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Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 62

भगवद् गीता अध्याय 18 श्लोक 62

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।18.62।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 18.62)

।।18.62।।हे भरतवंशोद्भव अर्जुन तू सर्वभावसे उस ईश्वरकी ही शरणमें चला जा। उसकी कृपासे तू परमशान्ति(संसारसे सर्वथा उपरति) को और अविनाशी परमपदको प्राप्त हो जायगा।

हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद

।।18.62।। हे भारत तुम सम्पूर्ण भाव से उसी (ईश्वर) की शरण में जाओ। उसके प्रसाद से तुम परम शान्ति और शाश्वत स्थान को प्राप्त करोगे।।

हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी

।।18.62।। व्याख्या --   [मनुष्यमें प्रायः यह एक कमजोरी रहती है कि जब उसके सामने संतमहापुरुष विद्यमान रहते हैं? तब उसका उनपर श्रद्धाविश्वास एवं महत्त्वबुद्धि नहीं होती (टिप्पणी प0 963) परन्तु जब वे चले जाते हैं? तब पीछे वह रोता है? पश्चात्ताप करता है। ऐसे ही भगवान् अर्जुनके रथके घोड़े हाँकते हैं और उनकी आज्ञाका पालन करते हैं। वे ही भगवान् जब अर्जुनसे कहते हैं कि शरणागत भक्त मेरी कृपासे शाश्वत पदको प्राप्त हो जाता है और तू भी मेरेमें चित्तवाला होकर मेरी कृपासे सम्पूर्ण विघ्नोंको तर जायगा? तब अर्जुन कुछ बोले ही नहीं। इससे यह सम्भावना भी हो सकती है कि भगवान्के वचनोंपर अर्जुनको पूरा विश्वास न हुआ हो। इसी दृष्टिसे भगवान्को यहाँ अर्जुनके लिये अन्तर्यामी ईश्वरकी शरणमें जानेकी बात कहनी पड़ी।]तमेव शरणं गच्छ -- भगवान् कहते हैं कि जो सर्वव्यापक ईश्वर सबके हृदयमें विराजमान है और सबका संचालक है? तू उसीकी शरणमें चला जा। तात्पर्य है कि सांसारिक उत्पत्तिविनाशशील पदार्थ? वस्तु? व्यक्ति? घटना परिस्थिति आदि किसीका किञ्चिन्मात्र भी आश्रय न लेकर केवल अविनाशी परमात्माका ही आश्रय ले ले।पूर्वश्लोकमें यह कहा गया कि मनुष्य जबतक शरीररूपी यन्त्रके साथ मैंमेरापनका सम्बन्ध रखता है तबतक ईश्वर अपनी मायासे उसको घुमाता रहता है। अब यहाँ एव पदसे उसका निषेध करते हुए भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि शरीररूपी यन्त्रके साथ किञ्चिन्मात्र भी मैंमेरापनका सम्बन्ध न रखकर तू केवल उस ईश्वरकी शरणमें चला जा।सर्वभावेन -- सर्वभावसे शरणमें जानेका तात्पर्य यह हुआ कि मनसे उसी परमात्माका चिन्तन हो? शारीरिक क्रियाओंसे उसीका पूजन हो? उसीका प्रेमपूर्वक भजन हो और उसके प्रत्येक विधानमें परम प्रसन्नता हो। वह विधान चाहे शरीर? इन्द्रियाँ? मन आदिके अनुकूल हो? चाहे प्रतिकूल हो? उसे भगवान्का ही किया हुआ मानकर खूब प्रसन्न हो जाय कि अहो भगवान्की मेरेपर कितनी कृपा है कि मेरेसे बिना पूछे ही? मेरे मन? बुद्धि आदिके विपरीत जानते हुए भी केवल मेरे हितकी भावनासे? मेरा परम कल्याण करनेके लिये उन्होंने ऐसा विधान किया हैतत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् -- भगवान्ने पहले यह कह दिया था कि मेरी कृपासे शाश्वत पदकी प्राप्ति हो जाती है (18। 56) और मेरी कृपासे तू सम्पूर्ण विघ्नोंसे तर जायगा (18। 58)। वही बात यहाँ कहते हैं कि उस अन्तर्यामी परमात्माकी कृपासे तू परमशान्ति और शाश्वत स्थान(पद)को प्राप्त कर लेगा।गीतामें अविनाशी परमपदको हीपरा शान्ति नामसे कहा गया है। परन्तु यहाँ भवगान्नेपरा शान्ति औरशाश्वत स्थान (परमपद) -- दोनोंका प्रयोग एक साथ किया है। अतः यहाँपरा शान्ति का अर्थ संसारसे सर्वथा उपरति औरशाश्वत स्थान का अर्थ परमपद लेना चाहिये।भगवान्ने तमेव शरणं गच्छ पदोंसे अर्जुनको सर्वव्यापी ईश्वरकी शरणमें जानेके लिये कहा है। इससे यह शङ्का हो सकती है कि क्या भगवान् श्रीकृष्ण ईश्वर नहीं हैं क्योंकि अगर भगवान् श्रीकृष्ण ईश्वर होते? तो अर्जुनकोउसीकी शरणमें जा -- ऐसा (परोक्ष रीतिसे) नहीं कहते।इसका समाधान यह है कि भगवान्ने सर्वव्यापक ईश्वरकी शरणागतिको तो गुह्याद्गुह्यतरम् (18। 63) अर्थात् गुह्यसे गुह्यतर कहा है? पर अपनी शरणागतिको सर्वगुह्यतमम् (18। 64) अर्थात् सबसे गुह्यतम कहा है। इससे सर्वव्यापक ईश्वरकी अपेक्षा भगवान् श्रीकृष्ण बड़े ही सिद्ध हुए।भगवान्ने पहले कहा है कि मैं अजन्मा? अविनाशी और सम्पूर्ण प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतिको अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ (4। 6) मैं सम्पूर्ण यज्ञों और तपोंका भोक्ता हूँ? सम्पूर्ण लोकोंका महान् ईश्वर हूँ और सम्पूर्ण प्राणियोंका सुहृद हूँ -- ऐसा मुझे माननेसे शान्तिकी प्राप्ति होती है (5। 29) परन्तु जो मुझे सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और सबका मालिक नहीं मानते? उनका पतन होता है (9। 24)। इस प्रकार अन्वयव्यतिरेकसे भी भगवान् श्रीकृष्णका ईश्वरत्व सिद्धि हो जाता है।इस अध्यायमें ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति (18। 61) पदोंसे अन्तर्यामी ईश्वरको सब प्राणियोंके हृदयमें स्थित बताया है और पंद्रहवें अध्यायमें सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टः (15। 15) पदोंसे अपनेको सबके हृदयमें स्थित बताया है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि अन्तर्यामी परमात्मा और भगवान् श्रीकृष्ण दो नहीं हैं?,एक ही हैं।जब अन्तर्यामी परमात्मा और भगवान् श्रीकृष्ण एक ही हैं? तो फिर भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनको तमेंव शरणं गच्छ क्यों कहा इसका कारण यह है कि पहले छप्पनवें श्लोकमें भगवान्ने अपनी कृपासे शाश्वत अविनाशी पदकी प्राप्ति होनेकी बात कही और सत्तावनवेंअट्ठावनवें श्लोकोंमें अर्जुनको अपने परायण होनेकी आज्ञा देकरमेरी कृपासे सम्पूर्ण विघ्नोंको तर जायगा -- यह बात कही। परन्तु अर्जुन कुछ बोले नहीं अर्थात् उन्होंने कुछ भी स्वीकार नहीं किया। इसपर भगवान्ने अर्जुनको धमकाया कि यदि अहंकारके कारण तू मेरी बात नहीं सुनेगा तो तेरा पतन हो जायगा। उनसठवें और साठवें श्लोकमें कहा कि मैं युद्ध नहीं करूँगा -- इस प्रकार अहंकारका आश्रय लेकर किया हुआ तेरा निश्चय भी नहीं टिकेगा और तुझे स्वभावज कर्मोंके परवश होकर युद्ध करना ही पड़ेगा। भगवान्के इतना कहनेपर भी अर्जुन कुछ बोले नहीं। अतः अन्तमें भगवान्को यह कहना पड़ा कि यदि तू मेरी शरणमें नहीं आना चाहता तो सबके हृदयमें स्थित जो अन्तर्यामी परमात्मा हैं? उसीकी शरणमें तू चला जा।वास्तवमें अन्तर्यामी ईश्वर और भगवान् श्रीकृष्ण सर्वथा अभिन्न हैं अर्थात् सबके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे विराजमान ईश्वर ही भगवान् श्रीकृष्ण हैं और भगवान् श्रीकृष्ण ही सबके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे विराजमान ईश्वर हैं। सम्बन्ध --   पूर्वश्लोकमें भगवान्ने अर्जुनसे कहा कि तू उस अन्तर्यामी ईश्वरकी शरणमें चला जा। ऐसा कहनेपर भी अर्जुन कुछ नहीं बोले। इसलिये भगवान् आगेके श्लोकमें अर्जुनको चेतानेके लिये उन्हें स्वतन्त्रता प्रदान करते हैं।

हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी

।।18.62।। ईशावास्योपनिषद् के प्रथम मन्त्र का भावार्थ यह है कि यह सम्पूर्ण जगत् ईश्वर से व्याप्त है। इसलिए? नामरूपों के भेद से दृष्टि हटाकर अनन्त परमात्मा का आनन्दानुभव करो किसी के धन का लोभ मत करो। गीतादर्शन का सारतत्त्व भी यही है। अहंकार का त्याग करके अपने कर्त्तव्य करो यह तो मानो गीता का मूल मंत्र ही है। आत्मा और अनात्मा के मिथ्या सम्बन्ध से ही कर्तृत्वाभिमानी जीव की उत्पत्ति होती है। यह जीव ही संसार के दुखों को भोगता रहता है। अत? इससे अपनी मुक्ति के लिए अहंकार का परित्याग करना चाहिए। यहाँ प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि अहंकार का त्याग कैसे करें इसके उत्तर में ईश्वरार्पण की भावना का वर्णन किया गया है। पूर्वश्लोक में ही ईश्वर के स्वरूप को दर्शाया गया है। इसलिए? अब? भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं? तुम उसी हृदयस्थ ईश्वर की शरण में जाओ।शरण में जाने का अर्थ है अभिमान एवं फलासक्ति का त्याग करके? कर्माध्यक्षकर्मफलदाता ईश्वर का सतत स्मरण करते हुए कर्म करना। इसके फलस्वरूप चित्त की शुद्धि प्राप्त होगी? जो आत्मज्ञान में सहायक होगी। आत्मज्ञान की दृष्टि से शरण का अर्थ होगा समस्त अनात्म उपाधियों के तादात्म्य को त्यागकर आत्मस्वरूप ईश्वर के साथ एकत्व का अनुभव करना। यह शरणागति अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व के साथ ही हो सकती है (सर्वभावेन)? अधूरे हृदय से नहीं। राधा? हनुमान और प्रह्लाद जैसे भक्त इसके उदाहरण हैं।चित्त की शुद्धि और आत्मानुभूति ही ईश्वर की कृपा अथवा प्रसाद है। जिस मात्रा में? अनात्मा के साथ हमारा तादात्म्य निवृत्त होगा? उसी मात्रा में हमें ईश्वर का यह प्रसाद प्राप्त होगा।भारत भरतवंश में जन्म लेने के कारण अर्जुन का नाम भारत था। शब्द व्युत्पत्ति के अनुसार इसका अर्थ है वह पुरुष जो भा अर्थात् प्रकाश (ज्ञान) में रत है। आध्यात्मिक ज्ञान के प्रकाश में रमने वाले ऋषियों के कारण ही यह देश भारत कहा गया है।प्रकरण का उपसंहार करते हुए भगवान् कहते हैं