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महात्मा श्रीरूपकलाजीको अलौकिक कृपानुभूति

श्रीरूपकलाजी अयोध्याके एक प्रसिद्ध भक्त हो गये हैं। इनका जन्म बिहारमें एक कायस्थ-कुलमें हुआ था। बचपनमें आपका नाम भगवानप्रसाद था । ये बचपनसे ही बड़े कर्मनिष्ठ और भगवद्भक्त थे। ये प्रायः तीस वर्षतक बिहारके शिक्षाविभागमें दायित्वपूर्ण पदपर रहे। अपने कामको सुचारुरूपसे करते हुए तथा गृहस्थ आश्रमके नियमोंका सम्यक्रूपसे पालन करते हुए ये निरन्तर अपनी आध्यात्मिक उन्नति भी करते रहे। वैराग्य मानो इनमें कूट-कूटकर भरा था। इनका अपना खर्च तो बहुत थोड़ा था, परंतु धर्मार्थ अन्य कामोंमें व्यय अधिक होनेके कारण इनपर बराबर ऋण रहा करता था। कभी-कभी इस कारण इन्हें कष्ट भी उठाना पड़ता। ऐसे कई अवसरोंपर, कहते हैं, भगवान् इनकी सहायता किया करते थे। कई बार आवश्यकतानुसार धन इनके तकियेके नीचे पड़ा मिला। एक बार ये अत्यन्त चिन्तामें थे, महाजनका कड़ा तकाजा था। उसी दिन शामको एक अपरिचित आदमीने एक लिफाफा इनके हाथोंमें रखकर कहा 'आपसे कुछ बातें करनी हैं; इसे अपने पास रखिये, मैं अभी लघुशंका करके आ रहा हूँ।' वह लघुशंका करने गया; परंतु फिर वापस न आया। तीन दिन बाद उसके आनेकी कोई सम्भावना न देख इन्होंने जब लिफाफेको खोला तो उसमें ठीक उतना ही रुपया मिला, जितनेकी इन्हें आवश्यकता थी ।

बचपनसे ही अनेक अद्भुत घटनाएँ इनके जीवनमें देखी गयीं; परंतु अन्तमें ५४ वर्षकी उम्र में जो घटना हुई, उसने इनका जीवन ही पलट दिया। एक दिन ये स्कूल देखने बिहटा स्टेशनसे कई मील दूर देहातमें गये थे। उन दिनों शिक्षाविभागके डाइरेक्टर पटना आये थे। इन्स्पेक्टरने इनके पास पत्र भेजा कि डाइरेक्टर साहबके कलकत्तेके लिये रवाना होनेके पूर्व मिलिये, जरूरी सलाह लेनी है। पत्र मिलनेके बाद समय केवल १५-२० मिनट और बाकी था। इतनी देरमें पटना पहुँचना असम्भव था। इसी विचारमें पड़े थे कि आँख लग गयी। कुछ देर बाद जब आँख खुली तो अपनेको जरूरी कागजोंके साथ, कपड़े लतेसे दुरुस्त पटना स्टेशनके वेटिंगरूममें देखा। इन्होंने डाइरेक्टर साहबसे बातें कीं। जब उनकी गाड़ी छूट गयी, तब इन्होंने विचार किया कि मैं यहाँ कैसे आ गया ! इसी सोचमें पुनः इनकी आँख लग गयी और थोड़ी देर बाद इन्होंने अपनेको उसी देहातके स्कूलमें पाया। इस बातका इनके हृदयपर बड़ा असर पड़ा। इन्होंने सोचा, मेरे कारण भगवान्‌को इतना कष्ट उठाना पड़ता है। बस उसी समय इन्होंने इस्तीफा दे दिया और सब कुछ छोड़-छाड़कर अयोध्या आ गये।

आप प्रायः ४० वर्षतक अयोध्याजीमें रहे। इनके पास बराबर जिज्ञासु लोग आया करते थे और आप उनके भ्रमको दूरकर, उन्हें सत्-शिक्षा और उपदेश देकर सत्पथपर लगाते थे। इनके संसर्गमें आकर कितने ही कट्टर नास्तिक भगवद्भक्त बन गये। इन्होंने जन्मभर नाम-माहात्म्य तथा भक्तिकी महिमाका प्रचार किया। अयोध्या में भी इनकी अलौकिक महिमा देखी गयी। ये किसीके भी मनकी बात जान जाते थे दूरमें या भविष्य में होनेवाली बातें बता देते थे। अपनी मृत्युतिथि इन्होंने बीस वर्ष पूर्व एक डायरीमें लिख रखी थी। मृत्युसे तीन-चार दिन पहले इन्होंने अपने प्रेमियों और भक्तोंको मिलनेके लिये बुलवा लिया था । ६ जनवरी सन् १९३२ ई०को इस असार संसारको छोड़कर इन्होंने साकेतवास किया। इन्होंने कई पुस्तकें भी लिखी थीं। इनके उपदेशोंको इनके शिष्योंने संकलित कर रखा है।

[ संकलित ]



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[ sankalit ]

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