता।(4) भगवान्ने इस अध्यायके दूसरेतीसरे श्लोकोंमें जो बातें संक्षेपसे कही थीं उन्हींको यहाँ विस्तारसे कहा है जैसे वहाँ  अनार्यजुष्टम्  कहा तो यहाँ  धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्  कहा। वहाँ  अस्वर्ग्यम्  कहा तो यहाँ  स्वर्गद्वारमपावृतम्  कहा। वहाँ  अकीर्तिकरम्  कहा तो यहाँ  अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्  कहा। वहाँ युद्धके लिये आज्ञा दी  त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप  तो वही आज्ञा यहाँ देते हैं  ततो युद्धाय युज्यस्व । सम्बन्ध   पूर्वश्लोकमें भगवान्ने जिस समताकी बात कही है आगेके दो श्लोकोंमें उसीको सुननेके लिये आज्ञा देते हुए उसकी महिमाका वर्णन करते हैं।

हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी

।।2.38।। सम्पूर्ण गीता के साररूप इस द्वितीय अध्याय में सांख्ययोग के पश्चात् इस श्लोक में कर्मयोग का दिशा निर्देश है। इसी अध्याय में आगे भक्तियोग का भी संक्षेप में संकेत किया गया है।यह प्रथम अवसर है जब श्रीकृष्ण इस श्लोक में आत्मोन्नति की साधना का स्पष्टरूप से वर्णन करते हैं। इसलिये इसका सावधानीपूर्वक अध्ययन गीता के समस्त साधकों के लिये अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा।शरीर मन और बुद्धि इन तीन उपाधियों के माध्यम से ही हम जीवन में विभिन्न अनुभव प्राप्त कर सकते हैं। इन तीन स्तरों पर प्राप्त होने वाले सभी अनुभवों का समावेश इस श्लोक में कथित तीन प्रकार के द्वन्द्वों में किया गया है। अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों को सुख और दुख के रूप में अनुभव करना बुद्धि की प्रतिक्रिया है लाभ और हानि ये मन की कल्पनायें हैं जिस कारण वस्तु की प्राप्ति पर हर्ष और वियोग पर शोक होना स्वाभाविक है भौतिक जगत् की उपलब्धियों को यहाँ जयपराजय शब्द से सूचित किया है। श्रीकृष्ण का उपदेश यह है कि मनुष्य को इस प्रकार की विषम परिस्थितियों में सदैव मन के सन्तुलन को बनाये रखना चाहये। इसके लिये सतत जागरूकता की आवश्यकता है।समुद्र स्नान के इच्छुक व्यक्ति को समुद्र स्नान करने की कला ज्ञात होनी चाहिये अन्यथा समुद्र की उत्तुंग तरंगे उस व्यक्ति को व्यथित कर देंगी और उसे जल समाधि में खींच ले जायेंगी किन्तु बड़ी लहरों के नीचे झुकने और छोटी लहरों पर सवार होने की कला जो व्यक्ति जानता है वही समुद्र स्नान का आनन्द उठा सकता है। यह आशा करना कि समुद्र की लहरें शान्त हो जायें अथवा स्नान के समय कष्ट न पहुँचायंे अपनी सुविधा के लिये समुद्र को उसके स्वरूप का त्याग करने के आदेश देने के समान है किन्तु अज्ञानी पुरुष जीवन में यही चाहता है कि किसी प्रकार की समस्यायें उसके सामने न आयें जो सर्वथा असम्भव है। जीवन के समुद्र में सुख दुख लाभहानि और जयपराजय की लहरें उठना अनिवार्य है अन्यथा पूर्ण गतिहीनता ही मृत्यु है।यदि जीवन का स्वरूप ही एक उफनते तूफानी समुद्र के समान है तो उसमें उठती उत्तुंग तरंगों के आघातों अथवा गहन गह्वरों से विचलित हुये बिना जीवन जीने की कला हमको सीखनी चाहिये। इन उठती हुई तरंगों में किसी एक के साथ भी तादात्म्य स्थापित कर लेना मानो समुद्र की सतह पर उसके साथ इधरउधर बहते जाना है और न कि उस प्रकाश के स्तम्भ के समान स्थिर रहना है जो वहीं विक्षुब्ध लहरों के बीच निश्चल खड़ा रहता है और जिसकी नींव समुद्र तल की चट्टान पर निर्मित होती है। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को युद्ध करने के लिये प्रेरित करते हैं किन्तु साथ में इस समत्व भाव का उपदेश भी देते हैं अन्यथा कर्म में प्रवृत्त हुआ व्यक्ति अनेक अवसरों पर अपनी ही नकारात्मक प्रवृत्तियों का शिकार बन जाता है। मन के इस समभाव के होने पर ही मनुष्य वास्तविक स्फूर्ति और प्रेरणा का जीवन जी सकता है और ऐसे व्यक्ति की उपलब्धियां ही सच्ची सफलता की आभा से युक्त होती हैं।यह सुविदित तथ्य है कि सभी कार्य क्षेत्रों में जो कर्म स्फूर्ति और प्रेरणा युक्त होते हैं उनकी अपनी ही दैवी चमक होती है जिनकी न प्रतिकृति हो सकती है और न ही उसे बारम्बार दोहराया जा सकता है। किसी भी कार्य क्षेत्र का व्यक्ति चाहे वह कवि हो या कलाकार चिकित्सक हो या वक्ता जब अपनी सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि या कृति प्रस्तुत करता है तब वह सर्वसम्मति से प्रेरणा का कार्य ही स्वीकार किया जाता है। इस प्रकार हम जब दैवी प्रेरणा के आनन्द से अविभूत कोई कार्य कर रहे होते हैं तब हमारी कल्पनायें विचार और कर्म अपनी एक निराली ही सुन्दरता से ओतप्रोत होते हैं जिन्हें एक यन्त्र के समान पुन दोहराया नहीं जा सकता।प्रसिद्ध चित्रकार दा विन्सी अपनी श्रेष्ठ कृति मन्द स्मितवदना मोनालिसा का चित्र दोबारा चित्रित नहीं कर सका महाकवि कीट्स की लेखनी उड़ते हुये बुलबुल के गान को दूसरी बार नहीं लिख पायी बीथोवेन पियानों पर फिर एक बार वही मधुर स्वर झंकृत नहीं कर सका भगवान् श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन के प्रार्थना करने पर युद्ध के पश्चात् दोबारा गीता सुनाने में अपनी असमर्थता स्वीकार की पाश्चात्य विचारकों के लिये प्रेरणा संयोग की कोई रहस्यमय घटना है जिस पर मानव का कोई नियन्त्रण नहीं रहता जबकि भारतीय मनीषियों के अनुसार दैवी प्रेरणा का जीवन मनुष्य का वास्तविक लक्ष्य है जिसे वह अपने आत्मस्वरूप के साथ पूर्णतया तादात्म्य स्थापित करके जी सकता है। समत्व भाव का वह जीवन जहाँ हम जीवन में आने वाली परिस्थितियों से अप्रभावित अपने मन और बुद्धि के साक्षी बनकर रहते हैं अहंकार की विस्मृति के क्षण हैं और तब हमारे कर्म उषकाल की जगमगाती आभा से समृद्ध होते हैं। सामान्य मनुष्य की धारणा होती है कि अहंकार के अभाव में हम कार्य करने में अकुशल या असमर्थ बन जायेंगे परन्तु यह मिथ्या धारणा है। प्रेरणा की आभा ही सामान्य सफलता को भी महान् उपलब्धि की ऊँचाई तक पहुँचाती है।प्राचीन हिन्दू योगियों ने एक साधना का आविष्कार किया जिसके अभ्यास से मन और बुद्धि की युक्तता एवं समता सम्पादित की जा सकती है। इस साधना को योग कहते हैं। वैदिक काल के लोगों को इसका ज्ञान था तथा इसका अभ्यास करके वे योगी का जीवन जीते थे। उन्होंने असाधारण उपलब्धियों को अर्जित करके राष्ट्र के लिये स्वर्णयुग का निर्माण किया।भारत जैसे देश में वैदिक काल में निश्चित ही आस्तिक दर्शन प्रचलित होगा परन्तु उसकी उपयोगिता जीवन के सभी क्षेत्रों में समान रूप से है। यदि उसकी सार्वक्षेत्रीय उपयोगिता न हो तो वह वास्तविक अर्थ में दर्शन ही नहीं है। अधिक से अधिक उसे किसी श्रेष्ठ पुरुष का जीवन विषयक मत माना जा सकता है जिसका सीमित उपयोग हो किन्तु तत्त्वज्ञान के रूप में वह कभी स्वीकार नहीं हो सकता।अब तक के उपदेश में भगवान् ने वे सभी आवश्यक तर्क अर्जुन के समक्ष प्रस्तुत किये जिनको समझकर प्राप्त परिस्थितियों में स्वबुद्धि से उचित निर्णय लेने में वह समर्थ हो सके। सभी भौतिक परिस्थितियों के मूल्यांकन में केवल आध्यात्मिक दृष्टिकोण को ही अन्तिम प्रमाण नहीं माना जा सकता। जीवन की प्रत्येक परिस्थिति या चुनौती का मूल्यांकन आध्यात्मिक दृष्टि के साथसाथ बुद्धि के स्तर पर तर्क मन के स्तर पर नैतिकता और भौतिक स्तर पर परम्परा और सामाजिक रीति रिवाज की दृष्टि से भी करना आवश्यक है। इन सब के द्वारा बिना किसी विरोधाभास के यदि किसी एक सत्य का संकेत मिलता है तो निश्चय ही वह दिव्य मार्ग है जिस पर मनुष्य्ा को प्रत्येक मूल्य पर चलने का प्रयत्न करना चाहिये।केवल नैतिकता की भावना से युद्ध की ओर देखने से अर्जुन उस परिस्थिति को उचित रूप में समझ नहीं सका। शत्रुपक्ष में खड़े अपने ही बन्धुबान्धवों को विनष्ट करना नैतिकता के विरुद्ध था। किन्तु भावावेशजनित मन की भ्रमित अवस्था में उसने अन्य दृष्टिकोणों पर विचार नहीं किया जिससे वह पुन संयमित हो सकता था। ऐसे अवसर पर जो करने योग्य है वही करता हुआ अर्जुन भगवान् कृष्ण की शरण में जाता है। श्रीकृष्ण उसके मार्गदर्शन का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेकर जीवन के सभी दृष्टिकोणों को उसके सामने प्रस्तुत करते हैं। सम्पूर्ण गीता में श्रीकृष्ण मनुष्य को प्राप्त विवेकशील बुद्धि की भूमिका निभाते हैं जो कठोपनिषद् की भाषा में देहरूपी रथ का योग्य सारथि है।इस प्रकार आध्यात्मिक बौद्धिक नैतिक और पारम्परिक दृष्टियों से विचार करने के पश्चात् पूर्व के श्लोक में भगवान अर्जुन को युद्ध करने की सम्मति देते हैं। जिस भावना से कर्म करना चाहिये उसका विवेचन इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने किया है। शरीरादि अनात्म उपाधियों के साथ तादात्म्य करने से जो चिन्तायें विक्षेप व्याकुलतायें होती हैं उनसे ऊपर उठकर सभी विषम परिस्थितियों में समभाव में स्थित होकर कर्म करना चाहिये।मन के समत्व भाव में रहने से जीवन की वास्तविक सफलता निश्चित होती है। इसके पूर्व हम देख चुके हैं कि जीवन में किस प्रकार पूर्व संचित वासनायें क्षीण हो सकती हैं। जगत् में सभी जीव अपनीअपनी वासनाओं का क्षय करने के लिये ही विभिन्न शरीर धारण किये हुये हैं। इस प्रकार वृक्ष पशु अथवा मनुष्य सभी वासनाओं के भण्डार हैं।सब परिस्थितियों में समभाव में स्थित हुआ मन वासनाओं के निस्सारण का मार्ग बनता है। यह द्वार जब अहंकार और स्वार्थ से अवरुद्ध होता है तब वासनाक्षय के स्थान पर असंख्य नयी वासनाएँ उत्पन्न होती जाती हैं। द्वन्द्वों के कारण हुआ विक्षेप अहंकार के जन्म और वृद्धि के कारण है। कर्मयोग की भावना से कर्म करते हुये जीवन जीने पर अन्तकरण की शुद्धि प्राप्त होती है। इस कर्मयोग का विस्तृत विवेचन गीता के तृतीय अध्याय में है।तत्त्वज्ञान और सामान्यजन की दृष्टि से विचार करने के पश्चात् भगवान् अर्जुन को कर्मयोग की भावना से युद्ध करने का उपदेश देते हैं। तत्त्वज्ञान को समझ कर उसे जीवन में जीना ही व्यावहारिक धर्म है।इसके पश्चात् इस अध्याय में वेदान्त ज्ञान का व्यवहार में उपयोग करने के उपायों एवं साधनों का निरूपण किया है। भगवान् कहते हैं

English Translation - Swami Gambirananda

2.38 Treating happiness and sorrow, gain and loss, and conest and defeat with eanimity, then engage in battle. Thus you will not incur sin.

English Translation - Swami Sivananda

2.38 Having made pleasure and pain, gain and loss, victory and defeat the same, engage thou in battle for the sake of battle; thus thou shalt not incur sin.

English Translation - Dr. S. Sankaranarayan

2.38. Viewing alike, pleasure and pain, gain and loss, victory and defeat, you should get then ready for the battle. Thus you will not incur sin.

English Commentary - Swami Sivananda

2.38 सुखदुःखे pleasure and pain? समे same? कृत्वा having made? लाभालाभौ gain and loss? जयाजयौ victory and defeat? ततः then? युद्धाय for battle? युज्यस्व engage thou? न not? एवम् thus? पापम् sin? अवाप्स्यसि shalt incur.Commentary This is the Yoga of eanimity or the doctrine of poise in action. If anyone does any action with the above mental attitude or balanced state of mind he will not reap the fruits of his action. Such an action will lead to the purification of his heart and freedom from birth and death. One has to develop such a balanced state of mind through continous struggle and vigilant efforts.

English Translation of Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya's

2.38 As regards that, listen to this advice for you then you are engaged in battle considering it to be your duty: Krtva, treating; sukha-duhkhe, happiness and sorrow; same, with eanimity, i.e. without having likes and dislikes; so also treating labha-alabhau, gain and loss; jaya-ajayau, conest and defeat, as the same; tatah, then; yuddhaya yujyasva, engage in battle. Evam, thus by undertaking the fight; na avapsyasi, you will not incur; papam, sin. This advice is incidental. [The context here is that of the philosophy of the supreme Reality. If fighting is enjoined in that context, it will amount to accepting combination of Knowledge and actions. To avoid this contingency the Commentator says, incidental. That is to say, although the context is of the supreme Reality, the advice to fight is incidental. It is not an injunction to combine Knowledge with actions, since fighting is here the natural duty of Arjuna as a Ksatriya.]. The generally accepted argument for the removal of sorrow and delusion has been stated in the verses beginning with, Even considering your own duty (31), etc., but this has not been presented by accepting that as the real intention (of the Lord). The real context here (in 2.12 etc.), however, is of the realization of the supreme Reality. Now, in order to show the distinction between the (two) topics dealt with in this scripture, the Lord concludes that topic which has been presented above (in 2.20 etc.), by saying, This (wisdom) has been imparted, etc. For, if the distinction between the topics of the scripute be shown here, then the instruction relating to the two kinds of adherences as stated later on in, through the Yoga of Knowledge for the men of realization; through the Yoga of Action for the yogis (3.3) will proceed again smoothly, and the hearer also will easily comprehend it by keeping in view the distinction between the topics. Hence the Lord says:

English Translation of Commentary - Dr. S. Sankaranarayan

2.38 Sukha-duhkhe etc. For you, performing actions as your own duty, never there is any connection with sin.

English Translation of Ramanuja's Sanskrit Commentary

2.38 Thus, knowing the self to be eternal, different from the body and untouched by all corporeal alities, remaining unaffected by pleasure and pain resulting from the weapon-strokes etc., inevitable in a war, as also by gain and loss of wealth, victory and defeat, and keeping yourself free from attachment to heaven and such other frutis, begin the battle considering it merely as your own duty. Thus, you will incur no sin. Here sin means transmigratory existence which is misery. The purport is that you will be liberarted from the bondage of transmigratory existence. Thus, after teaching the knowledge of the real nature of the self, Sri Krsna begins to expound the Yoga of work, which, when preceded by it (i.e., knowledge of the self), constitutes the means for liberation.

Commentary - Chakravarthi Ji

In all ways, your fighting is an act of dharma. If you fear that it will produce sin, I have shown you that it will not be a cause of sin. Therefore fight. Being equal in happiness and distress, which is caused by gain and loss, such as gain and loss of a kingdom, which is in turn caused by victory or defeat in the war, understanding that both results are equal through a discerning mind, equipped with that knowledge, you will not incur sin at all. It will be stated later: lipyate na sa papena padma-patram ivambhasa One is not touched by sin, as a lotus leaf is not touched by water. Gita 5.10

Rudra Vaishnava Sampradaya - Commentary

The previous statement given by Arjuna in chapter one, verse 36 concerning his apprehension of sin coming upon him is now being nullifed by the Supreme Lords instruction of non-attachment to the fruits of action. Regarding as equal pleasure and pain, loss and gain and also the cause of both these dualities which is victory or defeat. The attribute of equanimity is absolute freedom from elation and despondency. Giving up all notions of what is pleasurable, being equipoised by whatever comes of its own accord and by fighting the battle as a matter of ksatriya duty Arjuna will not incur any sin.

Brahma Vaishnava Sampradaya - Commentary

There is no commentary for this verse.

Shri Vaishnava Sampradaya - Commentary

Ramanuja. Bhagavad-Gita: chapter 2, verse 39 The use of the word sankhya determines the proper understanding. Sankhyam is of the eternal soul category which is apprehensible through the understanding by the rational faculty of the mind. The immortal soul as an eternal principle must be understood. That understanding by which to comprehend it has already been given to Arjuna so he would know it in the previous verses in this chapter being verse 12 never at all was that I and verse 30 therefore thou has no cause to grieve for any creature. As for the use of the word yoga meaning karma yoga which is the science of the individual consciousness attaining communion with the Ultimate Consciousness through actions without desiring fruitive results. It is to be understood that the spiritual intelligence acquired by following this yoga of actions when based on sankhyam or knowledge of the soul is the path which leads to salvation. This precise understanding is what is declared further in this chapter in verse 49; but in the next verse learn just what spiritual knowledge is to be gained by this karma yoga. Imbibing the wisdom from it, cut asunder the bonds of karmic reactions from all actions. The virtue of actions performed in this way will subsequently be given in verse 40.

Kumara Vaishnava Sampradaya - Commentary

Ramanuja. Bhagavad-Gita: chapter 2, verse 39 The use of the word sankhya determines the proper understanding. Sankhyam is of the eternal soul category which is apprehensible through the understanding by the rational faculty of the mind. The immortal soul as an eternal principle must be understood. That understanding by which to comprehend it has already been given to Arjuna so he would know it in the previous verses in this chapter being verse 12 never at all was that I and verse 30 therefore thou has no cause to grieve for any creature. As for the use of the word yoga meaning karma yoga which is the science of the individual consciousness attaining communion with the Ultimate Consciousness through actions without desiring fruitive results. It is to be understood that the spiritual intelligence acquired by following this yoga of actions when based on sankhyam or knowledge of the soul is the path which leads to salvation. This precise understanding is what is declared further in this chapter in verse 49; but in the next verse learn just what spiritual knowledge is to be gained by this karma yoga. Imbibing the wisdom from it, cut asunder the bonds of karmic reactions from all actions. The virtue of actions performed in this way will subsequently be given in verse 40.

Transliteration Bhagavad Gita 2.38

Sukhaduhkhe same kritwaa laabhaalaabhau jayaajayau; Tato yuddhaaya yujyaswa naivam paapamavaapsyasi.

Word Meanings Bhagavad Gita 2.38

sukha—happiness; duḥkhe—in distress; same kṛitvā—treating alike; lābha-alābhau—gain and loss; jaya-ajayau—victory and defeat; tataḥ—thereafter; yuddhāya—for fighting; yujyasva—engage; na—never; evam—thus; pāpam—sin; avāpsyasi—shall incur