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Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 21

भगवद् गीता अध्याय 2 श्लोक 21

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्।।2.21।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 2.21)

।।2.21।।हे पृथानन्दन जो मनुष्य इस शरीरीको अविनाशी नित्य जन्मरहित और अव्यय जानता है वह कैसे किसको मारे और कैसे किसको मरवाये

हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी

 2.21।। व्याख्या   वेदाविनाशिनम् ৷৷. घातयति हन्ति कम्   इस शरीरीका कभी नाश नहीं होता  इसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता इसका कभी जन्म नहीं होता और इसमें कभी किसी तरहकी कोई कमी नहीं आती ऐसा जो ठीक अनुभव कर लेता है वह पुरुष कैसे किसको मारे और कैसे किसको मरवाये अर्थात् दूसरोंको मारने और मरवानेमें उस पुरुषकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती। वह किसी क्रियाका न तो कर्ता बन सकता है और न कारयिता बन सकता है।यहाँ भगवान्ने शरीरीको अविनाशी नित्य अज और अव्यय कहकर उसमें छहों विकारोंका निषेध किया है जैसे  अविनाशी  कहकर मृत्युरूप विकारका  नित्य  कहकर अवस्थान्तर होना और बढ़नारूप विकारका  अज  कहकर जन्म होना और जन्मके बाद होनेवाली सत्तारूप विकारका तथा  अव्यय  कहकर क्षयरूप विकारका निषेध किया गया है। शरीरीमें किसी भी क्रियासे किञ्चिन्मात्र भी कोई विकार नहीं होता।अगर भगवान्को  न हन्यते हन्यमाने शरीरे  और  कं घातयति हन्ति कम्  इन पदोंमें शरीरीके कर्ता और कर्म बननेका ही निषेध करना था तो फिर यहाँ करनेनकरनेकी बात न कहकर मरनेमारनेकी बात क्यों कही इसका उत्तर है कि युद्धका प्रसङ्ग होनेसे यहाँ यह कहना जरूरी है कि शरीरी युद्धमें मारनेवाला नहीं बनता क्योंकि इसमें कर्तापन नहीं है। जब शरीरी मारनेवाला अर्थात् कर्ता नहीं बन सकता तब यह मरनेवाला अर्थात् क्रियाका विषय (कर्म) भी कैसे बन सकता है। तात्पर्य यह है कि यह शरीरी किसी भी क्रियाका कर्ता और कर्म नहीं बनता। अतः मरनेमारनेमें शोक नहीं करना चाहिये प्रत्युत शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार प्राप्त कर्तव्यकर्मका पालन करना चाहिये। सम्बन्ध   पूर्वश्लोकोंमें देहीकी निर्विकारताका जो वर्णन हुआ है आगेके श्लोकमें उसीका दृष्टान्तरूपसे वर्णन करते हैं।