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श्रीहनुमानचालीसाके पाठका प्रभाव

यह घटना सं० २०३३ भादोंके श्रीकृष्ण-जन्माष्टमीकी रात्रिके उस समयकी है, जब भगवान् श्रीकृष्णका अभिषेक -पूजन हो रहा था। घरपर उन दिनों परिवारके सभी लोग थे। मेरे पिताजी आदि उन दिनों मेरे (अग्रज) भाईके कुटेवोंसे असन्तुष्ट थे। अतएव उन्होंने समझाया कि तुम आजसे ही अपनी कुटेवोंको त्याग दो। परंतु मेरे भाईने पिताजीकी एक न सुनी। इसके विरुद्ध उन्होंने उसी समय पिताजीको कुछ अनुचित वचन कह दिये। इसपर क्रोधावेशमें पिताजीके मुखसे सहसा निकल पड़ा कि 'मैं अब तुमको कभी मुँह न दिखाऊँगा।' ऐसा कहकर उसी अन्धकारपूर्ण रात्रिमें वे किसीको बिना कुछ बताये घरसे निकल गये। हम सब लोग आसन्न अनिष्टकी आशंकासे चिन्तित हो उठे। सबकी व्याकुलताबढ़ने लगी। तब मेरे अन्य भाइयोंने तथा पड़ोसी भाइयोंने भी आस-पास लालटेन लेकर ढूँढ़ना प्रारम्भ किया। सबके साथ मैं भी व्याकुल हुआ उन्हें खोज रहा था। परंतु जब कहीं भी कोई पता न लगा, तब हताश और दुखी मनसे मैं घर लौट आया। कुछ क्षणोंतक स्तब्ध, विचारमग्न बैठनेके पश्चात् तुरंत एक निश्चयके साथ उठा और श्रद्धा-विश्वासपूर्वक श्रीहनुमानचालीसाका पाठ प्रारम्भ कर दिया और यह निर्णय लिया कि जबतक पिताजी घर न लौट आयेंगे, मैं तबतक पाठ ही करता रहूँगा। हनुमानचालीसाके ४-५ पाठ करनेपर पता लगा कि पिताजी पड़ोसी भाईके साथ आ गये हैं। मैं यह देख-सुनकर श्रीहनुमान्जीके कृपा-प्रभावके सम्मुख नतमस्तक हो गया।पड़ोसी भाईका पिताजीसे मिलन उस समय हुआ था, जब पिताजी बड़ी तेजीसे दूसरे गाँवकी ओर जा रहे थे। संयोगसे वे पड़ोसी सज्जन भी उसी ओर पिताजीको ढूँढ़ने बड़ी आतुरतासे जा रहे थे। तब उन्हें कुछ ही दूरीपर पिताजीकी पदचाप सुनायी पड़ी। अनुमान करके पड़ोसी भाई दौड़कर उनके पास चले गये और पहचानलिया। बहुत समझाने-बुझानेपर पिताजी उनके साथ घर लौट आये। पिताजीके आनेपर हम सबने भगवान्का प्रसाद लेकर पिताजीके साथ सानन्द भोजन किया। वह श्रीहनुमान्जीकी कृपाकी प्रत्यक्ष अनुभूति थी। तन, मन, वचनसे गद्गद होकर हर्ष और आनन्दसे उमँगकर मैंने उन्हें बार-बार प्रणाम किया।

[ श्रीअतरसिंहजी दोंगी ]



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shreehanumaanachaaleesaake paathaka prabhaava

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[ shreeatarasinhajee dongee ]

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