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Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 22

भगवद् गीता अध्याय 3 श्लोक 22

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।3.22।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 3.22)

।।3.22।।हे पार्थ मुझे तीनों लोकोंमें न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई प्राप्त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्त है फिर भी मैं कर्तव्यकर्ममें ही लगा रहता हूँ।

हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद

।।3.22।। यद्यपि मुझे त्रैलोक्य में कुछ भी कर्तव्य नहीं हैं तथा किंचित भी प्राप्त होने योग्य (अवाप्तव्यम्) वस्तु अप्राप्त नहीं है तो भी मैं कर्म में ही बर्तता हूँ।।

हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी

।।3.22।। व्याख्या   न मे पार्थास्ति ৷৷. नानवाप्तमवाप्तव्यम् भगवान् किसी एक लोकमें सीमित नहीं है। इसलिये वे तीनों लोकोंमें अपना कोई कर्तव्य न होनेकी बात कह रहे हैं।भगवान्के लिये त्रिलोकीमें कोई भी कर्तव्य शेष नहीं है क्योंकि उनके लिये कुछ भी पाना शेष नहीं है।कुछनकुछ पानेके लिये ही सब (मनुष्य पशु पक्षी आदि) कर्म करते हैं। भगवान् उपर्युक्त पदोंमें बहुत विलक्षण बात कह रहे हैं कि कुछ भी करना और पाना शेष न होनेपर भी मैं कर्म करता हूँअपने लिये कोई कर्तव्य न होनेपर भी भगवान् केवल दूसरोंके हितके लिये अवतार लेते हैं और साधु पुरुषोंका उद्धार पापी पुरुषोंका विनाश तथा धर्मकी संस्थापना करनेके लिये कर्म करते हैं (गीता 4। 8)। अवतारके सिवाय भगवान्की सृष्टिरचना भी जीवमात्रके उद्धारके लिये ही होती है। स्वर्गलोक पुण्यकर्मोंका फल भुगतानेके लिये है और चौरासी लाख योनियाँ एवं नरक पापकर्मोंका फल भुगतानेके लिये हैं। मनुष्ययोनि पुण्य और पाप दोनोंसे ऊँचे उठकर अपना कल्याण करनेके लिये है। ऐसा तभी सम्भव है जब मनुष्य अपने लिये कुछ न करे। वह सम्पूर्ण कर्म स्थूल शरीरसे होनेवाली क्रिया सूक्ष्म शरीरसे होनेवाला चिन्तन और कारण शरीरसे होनेवाली स्थिरता केवल दूसरोंके हितके लिये ही करे अपने लिये नहीं। कारण कि जिनसे सब कर्म किये जाते हैं वे स्थूल सूक्ष्म और कारण तीनों ही शरीर संसारके हैं अपने नहीं। इसलिये कर्मयोगी शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि पदार्थ आदि सम्पूर्ण सामग्रीको (जो वास्तवमें संसारकी ही है) संसारकी ही मानता है और उसे संसारकी सेवामें लगाता है। अगर मनुष्य संसारकी वस्तुको संसारकी सेवामें न लगाकर अपने सुखभोगमें लगाता है तो बड़ी भारी भूल करता है। संसारकी वस्तुको अपनी मान लेनेसे ही फलकी इच्छा होती है और फलप्राप्तिके लिये कर्म होता है। इस तरह जबतक मनुष्य कुछ पानेकी इच्छासे कर्म करता है तबतक उसके लिये कर्तव्य अर्थात् करना शेष रहता है।गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो मालूम होता है कि मनुष्यमात्रका अपने लिये कोई कर्तव्य है ही नहीं। कारण कि प्रापणीय वस्तु (परमात्मतत्त्व) नित्यप्राप्त है और स्वयं (स्वरूप) भी नित्य है जबकि कर्म और कर्मफल अनित्य अर्थात् उत्पन्न एवं नष्ट होनेवाला है। अनित्य(कर्म और फल) का सम्बन्ध नित्य(स्वयं) के साथ हो ही कैसे सकता है कर्मका सम्बन्ध पर (शरीर और संसार) से है स्व से नहीं। कर्म सदैव पर के द्वारा और पर के लिये ही होता है। इसलिये अपने लिये कुछ करना है ही नहीं। जब मनुष्यमात्रके लिये कोई कर्तव्य नहीं है तब भगवान्के लिये कोई कर्तव्य हो ही कैसे सकता हैकर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुषके लिये भगवान्ने इसी अध्यायके सत्रहवेंअठारहवें श्लोकोंमें कहा है कि उस महापुरुषके लिये कोई कर्तव्य नहीं है क्योंकि उसकी रति तृप्ति और संतुष्टि अपनेआपमें ही होती है। इसलिये उसे संसारमें करने अथवा न करनेसे कोई प्रयोजन नहीं रहता तथा उसका किसी भी प्राणीसे किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता। ऐसा होनेपर भी वह महापुरुष लोकसंग्रहार्थ कर्म करता है। इसी प्रकार यहाँ भगवान् अपने लिये कहते हैं कि कोई भी कर्तव्य न होने तथा कुछ भी पाना बाकी न होनेपर भी मैं लोकसंग्रहार्थ कर्म करता हूँ। तात्पर्य है कि तत्त्वज्ञ महापुरुषकी भगवान्के साथ एकता होती है मम साधर्म्यमागताः (गीता 14। 2)। जैसे भगवान् त्रिलोकीमें आदर्श पुरुष हैं (गीता 3। 23 4। 11) ऐसे ही संसारमें तत्त्वज्ञ पुरुष भी आदर्श हैं (गीता 3। 25)।वर्त एव च कर्मणि यहाँ एव पदसे भगवान्का तात्पर्य है कि मैं उत्साह एवं तत्परतासे आलस्यरहित होकर सावधानीपूर्वक साङ्गोपाङ्ग कर्तव्यकर्मोंको करता हूँ। कर्मोंका न त्याग करता हूँ न उपेक्षा।जैसे इंजनके पहियोंके चलनेसे इंजनसे जुड़े हुए डिब्बे भी चलते रहते हैं ऐसे ही भगवान् और सन्तमहापुरुष (जिनमें करने और पानेकी इच्छा नहीं है) इंजनके समान कर्तव्यकर्म करते हैं जिससे अन्यमनुष्य भी उन्हींका अनुसरण करते हैं। अन्य मनुष्योंमें करने और पानेकी इच्छा रहती है। ये इच्छाएँ निष्कामभावपूर्वक कर्तव्यकर्म करनेसे ही दूर होती हैं। यदि भगवान् और सन्तमहापुरुष कर्तव्यकर्म न करें तो दूसरे मनुष्य भी कर्तव्यकर्म नहीं करेंगे जिससे उनमें प्रमादआलस्य आ जायगा और वे अकर्तव्य करने लग जायँगे फिर उन मनुष्योंकी इच्छाएँ कैसे मिटेंगी इसलिये सम्पूर्ण मनुष्योंके हितके लिये भगवान् और सन्तमहापुरुषोंके द्वारा स्वाभाविक ही कर्तव्यकर्म होते हैं।भगवान् सदैव कर्तव्यपरायण रहते हैं कभी कर्तव्यच्युत नहीं होते। अतः भगवत्परायण साधकको भी कभी कर्तव्यच्युत नहीं होना चाहिये। कर्तव्यच्युत होनेसे ही वह भगवत्तत्त्वके अनुभवसे वञ्चित रहता है। नित्य कर्तव्यपरायण रहनेसे साधकको भगवत्तत्त्वका अनुभव सुगमतापूर्वक हो सकता है।

हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी

।।3.22।। पूर्णस्वरूप में स्थित योगेश्वर श्रीकृष्ण को तीनों लोकों में किसी वस्तु की इच्छा नहीं थी। यदि वे चाहते तो अपने स्वयं के लिये राज्य स्थापित कर उसमें सुख से रह सकते थे. परन्तु केवल कर्तव्य पालन का उत्तरदायित्व समझते हुए पाण्डवों के धर्म और न्याय संगत पक्ष का साथ देने के लिए ही वे युद्धभूमि में आये थे।बाल्यकाल से लेकर महाभारत युद्ध के क्षण तक उनका सम्पूर्ण जीवन अनासक्ति का ज्वलन्त उदाहरण हैं। यद्यपि उन्हें जीवन में प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्य नहीं थी तथापि वे सदैव कर्म में ही रत रहे मानो उनके लिए कर्म करना उत्साह और आनन्द से परिपूर्ण एक क्रीडा हो।इसी सन्दर्भ में भगवान कहते हैं