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Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 5

भगवद् गीता अध्याय 6 श्लोक 5

उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।6.5।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद

।।6.5।। मनुष्य को अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिये और अपना अध पतन नहीं करना चाहिये क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा (मनुष्य स्वयं) ही आत्मा का (अपना) शत्रु है।।

हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी

।।6.5।। शास्त्र के रूप में गीता का प्रयोजन सत्य का और केवल सत्य का ही प्रतिपादन करना है। यह बात और है कि किसी काल विशेष में लोगों की धारणाएं कुछ अन्य प्रकार की बन गयीं हों परन्तु सत्य के प्रतिपादन में समाज में प्रचलित मान्यताओं का कोई महत्व नहीं होता। यह प्रचलित मान्यता कि किसी बाह्य स्रोत जैसे ईश्वर की कृपा साधक की निरन्तर सहायता करके उसे साधन मार्ग में आगे बढ़ाती है हानिकारक नहीं है परन्तु इस मान्यता के साथ ही स्वयं का पुरुषार्थ भी होना पूर्ण सफलता के लिये आवश्यक है। मनुष्य को आत्मोद्धार अपने द्वारा ही करना चाहिये यह स्पष्ट घोषणा स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण की है। यह कोई यमुना तट पर गोपियों के साथ रासलीला करते हुये आनन्दपूर्ण क्षणों में किया हुआ श्रीकृष्ण का मधुर विनोद नहीं वरन् समरांगण के चरम तनावपूर्ण क्षणों में अर्जुन को किया हुआ आह्वान है और अपने अवतार कार्य की परिपूर्णता भी है। यदि मनुष्य सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति चाहता है तो उसको अपनी सुप्त आन्तरिक शक्तियों को वर्तमान की हीन स्थिति से ऊँचा उठाना होगा और अपने शुद्ध स्वरूप को पहचानना होगा।प्रत्येक मनुष्य के मन में एक आदर्श की कल्पना होती है। यद्यपि बौद्धिक स्तर पर वह उस आदर्श को स्पष्ट देखता है परन्तु दुर्भाग्य से वह आदर्श हमेशा कल्पना में ही बना रहता है और व्यवहारिक जगत् में वास्तविकता का रूप नहीं ले पाता। हो सकता है हम अपनी बुद्धि से यह जानते हों कि हमें क्या होना चाहिये परन्तु व्यवहार में हम अपने ही आदर्श के सर्वथा विपरीत आचरण करते हैं। आदर्शमैं और वास्तविकमैंके बीच की खाई ही मनुष्य के पूर्णत्व से पतन का मापदण्ड है।अधिकांश लोग अपने दोहरे व्यक्तित्व के विषय में अनभिज्ञ ही होते हैं। सामान्यत हम अपने को आदर्श व्यक्ति समझते हैं जबकि वास्तव में हम अनेक दोषों से युक्त रहते हैं किन्तु इसे हम स्वीकार नहीं करते। समाज में हम ऐसे व्यक्ति को भी देखते हैं जो स्वयं अत्यन्त स्वार्थी होते हुए अपने पड़ोसी की अल्पसी स्वार्थपरता की भी कटु आलोचना करता है दर्पण विहीन देश में संभव है कि एक वक्रदृष्टि का पुरुष दूसरे वक्रदृष्टि वाले पुरुष की खिल्ली उड़ाये क्योंकि वह स्वयं नहीं जानता कि उसकी अपनी आंखे एक दूसरे के साथ कौन सा कोण बना रही हैं।ध्यानपूर्वक आत्मनिरीक्षण करने पर ज्ञात होता है कि बौद्धिक स्तर पर हमारा आदर्श एक नैतिक स्नेहपूर्ण और अनुशासित व्यक्ति का होता है जो हम बनना भी चाहते हैं किन्तु मन के भावनात्मक जगत् में हम अपनी ही आसक्तियों राग और द्वेष प्रेम और घृणा काम और क्रोध के विकारों से पीडित होते हैं और फिर हम एक गली के सामान्य कुत्ते के समान व्यवहार करने लगते हैं जो मांसमज्जा रहित शुष्क हड्डी के लिए अपनी ही जाति के कुत्ते के साथ लड़ाईझगड़ा करता रहता है जब तक मनुष्य अपने इस दोहरे व्यक्तित्त्व के प्रति सजग नहीं होता तब तक उसके लिये धर्म का कोई अर्थ या प्रयोजन नहीं होता। आदर्श और वास्तविकता के बीच की खाई को जिसने पहचान लिया और जो स्वयं का उद्धार करना चाहता है उसके लिये जो साधन बताया जाता है उसे धर्म कहते हैं।हमारा मन ही विनाशक है जो हमें विषय सुखों की ओर लुभाकर उनका दास बना देता है। मन ही है जो आदर्श को भुलाकर निम्न प्रवृत्तियों को बढ़ावा देता है। ऐसे ही मन को बुद्धि के नियन्त्रण में लाना है जो आत्मा को व्यक्त करने की सर्वश्रेष्ठ उपाधि है। संक्षेप में जब बुद्धि की विवेक सार्मथ्य के प्रभाव का उपयोग चंचल स्वभाव के विषयाभिमुख मन को संयमित करने में किया जाता है तब वही मन श्रेष्ठ और दिव्य स्वरूप के साथ युक्त हो जाता है। जिस प्रक्रिया के द्वारा इस कार्य को सम्पन्न किया जाता है उसे आध्यात्मिक साधन कहते हैं।आत्मोद्धार का यह कार्य किसी को ठेका देकर नहीं कराया जा सकता प्रत्येक साधक को यह कार्य स्वयं ही करना होगा यह अकेले नितान्त अकेले चलने का मार्ग है।कोई भी गुरु इसका उत्तरदायित्व अपने ऊपर नहीं ले सकता और न कोई शास्त्र इस मुक्ति का वचन दे सकता है पूजा की कोई वेदी अपने आशीर्वाद मात्र से निकृष्ट को उत्कृष्ट नहीं बना सकती। यह सत्य है कि आत्मविकास के मार्ग में गुरु शास्त्र और मन्दिर का अपना स्थान है प्रयोजन है और प्रभाव भी है तथापि अपने अवगुणों एवं मिथ्या धारणाओं से स्वयं को मुक्त करने का मुख्य कार्य तो हमें स्वयं ही करना होगा।अब तक भगवान् ने जो उपचार बताया वह कुछ अंशों में आधुनिक मनोविज्ञान में कहा जाने वाला आत्मनिरीक्षण का मार्ग है जिसमें यह प्रयत्न किया जाता है कि अपने दोषों को समझें मिथ्या का त्याग करें जहाँ तक सम्भव हो सके श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करें आदि। परन्तु यह आंशिक उपचार ही है सम्पूर्ण नहीं।यहाँ श्रीकृष्ण पूर्ण उपचार का वर्णन करते हैं। आत्मनिरीक्षण में निर्दिष्ट साधना को करना मात्र पर्याप्त नहीं है वरन् हमारा प्रयत्न यह होना चाहिये कि आन्तरिक राक्षस के राज्य पर जो कुछ विजय हम पाते हैं उसे सुरक्षित रखें न कि उसे पुन लौटा दें। इस एक ही वाक्य में भगवान् हमें सावधान करते हैं आत्मा का पुन अधपतन न होने दें।इस श्लोक की दूसरी पंक्ति में एक महान् विचार को सुन्दर शैली में व्यक्त किया गया है जिसने व्यासजी को अमर बना दिया है। हम स्वयं ही अपने मित्र हैं और शत्रु भी। कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति अपने जीवन के अनुभवों पर विचार करके उक्त कथन की सत्यता को प्रमाणित कर सकता है। दर्शनशास्त्र की दृष्टि से इसका अभिप्राय गम्भीर है।निम्नस्तर के मन का उत्थान संभव है यदि वह श्रेष्ठ गुणों के प्रभाव मे आने के लिए तत्पर है। जिस मात्रा में वह सहयोग करेगा उसी मात्रा में ही उसका उत्थान भी होगा। चैतन्य आत्मा तो नित्य उपलब्ध है जिससे चेतना पाकर मनुष्य अपना उत्थान अथवा पतन कर सकता है। दोनों विकल्प मनुष्य के समक्ष प्रस्तुत हैं। इनमें से वह किसे चुनता है यह उसकी इच्छा पर निर्भर करता है।यहाँ एक प्रश्न मन में आ सकता है कि कौन सा पुरुष स्वयं का ही मित्र है और कौन सा पुरुष स्वयं का ही शत्रु उत्तर है