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Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 19

भगवद् गीता अध्याय 4 श्लोक 19

यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।4.19।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 4.19)

।।4.19।।जिसके सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भ संकल्प और कामनासे रहित हैं तथा जिसके सम्पूर्ण कर्म ज्ञानरूपी अग्निसे जल गये हैं उसको ज्ञानिजन भी पण्डित (बुद्धिमान्) कहते हैं।

हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद

।।4.19।। जिसके समस्त कार्य कामना और संकल्प से रहित हैं ऐसे उस ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा भस्म हुये कर्मों वाले पुरुष को ज्ञानीजन पण्डित कहते हैं।।

हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी

।।4.19।। व्याख्या   यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः (टिप्पणी प0 245) विषयोंका बारबार चिन्तन होनेसे उनकी बारबार याद आनेसे उन विषयोंमें ये विषय अच्छे हैं काममें आनेवाले हैं जीवनमें उपयोगी हैं और सुख देनेवाले हैं ऐसी सम्यग्बुद्धिका होना संकल्प है और ये विषयपदार्थ हमारे लिये अच्छे नहीं हैं हानिकारक हैं ऐसी बुद्धिका होना विकल्प है। ऐसे संकल्प और विकल्प बुद्धिमें होते रहते हैं। जब विकल्प मिटकर केवल एक संकल्प रह जाता है तब ये विषयपदार्थ हमें मिलने चाहिये ये हमारे होने चाहिये इस तरह अन्तःकरणमें उनको प्राप्त करनेकी जो इच्छा पैदा हो जाती है उसका नाम काम (कामना) है। कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुषमें संकल्प और कामना दोनों ही नहीं रहते अर्थात् उसमें न तो कामनाओंका कारण संकल्प रहता है और न संकल्पोंका कार्य कामना ही रहती है। अतः उसके द्वारा जो भी कर्म होते हैं वे सब संकल्प और कामनासे रहित होते हैं।संकल्प और कामना ये दोनों कर्मके बीज हैं। संकल्प और कामना न रहनेपर कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् कर्म बाँधनेवाले नहीं होते। सिद्ध महापुरुषमें भी संकल्प और कामना न रहनेसे उसके द्वारा होनेवाले कर्म बन्धनकारक नहीं होते। उसके द्वारा लोकसंग्रहार्थ कर्तव्यपरम्परासुरक्षार्थ सम्पूर्ण कर्म होते हुए भी वह उन कर्मोंसे स्वतः सर्वथा निर्लिप्त रहता है।भगवान्ने कहींपर संकल्पोंका (6। 4) कहींपर कामनाओंका (2। 55) और कहींपर संकल्प तथा कामना दोनोंका (6। 24 25) त्याग बताया है। अतः जहाँ केवल संकल्पोंका त्याग बताया गया है वहाँ कामनाओंका और जहाँ केवल कामनाओंका त्याग बताया गया है वहाँ संकल्पोंका त्याग भी समझ लेना चाहिये क्योंकि संकल्प कामनाओंका कारण है और कामना संकल्पोंका कार्य है। तात्पर्य है कि साधकको सम्पूर्ण संकल्पों और कामनाओंका त्याग कर देना चाहिये।मोटरकी चार अवस्थाएँ होती हैं 1 मोटर गैरेजमें खड़ी रहनेपर न इंजन चलता है और न पहिये चलते हैं। 2 मोटर चालू करनेपर इंजन तो चलने लगता है पर पहिये नहीं चलते। 3 मोटरको वहाँसे रवाना करनेपर इंजन भी चलता है और पहिये भी चलते हैं। 4 निरापद ढलवाँ मार्ग आनेपर इंजनको बंद कर देते हैं और पहिये चलते रहते हैं। इसी प्रकार मनुष्यकी भी चार अवस्थाएँ होती हैं 1 न कामना होती है और न कर्म होता है। 2 कामना होती है पर कर्म नहीं होता। 3 कामना भी होती है और कर्म भी होता है। 4 कामना नहीं होती और कर्म होता है।मोटरकी सबसे उत्तम (चौथी) अवस्था यह है कि इंजन न चले और पहिये चलते रहें अर्थात् तेल भी खर्च न हो और रास्ता भी तय हो जाय। इसी तरह मनुष्यकी सबसे उत्तम अवस्था यह है कि कामना न हो और कर्म होते रहें। ऐसी अवस्थावाले मनुष्यको ज्ञानिजन भी पण्डित कहते हैं।समारम्भाः (टिप्पणी प0 246.1) पदका यह भाव है कि कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषके द्वारा हरेक कर्म सुचारुरूपसे साङ्गोपाङ्ग और तत्परतापूर्वक होता है। दूसरा एक भाव यह भी है कि उसके कर्म शास्त्रसम्मत होते हैं। उसके द्वारा करनेयोग्य कर्म ही होते हैं। जिससे किसीका अहित होता हो वह कर्म उससे कभी नहीं होता।सर्वे पदका यह भाव है कि उसके द्वारा होनेवाले सबकेसब कर्म संकल्प और कामनासे रहित होते हैं। कोईसा भी कर्म संकल्पसहित नहीं होता। प्रातः उठनेसे लेकर रातमें सोनेतक शौचस्नान खानापीना पाठपूजा जपचिन्तन ध्यानसमाधि आदि शरीरनिर्वाहसम्बन्धी सम्पूर्ण कर्म संकल्प और कामनासे रहित ही होते हैं।ज्ञानाग्निदग्धकर्माणम् कर्मोंका सम्बन्ध पर(शरीरसंसार) के साथ है स्व(स्वरूप) के साथ नहीं क्योंकि कर्मोंका आरम्भ और अन्त होता है पर स्वरूप सदा ज्योंकात्यों रहता है इस तत्त्वको ठीकठीक जानना ही ज्ञान है। इस ज्ञानरूप अग्निसे सम्पूर्ण कर्म भस्म हो जाते हैं अर्थात् कर्मोंमें फल देनेकी (बाँधनेकी) शक्ति नहीं रहती (गीता 4। 16 32)।वास्तवमें शरीर और क्रिया दोनों संसारसे अभिन्न हैं पर स्वयं सर्वथा भिन्न होता हुआ भी भूलसे इनके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है। जब महापुरुषका अपने कहलानेवाले शरीरके साथ भी कोई सम्बन्ध नहीं रहता तब जैसे संसारमात्रसे सब कर्म होते हैं ऐसे ही उसके कहलानेवाले शरीरसे सब कर्म होते हैं। इस प्रकार कर्मोंसे निर्लिप्तताका अनुभव होनेपर उस महापुरुषके वर्तमान कर्म ही नष्ट नहीं होते प्रत्युत संचित कर्म भी सर्वथा नष्ट हो जाते हैं। प्रारब्धकर्म भी केवल अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितिके रूपमें उसके सामने आकर नष्ट हो जाते हैं परन्तु फलसे असङ्ग होनेके कारण वह उनका भोक्ता नहीं बनता अर्थात् किञ्चिन्मात्र भी सुखी या दुःखी नहीं होता। इसलिये प्रारब्धकर्म भी अस्थायी परिस्थितिमात्र उत्पन्न करके नष्ट हो जाते हैं।तमाहुः पण्डितं बुधाः जो कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके परमात्मामें लगा हुआ है उस मनुष्यको समझना तो सुगम है पर जो कर्मोंसे किञ्चिन्मात्र भी लिप्त हुए बिना तत्परतापूर्वक कर्म कर रहा है उसे समझना कठिन है। सन्तोंकी वाणीमें आया है त्यागी शोभा जगतमें करता है सब कोय। हरिया गृहस्थी संतका भेदी बिरला होय।।तात्पर्य यह है कि संसारमें (बाहरसे त्याग करनेवाले) त्यागी पुरुषकी महिमा तो सब गाते हैं पर गृहस्थमें रहकर सब कर्तव्यकर्म करते हुए भी जो निर्लिप्त रहता है उस (भीतरका त्याग करनेवाले) पुरुषको समझनेवाला कोई बिरला ही होता है।जैसे कमलका पत्ता जलमें ही उत्पन्न होकर और जलमें रहते हुए भी जलसे लिप्त नहीं होता ऐसे ही कर्मयोगी कर्मयोनि(मनुष्यशरीर) में ही उत्पन्न होकर और कर्ममय जगत्में रहकर कर्म करते हुए भी कर्मोंसे लिप्त नहीं होता (टिप्पणी प0 246.2)। कर्मोंसे लिप्त न होना कोई साधारण बुद्धिमानीका काम नहीं है। पीछेके अठारहवें श्लोकमें भगवान्ने ऐसे कर्मयोगीको मनुष्योंमें बुद्धिमान् कहा है और यहाँ कहा है कि उसे ज्ञानिजन भी पण्डित अर्थात् बुद्धिमान् कहते हैं। भाव यह है कि ऐसा कर्मयोगी पण्डितोंका भी पण्डित ज्ञानियोंका भी ज्ञानी है (टिप्पणी प0 246.3)।

हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी

।।4.19।। जिस पुरुष के सभी कर्म कामना और फलों के संकल्प (आसक्ति) से रहित होते हैं वह पुरुष सन्त या आत्मानुभवी कहलाता है। भविष्य में विषयोपभोग के द्वारा सुख पाने की बुद्धि की योजना को कामना कहते हंै। यह योजना बनाना स्वयं की स्वतन्त्रता को सीमित करना ही है। कामना करने का अर्थ है कि परिस्थितियों को अपने अनुकूल होने का आग्रह करना। इस प्रकार प्राप्त परिस्थितियों से सदा असन्तुष्ट रहते हुये भविष्य में उन्हें अनुकूल बनाने के प्रयत्न में हम अपने आप को भ्रमित करके अनेक विघ्नों का सामना करते रहते हैं। कर्म करने की यह पद्धति कर्त्ता के आनन्द और प्रेरणा का हरण कर लेती है।हम इस पर पहले ही विचार कर चुके हैं कि फलासक्ति किस प्रकार हमारी शक्तियों को नष्ट कर देती है। कर्मफल सदैव भविष्य में मिलता है इसलिए उसकी चिन्ता करने का तात्पर्य वर्तमान से पलायन करके अनुत्पन्न भविष्य में जीना है। यह नियम है कि कारणों अर्थात् कर्मों के अनुरूप ही कर्मफल मिलता है अत निश्चित रूप से सफलता पाने का एक मात्र उपाय है वर्तमान काल में पूरी लगन से कार्य करना।यहाँ कहा गया है कि ज्ञानी पुरुष के सब कर्म काम और संकल्प से रहित होते हैं। प्रकरण के सन्दर्भ में इन दो शब्दों को ठीक से समझने की आवश्यकता है क्योंकि केवल शाब्दिक अर्थ लेने से यह कथन अत्यन्त अनुपयुक्त होगा। भगवान् के कथन से कोई यह न समझ ले कि समत्व में स्थित ज्ञानी पुरुष अपने स्फूर्त कर्मों में इष्ट फल पाने के लिए अपनी बुद्धि का उपयोग नहीं करता है। इसका आशय इतना ही है कि वह कर्म करते समय काल्पनिक भय चिन्ता आदि में अपने मन की शक्ति विनष्ट नहीं करता। वेदान्त मनुष्य की बुद्धि की उपेक्षा नहीं करता है। गीता में उपदिष्ट जीवन यापन का मार्ग तो हमें वह साधन प्रदान करता है कि हम अधिकाधिक कुशलतापूर्वक कर्म करके अपनी क्षमताओं का पूर्ण उपयोग करते हुए अपने कार्य क्षेत्र में सर्वोच्च सफलता प्राप्त करें।जो व्यक्ति बुद्धिमत्तापूर्वक जीने और कुशलतापूर्वक काम करने की कला को सीख लेता है वह कर्म करने में ही आनन्द को पाकर उसी में रम जाता है। किसी दिव्य और श्रेष्ठ लक्ष्य के अभाव के कारण ही हमारा मन अनेक चिन्ताओं से ग्रस्त रहता है। ज्ञानी पुरुष का मन दिव्य चैतन्यस्वरूप में स्थित रहने के कारण जगत् में सब प्रकार के कर्म करते हुए भी वह आनन्द का ही अनुभव करता है।ज्ञानी पुरुष की मनस्थिति के वर्णन का प्रयोजन अर्जुन जैसे साधकों के लिए साधन मार्ग का निर्देश करना है। अर्जुन के निमित्त दिया भगवान् श्रीकृष्ण का यह उपदेश सभी कालों के साधकों के लिए भी अनुकरणीय है।यदि हमारा पुत्र चिकित्सक बनना चाहता है तो हम उसे अन्य चिकित्सकों के संघर्ष की कहानी बताते हैं जिससे उत्तम चिकित्सक बनने के लिए आवश्यक गुणों को वह अर्जित कर सके। इसी प्रकार यहाँ ज्ञानी पुरुष के स्वाभाविक लक्षण बताकर भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को साधन मार्ग में प्रवृत्त करते हैं जिससे वह जीवन के लक्ष्य तक पहुँच सके।उपर्युक्त लक्षणों से युक्त ज्ञानी पुरुष समाज के लिए कर्म करता हुआ भी वास्तव में कुछ कर्म नहीं करता है। उसके कर्म अकर्म तुल्य ही हैं क्योंकि ज्ञानाग्नि से उसके कर्म (अर्थात् बन्धन के कारणभूत अहंकार और स्वार्थ) भस्म हो चुके होते हैं यह सात्त्विक स्थिति की चरम सीमा है। भगवान् कहते हैं