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अतिथि- सेवाका फल

अतिथि सेवा हमलोगोंके धार्मिक दैनिक कर्तव्यों में मुख्य है। इसकी महिमा सभी स्मृतियों तथा पुराणोंने गायी है। एक समय था कि हमारे भारतमें किसी भी बटोहीको भोजन तथा विश्रामकी अपनी यात्रामें चिन्ता नहीं रहती थी। भोजनके समय सभी सद्गृहस्थ चाहते थे कि कोई अतिथि भोजन कर ले तो उनका भोजन बनाना सफल हो।

जीवमात्रमें हमारे आराध्यदेव विराज रहे हैं, यह भावनामात्र नहीं है, अपितु ध्रुव सत्य है। निष्काम भक्तिकी यह एक उच्च अर्चना-पद्धति है कि प्रभुकी पूजा एक ऐसे व्यक्तिमें की जाय, जिससे हम न तो परिचित हैं और न जिससे हमारा कोई सम्बन्ध है। केवल ईश्वरीय भावनासे ही सेवा की जाय। हमारे प्रभु तो भावके भूखे हैं। जिस भावसे कोई उनकी आराधना करता है, उसीके अनुसार उसको फल मिलता है। यह घटना कई दशक पुरानी है, पर है सत्य । परम पूज्य श्रीस्वामी अभयानन्दजी आत्मदर्शी कैलासवासीने बतायी थी।

हाथरसके समीप मैण्डू नामक एक छोटा-सा स्थान है। वहाँ एक सज्जन रहते थे, जो किसी मिडिल स्कूलके हेडमास्टर थे; किंतु किसी कारणवश उनकी नौकरी छूट गयी थी और वे अपने घरपर रहकर ही बड़े कष्टसेजीवन-निर्वाह कर रहे थे। बहुत समयसे वे नौकरीके लिये प्रयत्न कर रहे थे, किंतु दुर्भाग्यवश उनको सफलता नहीं मिलती थी। इसलिये वे निराश तथा दुखी थे।

उनका घर सड़क के किनारे ही था और द्वारके आगे एक लिपा-पुता चबूतरा था; जहाँ संध्याके समय दो-चार पड़ोसी आ बैठते थे और विविध चर्चाओंसे मनोरंजन करते थे।

ज्येष्ठका महीना था, दिनके दो बजे होंगे। चिल चिलाती धूप और भाड़-सी गरम लूसे शरीर जला जाता था। हेडमास्टर साहब और उनकी धर्मपत्नी सभी खिड़की-दरवाजे बन्द किये आराम कर रहे । इतनेमें बाहर चबूतरेपर किसीके धम्मसे गिरनेकी आवाज आयी। मास्टरजीने किवाड़ खोलकर देखा तो उन्होंने एक फटेहाल व्यक्तिको पड़ा पाया। मास्टरजीने उसको उठाया और सहारेसे भीतर ले आये। उनकी पत्नीने एक बड़ा ग्लास ठण्डा शरबतका पिलाया, जिससे उसको बड़ी शान्ति मिली और वह स्वस्थ होकर बैठ गया। गृहिणीने उस नव-आगन्तुकके लिये भोजन बनाया और उसको बड़े प्रेमसे खिलाया। भोजनोपरान्त उसको खाटपर आराम करनेको कहा और पति-पत्नी उसको पंखाझलने लगे। वह शीघ्र ही निद्रादेवीके वशीभूत हो गया। सोते-सोते वह उठकर बैठ गया और मास्टरजीसे कहने लगा- 'तुम्हें सवा सौ रुपये वेतनकी हेडमास्टरी मिल गयी है और परसों तुम्हें इसकी सूचना मिल जायगी।' इतना कहकर वह फिर सो गया। जागनेपर उससे जब मास्टरजीने पूछा तो उसने कहा कि 'मुझे इस बातका किंचित् भी ज्ञान नहीं कि मैंने आपसे कुछ कहा था। मैं तो एक दुःखका मारा आदमी हूँ। मैंने तीन दिनोंसेअपने पुत्रकी मृत्युके कारण कुछ भी खाया-पीया नहीं था और भीषण गरमीके कारण आपके द्वारपर बेहोश हो गया था।' अतिथि तो शाम होनेपर चला गया। किंतु मास्टरजीको सवा सौ रुपये महीनेकी नौकरी लग जानेकी सूचना नियत समयपर मिल गयी। श्रीस्वामीजी कहा करते थे कि यह भगवान्का आवेशावतार था, जो उस आदमीके मुखसे बोला था और मास्टरजीके लिये था यह अतिथि सेवाका फल !

[ श्रीनिरंजनदासजी धीर ]



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atithi- sevaaka phala

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[ shreeniranjanadaasajee dheer ]

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