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Bhagavad Gita Chapter 14 Verse 23

भगवद् गीता अध्याय 14 श्लोक 23

उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते।।14.23।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 14.23)

।।14.23।।जो उदासीनकी तरह स्थित है और जो गुणोंके द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता तथा गुण ही (गुणोंमें) बरत रहे हैं -- इस भावसे जो अपने स्वरूपमें ही स्थित रहता है और स्वयं कोई भी चेष्टा नहीं करता।

हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी

।।14.23।।  व्याख्या --   उदासीनवदासीनः -- दो व्यक्ति परस्पर विवाद करते हों? तो उन दोनोंमेंसे किसी एकका पक्ष लेनेवाला पक्षपाती कहलाता है और दोनोंका न्याय करनेवाला मध्यस्थ कहलाता है। परन्तु जो उन दोनोंको देखता तो है? पर न तो किसीका पक्ष लेता है और न किसीसे कुछ कहता ही है? वह उदासीन कहलाता है। ऐसे ही संसार और परमात्मा -- दोनोंको देखनेसे गुणातीत मनुष्य उदासीनकी तरह दीखता है।वास्तवमें देखा जाय तो संसारकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं। सत्स्वरूप परमात्माकी सत्तासे ही संसार सत्तावाला दीख रहा है। अतः जब गुणातीत मनुष्यकी दृष्टिमें संसारकी सत्ता है ही नहीं? केवल एक परमात्माकी सत्ता ही है? तो फिर वह उदासीन किससे हो परन्तु जिनकी दृष्टिमें संसार और परमात्माकी सत्ता है? ऐसे लोगोंकी दृष्टिमें वह गुणातीत मनुष्य उदासीनकी तरह दीखता है।गुणैर्यो न विचाल्यते -- उसके कहलानेवाले अन्तःकरणमें सत्त्व? रज? और तम -- इन गुणोंकी वृत्तियाँ तो आती हैं? पर वह इनसे विचलित नहीं होता। तात्पर्य है कि जैसे अपने सिवाय दूसरोंके अन्तःकरणमें गुणोंकी वृत्तियाँ आनेपर अपनेमें कुछ भी फरक नहीं पड़ता? ऐसे ही उसके कहलानेवाले अन्तःकरणमें गुणोंकी वृत्तियाँ आनेपर उसमें कुछ भी फरक नहीं पड़ता अर्थात् वह उन वृत्तियोंके द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता। कारण कि उसके कहे जानेवाले अन्तःकरणमें अन्तःकरणसहित सम्पूर्ण संसारका अत्यन्त अभाव एवं परमात्मतत्त्वका भाव निरन्तर स्वतःस्वाभाविक जाग्रत् रहता है।गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति -- गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं (गीता 3। 28) अर्थात् गुणोंमें ही सम्पूर्ण क्रियाएँ हो रही हैं -- ऐसा समझकर वह अपने स्वरूपमें निर्विकाररूपसे स्थित रहता है।न इङ्गते -- पहले गुणा वर्तन्त इत्येव पदोंसे उसका गुणोंके साथ सम्बन्धका निषेध किया? अब न ईङ्गते पदोंसे उसमें क्रियाओँका अभाव बताते हैं। तात्पर्य है कि गुणातीत पुरुष खुद कुछ भी चेष्टा नहीं करता। कारण कि अविनाशी शुद्ध स्वरूपमें कभी कोई क्रिया होती ही नहीं।[बाईसवें और तेईसवें -- इन दो श्लोकोंमें भगवान्ने गुणातीत महापुरुषकी तटस्थता? निर्लिप्तताका वर्णन किया है।] सम्बन्ध --   इक्कीसवें श्लोकमें अर्जुनने दूसरे प्रश्नके रूपमें गुणातीत मनुष्यके आचरण पूछे थे। उसका उत्तर अब आगेके दो श्लोकोंमें देते हैं।