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भगवान् शिवकी कृपामयी शाम्भवी दीक्षा

घटना लगभग २००० ई० की है। उन दिनों मैं सदेह गुरुकी खोजमें व्याकुल था और एक देहधारी गृहस्थ सिद्ध सन्तसे मन-ही-मन दीक्षा लेनेकी बलवती कामना चल रही थी। विगत तीन-चार वर्षोंमें जब भी मैं उनके सम्मुख होता तो अन्य कुछ बातें तो पूछ लेता था, किंतु चाहकर भी उनसे दीक्षा लेनेकी कामना व्यक्त नहीं कर पाता। अब पुनः उनके दर्शनका सुयोग प्राप्त होना था, इसलिये मन-ही-मन मैं बार-बार दृढ़ संकल्प दुहराता रहता था कि परिणामकी परवाह किये बिना इस बार साहस जुटाकर दीक्षावाली बात अवश्य कहूँगा।

उन दिनों मैं रात्रिमें बिस्तरपर बैठकर एक माला महामृत्युंजय मंत्र जपकर सो जाता था अवकाश मिलते ही दिन-रात गुरु-वरण और दीक्षा ग्रहणकी व्याकुलता मनमें घूमती रहती थी। इसी बीच एक रात मध्यकालमें जब मैं मन्त्र जप रहा था, तब मुझे खट्-खट्की ध्वनि सुनायी पड़ने लगी। इस ध्वनिके कारण मैं बिलकुल एकाग्र-सा हो गया था। फिर मैंने देखा, कमरेके सामने एक लम्बे गलियारेके तलपर बैसाखियोंके सहारे चलतेहुए एक वृद्ध साधु मेरी तरफ बढ़े चले आ रहे हैं। मैं साँस रोके साधु बाबाकी ओर देख रहा था। बिस्तर से चार-पाँच हाथ दूर आकर वे खड़े हो मुझे तेज नेत्रोंसे देखने लगे । यद्यपि मुझे दृष्टिगत नहीं हुआ, किंतु पता नहीं किस प्रेरणावश मैंने उनको प्रणाम करते हुए कहा कि 'प्रभु ! भले ही आप रूप बदलकर आये हों, लेकिन आपके माथेपर विराजमान चन्द्रमाको देखकर तो कोई भी पहचान लेगा कि आप भगवान् शिव हैं।'

मेरी बातका कोई उत्तर न देते हुए भावविहीन मुखमण्डल बनाये उन्होंने अचानक अपने दाहिने तरफकी बैसाखी उठायी और उसे मेरे मस्तककी ओर तान दिया। बैसाखीका नुकीला हिस्सा मेरे ललाटसे एकाध फीट दूर था और मैं काष्ठवत् कुछ भी समझ पानेमें असहाय ।

अकस्मात् मैंने अनुभव किया कि गर्दनके ऊपरसे मेरा मस्तक गायब है और मैं सिररहित हूँ। इस विचित्र स्थितिको समझनेकी चेष्टाके बीच कुछ देरमें मेरा मस्तक पुनः अपने स्थानपर वापस जुड़ चुका था।

फिर अचानक मेरी दाहिनी दिशासे हवामें ऊपरसे उड़ता हुआ एक चरण आकर बिलकुल सामने टिक गया, जो घुटनेसे नीचेतकका भाग था। चरण स्वयं कुछ ऊपर उठा और मैंने पैरके अँगूठे में माथा सटाकर प्रणाम किया। फिर अब स्मरण नहीं कि साधु बाबाने अँगूठेसे या किसी अन्य साधनसे मेरे माथेपर त्रिशूलकी लकीर बनाकर कहा — 'ये है तुम्हारी शाम्भवी दीक्षा ।'

इसके पश्चात् चरण और साधु बाबा अन्तर्धान हो गये। मैंने देखा, मेरा जप पूरा हो चुका था और मैं महादेवकी असीम कृपासे गद्गद होता सो गया।

आज भी जाग्रत् दशामें भगवान् शिवकी उस कृपामयी शाम्भवी दीक्षाकी अनुभूतिका स्मरण होनेपर पुलकित मन यही कहता है—
'आसुतोष तुम्ह अवढर दानी।'

[ डॉ० श्रीसत्येन्दुजी शर्मा ]



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bhagavaan shivakee kripaamayee shaambhavee deekshaa

ghatana lagabhag 2000 ee0 kee hai. un dinon main sadeh gurukee khojamen vyaakul tha aur ek dehadhaaree grihasth siddh santase mana-hee-man deeksha lenekee balavatee kaamana chal rahee thee. vigat teena-chaar varshonmen jab bhee main unake sammukh hota to any kuchh baaten to poochh leta tha, kintu chaahakar bhee unase deeksha lenekee kaamana vyakt naheen kar paataa. ab punah unake darshanaka suyog praapt hona tha, isaliye mana-hee-man main baara-baar dridha़ sankalp duharaata rahata tha ki parinaamakee paravaah kiye bina is baar saahas jutaakar deekshaavaalee baat avashy kahoongaa.

un dinon main raatrimen bistarapar baithakar ek maala mahaamrityunjay mantr japakar so jaata tha avakaash milate hee dina-raat guru-varan aur deeksha grahanakee vyaakulata manamen ghoomatee rahatee thee. isee beech ek raat madhyakaalamen jab main mantr jap raha tha, tab mujhe khat-khatkee dhvani sunaayee pada़ne lagee. is dhvanike kaaran main bilakul ekaagra-sa ho gaya thaa. phir mainne dekha, kamareke saamane ek lambe galiyaareke talapar baisaakhiyonke sahaare chalatehue ek vriddh saadhu meree taraph badha़e chale a rahe hain. main saans roke saadhu baabaakee or dekh raha thaa. bistar se chaara-paanch haath door aakar ve khada़e ho mujhe tej netronse dekhane lage . yadyapi mujhe drishtigat naheen hua, kintu pata naheen kis preranaavash mainne unako pranaam karate hue kaha ki 'prabhu ! bhale hee aap roop badalakar aaye hon, lekin aapake maathepar viraajamaan chandramaako dekhakar to koee bhee pahachaan lega ki aap bhagavaan shiv hain.'

meree baataka koee uttar n dete hue bhaavaviheen mukhamandal banaaye unhonne achaanak apane daahine taraphakee baisaakhee uthaayee aur use mere mastakakee or taan diyaa. baisaakheeka nukeela hissa mere lalaatase ekaadh pheet door tha aur main kaashthavat kuchh bhee samajh paanemen asahaay .

akasmaat mainne anubhav kiya ki gardanake ooparase mera mastak gaayab hai aur main sirarahit hoon. is vichitr sthitiko samajhanekee cheshtaake beech kuchh deramen mera mastak punah apane sthaanapar vaapas juda़ chuka thaa.

phir achaanak meree daahinee dishaase havaamen ooparase uda़ta hua ek charan aakar bilakul saamane tik gaya, jo ghutanese neechetakaka bhaag thaa. charan svayan kuchh oopar utha aur mainne pairake angoothe men maatha sataakar pranaam kiyaa. phir ab smaran naheen ki saadhu baabaane angoothese ya kisee any saadhanase mere maathepar trishoolakee lakeer banaakar kaha — 'ye hai tumhaaree shaambhavee deeksha .'

isake pashchaat charan aur saadhu baaba antardhaan ho gaye. mainne dekha, mera jap poora ho chuka tha aur main mahaadevakee aseem kripaase gadgad hota so gayaa.

aaj bhee jaagrat dashaamen bhagavaan shivakee us kripaamayee shaambhavee deekshaakee anubhootika smaran honepar pulakit man yahee kahata hai—
'aasutosh tumh avadhar daanee.'

[ daॉ0 shreesatyendujee sharma ]

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