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भक्त समाधि वैश्य की मार्मिक कथा
भक्त समाधि वैश्य की अधबुत कहानी - Full Story of भक्त समाधि वैश्य (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [भक्त समाधि वैश्य]- भक्तमाल


कलिङ्ग देशके वैश्य राजा विराधके पौत्र और दुर्मिलके पुत्र समाधि वैश्यको भला, कौन नहीं जानता। हिंदुओंके घर-घरमें विराजनेवाली सप्तशतीका प्राकट्य इन्हींके कारण हुआ, जिसके कारण हम इन्हें चिरकालतक स्मरण करते रहेंगे।

समाधिके घरमें किसी बातकी कमी नहीं थी। बड़ी सम्पत्ति थी और अतुल ऐश्वर्य था। परंतु उनके स्त्री पुत्रोंने ही धनपर सर्वथा अपना स्वामित्व स्थापित करनेकेलिये इन्हें धोखा दिया और गुरुजनोंने भी इनकी उपेक्षा की। ये बहुत दुःखी होकर जंगलमें चले गये। वहाँ एक मुनिके आश्रमपर पहुँचकर इन्होंने उनका आश्रय लिया, परंतु अभी मनमें शान्ति नहीं थी। ये अपने सम्बन्धियोंके ही सुख-दुःखकी चिन्तामें पड़े थे। उसी समय इन्हें सुरथ नामके एक राजा मिले, जो अपने मन्त्रियों, सेनापतियों और स्वजनोंसे ही धोखा खाकर शिकार खेलनेके बहाने घरसे भाग आये थे। दोनोंमें परस्परपरिचयके बाद वैश्यने अपनी करुण कथा और मानसिक दशा राजाको कह सुनायी। समाधिकी बात सुनकर राजा सुरथने कहा- 'जिन दुष्ट और लोभी स्वजनोंने तुम्हें धोखा दिया और घरसे निकाल दिया, उनके कुशल क्षेमकी चिन्ता तुम क्यों कर रहे हो? उनके प्रति इतना स्नेह, इतनी ममता क्यों हो रही है?' समाधिने कहा- 'महाराज! क्या कहूँ, मेरी समझमें भी यह बात नहीं आती। मैं बहुत चाहता हूँ कि मेरा मन निर्मम हो जाय; परन्तु इसका ऐसा स्वभाव हो गया है कि जिस स्त्रीने पतिभाव और पुत्रने पितृभावका परित्याग करके धनके लालचसे मुझे घरसे निकाल दिया, उन्हींके प्रति मेरा मन स्नेहशिथिल हो रहा है। क्या करूँ, कुछ समझमें नहीं आता।'

दोनोंकी मनोदशा और बाह्य परिस्थिति एक-सी ही थी। दोनोंने मुनिके पास जाकर अपने दुःख तथा मनकी स्थितिका निष्कपट होकर सचाईके साथ वर्णन किया। उन्होंने कहा- 'भगवन्! हम जानते हैं कि इन विषयों में दुःख ही दुःख है; फिर भी इन्हींके प्रति हमारी ममता होती है, इसका क्या कारण है?' उन कृपालु मुनिने कहा- 'भैया! यों साधारण ज्ञान तो सभी प्राणियोंको रहता ही है। क्या ये पशु-पक्षी ज्ञानसे शून्य हैं ? परन्तु महामायाका कुछ ऐसा ही प्रभाव है कि लोग उसके द्वारा मोहित हो रहे हैं। ये महामाया इतनी प्रभावशालिनी हैं कि बड़े-बड़े ज्ञानियोंका चित्त भी बलात् खींचकर मोहके पंजेमें डाल देती हैं। यह सारी दुनिया इन्हींकीमाया है। इनकी आराधना और प्रसन्नतासे ही इससे मुक्ति प्राप्त हो सकती है।' इसके बाद उन दोनोंने महामायाकी महिमा और उनकी पूजा-पद्धति पूछी, जिसके उत्तरमें इन्हें सम्पूर्ण 'दुर्गासप्तशती' सुनायी गयी और अन्तमें दोनों संसारके विषयोंकी ममता छोड़कर भगवतीकी आराधना करने लगे। नदीके किनारे मृत्तिकाकी मूर्ति बनाकर पुष्प, धूप, दीप आदि षोडशोपचारसे पूजा करते और आहार-विहार नियमित करके बड़ी सावधानीके साथ निरन्तर भगवतीका ही चिन्तन करते। इस तरह तीन वर्ष आराधना करनेपर भगवती साक्षात् उनके सामने प्रकट हुईं और वर माँगनेको कहा। राजा सुरथके मनमें संसारकी वासना थी। इसलिये उन्होंने संसारी भोग ही माँगे परन्तु समाधि वैश्यके मनमें संसारकी किसी वस्तुकी कामना नहीं रह गयी थी। उनकी दुःखरूपता, अनित्यता और असत्यता इनकी समझमें आ चुकी थी। विद्यास्वरूपिणी महामायाको प्रसन्न करके और उन्हें साक्षात् अपने सामने 'वर माँगो' यह कहती हुई पाकर भी उनसे संसारी भोग माँगना इन्हें ठीक न जँचा। इन्होंने भगवतीसे प्रार्थना की कि "देवि! अब ऐसा वर दो कि 'यह मैं हूँ' और 'यह मेरा है' इस प्रकारकी अहंता ममता और आसक्तिको जन्म देनेवाला अज्ञान नष्ट हो जाय और मुझे विशुद्ध ज्ञानकी उपलब्धि हो।" भगवतीने बड़ी प्रसन्नतासे समाधि वैश्यको ज्ञानदान किया और ये स्वरूपस्थित होकर परमात्माको प्राप्त हो गये।



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