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Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 18

भगवद् गीता अध्याय 18 श्लोक 18

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः।।18.18।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 18.18)

।।18.18।।ज्ञान? ज्ञेय और परिज्ञाता -- इन तीनोंसे कर्मप्रेरणा होती है तथा करण? कर्म और कर्ता -- इन तीनोंसे कर्मसंग्रह होता है।

हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी

।।18.18।। व्याख्या --   [इसी अध्यायके चौदहवें श्लोकमें भगवान्ने कर्मोंके बननेमें पाँच हेतु बताये -- अधिष्ठान? कर्ता? करण? चेष्टा और दैव (संस्कार)। इन पाँचोंमें भी मूल हेतु है -- कर्ता। इसी मूल हेतुको मिटानेके लिये भगवान्ने सोलहवें श्लोकमें कर्तृत्वभाव रखनेवालेकी बड़ी निन्दा की और सत्रहवें श्लोकमें कर्तृत्वभाव न रखनेवालेकी बड़ी प्रशंसा की। कर्तृत्वभाव बिलकुल न रहे? यह साफसाफ समझानेके लिये ही अठारहवाँ श्लोक कहा गया है।]ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना -- ज्ञान? ज्ञेय और परिज्ञाता -- इन तीनोंसे कर्मप्रेरणा होती है। ज्ञान को सबसे पहले कहनेमें यह भाव है कि हरेक मनुष्यकी कोई भी प्रवृत्ति होती है तो प्रवृत्तिसे पहले ज्ञान होता है। जैसे? जल पीनेकी प्रवृत्तिसे पहले प्यासका ज्ञान होता है? फिर वह जलसे प्यास बुझाता है। जल आदि जिस विषयका ज्ञान होता है? वह ज्ञेय कहलाता है और जिसको ज्ञान होता है? वह परिज्ञाता कहलाता है। ज्ञान? ज्ञेय और परिज्ञाता -- तीनों होनेसे ही कर्म करनेकी प्रेरणा होती है। यदि इन तीनोंमेंसे एक भी न हो तो कर्म करनेकी प्रेरणा नहीं होती।परिज्ञाता उसको कहते हैं? जो परितः ज्ञाता है अर्थात् जो सब तरहकी क्रियाओंकी स्फुरणाका ज्ञाता है। वह केवल ज्ञाता मात्र है अर्थात् उसे क्रियाओंकी स्फुरणामात्रका ज्ञान होता है? उसमें अपने लिये कुछ चाहनेका अथवा उस क्रियाको करनेका अभिमान आदि बिलकुल नहीं होता।कोई भी क्रिया करनेकी स्फुरणा एक व्यक्तिविशेषमें ही होती है। इसलिये शब्द? स्पर्श? रूप? रस और गन्ध -- इन विषयोंको लेकर सुननेवाला? स्पर्श करनेवाला? देखनेवाला? चखनेवाला और सूँघनेवाला -- इस तरह अनेक कर्ता हो सकते हैं परन्तु उन सबको जाननेवाला एक ही रहता है? उसे ही यहाँ,परिज्ञाता कहा है।करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः -- कर्मसंग्रहके तीन हेतु हैं -- करण? कर्म तथा कर्ता। इन तीनोंके,सहयोगसे कर्म पूरा होता है। जिन साधनोंसे कर्ता कर्म करता है? उन क्रिया करनेके साधनों(इन्द्रियों आदि)को करण कहते हैं। खानापीना? उठनाबैठना? चलनाफिरना? आनाजाना आदि जो चेष्टाएँ की जाती हैं? उनको कर्म कहते हैं। करण और क्रियासे अपना सम्बन्ध जोड़कर कर्म करनेवालेको कर्ता कहते हैं। इस प्रकार इन तीनोंके मिलनेसे ही कर्म बनता है।भगवान्को यहाँ खास बात यह बतानी है कि कर्मसंग्रह कैसे होता है अर्थात् कर्म बाँधनेवाला कैसे होता है कर्म बननेके तीन हेतु बताते हुए भगवान्का लक्ष्य मूल हेतु कर्ता को बतानेमें है क्योंकि कर्मसंग्रहका खास सम्बन्ध कर्तासे है। यदि कर्तापन न हो तो कर्मसंग्रह नहीं होता? केवल क्रियामात्र होती है।कर्मसंग्रहमें करण हेतु नहीं है क्योंकि करण कर्ताके अधीन होता है। कर्ता जैसा कर्म करना चाहता है? वैसा ही कर्म होता है? इसलिये कर्म भी कर्मसंग्रहमें खास हेतु नहीं है। सांख्यसिद्धान्तके अनुसार खास बाँधनेवाला है -- अहंकृतभाव और इसीसे कर्मसंग्रह होता है। अहंकृतभाव न रहनेसे कर्मसंग्रह नहीं होता अर्थात् कर्म फलजनक नहीं होता। इस मूलका ज्ञान करानेके लिये ही भगवान्ने करण और कर्मको पहले रखकर कर्ताको कर्मसंग्रहके पासमें रखा है? जिससे यह खयालमें आ जाय कि बाँधनेवाला कर्ता ही है। सम्बन्ध --   गुणातीत होनेके उद्देश्यसे अब आगेके श्लोकसे त्रिगुणात्मक पदार्थोंका प्रकरण आरम्भ करते हैं।