Bhagavad Gita Chapter 9 Verse 20 भगवद् गीता अध्याय 9 श्लोक 20 त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते। ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्।।9.20।। हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 9.20) ।।9.20।।वेदत्रयीमें कहे हुए सकाम अनुष्ठानको करनेवाले और सोमरसको पीनेवाले जो पापरहित मनुष्य यज्ञोंके द्वारा इन्द्ररूपसे मेरा पूजन करके स्वर्गप्राप्तिकी प्रार्थना करते हैं? वे पुण्यके फलस्वरूप इन्द्रलोकको प्राप्त करके वहाँ स्वर्गमें देवताओंके दिव्य भोगोंको भोगते हैं। हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।9.20।। तीनों वेदों के ज्ञाता (वेदोक्त सकाम कर्म करने वाले)? सोमपान करने वाले एवं पापों से पवित्र हुए पुरुष मुझे यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग प्राप्ति चाहते हैं वे पुरुष अपने पुण्यों के फलरूप इन्द्रलोक को प्राप्त कर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोग भोगते हैं।। हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी ।।9.20।। व्याख्या --  त्रैविद्याः मां सोमपाः ৷৷. दिव्यान्दिवि देवभागान् -- संसारके मनुष्य प्रायः यहाँके भोगोंमें ही लगे रहते हैं। उनमें जो भी विशेष बुद्धिमान् कहलाते हैं? उनके हृदयमें भी उत्पत्तिविनाशशील वस्तुओंका महत्त्व रहनेके कारण जब वे ऋक्? साम और यजुः -- इन तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंका तथा उनके फलका वर्णन सुनते हैं? तब वे (वेदोंमें आस्तिकभाव होनेके कारण) यहाँके भोगोंकी इतनी परवाह न करके स्वर्गके भोगोंके लिये ललचा उठते हैं और स्वर्गप्राप्तिके लिये वेदोंमें कहे हुए यज्ञोंके अनुष्ठानमें लग जाते हैं। ऐसे मनुष्योंके लिये ही यहाँ त्रैविद्याः पद आया है।सोमलता अथवा सोमवल्ली नामकी एक लता होती है। उसके विषयमें शास्त्रमें आता है कि जैसे शुक्लपक्षमें प्रतिदिन चन्द्रमाकी एकएक कला बढ़तेबढ़ते पूर्णिमाको कलाएँ पूर्ण हो जाती हैं और कृष्णपक्षमें प्रतिदिन एकएक कला क्षीण होतेहोते अमावस्याको कलाएँ सर्वथा क्षीण हो जाती हैं? ऐसे ही उस सोमलताका भी शुक्लपक्षमें प्रतिदिन एकएक पत्ता निकलतेनिकलते पूर्णिमातक पंद्रह पत्ते निकल आते हैं और कृष्णपक्षमें प्रतिदिन एकएक पत्ता गिरतेगिरते अमावस्यातक पूरे पत्ते गिर जाते हैं (टिप्पणी प0 506)। उस सोमलताके रसको सोमरस कहते हैं। यज्ञ करनेवाले उस सोमरसको वैदिक मन्त्रोंके द्वारा अभिमन्त्रित करके पीते हैं? इसलिये उनको सोमपाः कहा गया है।वेदोंमें वर्णित यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाले और वेदमन्त्रोंसे अभिमन्त्रित सोमरसको पीनेवाले मनुष्योंके स्वर्गके प्रतिबन्धक पाप नष्ट हो जाते हैं। इसलिये उनको पूतपापाः कहा गया है।भगवान्ने पूर्वश्लोकमें कहा है कि सत्असत् सब कुछ मैं ही हूँ? तो इन्द्र भी भगवत्स्वरूप ही हुए। अतः यहाँ माम् पदसे इन्द्रको ही लेना चाहिये क्योंकि सकाम यज्ञका अनुष्ठान करनेवाले मनुष्य स्वर्गप्राप्तिकी इच्छासे स्वर्गके अधिपति इन्द्रका ही पूजन करते हैं और इन्द्रसे ही स्वर्गप्राप्तिकी प्रार्थना करते हैं।स्वर्गप्राप्तिकी इच्छासे स्वर्गके अधिपति इन्द्रकी स्तुति करना और उस इन्द्रसे स्वर्गलोककी याचना करना -- इन दोनोंका नाम प्रार्थना है। वैदिक और पौराणिक विधिविधानसे किये गये सकाम यज्ञोंके द्वारा इन्द्रका पूजन करने और प्रार्थना करनेके फलस्वरूप वे लोग स्वर्गमें जाकर देवताओंके दिव्य भोगोंको भोगते हैं। वे दिव्य भोग मनुष्यलोकके भोगोंकी अपेक्षा बहुत विलक्षण हैं। वहाँ वे दिव्य शब्द? स्पर्श? रूप? रस और गंध -- इन पाँचों विषयोंका भोग (अनुभव) करते हैं। इनके सिवाय दिव्य नन्दनवन आदिमें घूमना? सुखआराम लेना? आदरसत्कार पाना? महिमा पाना आदि भोगोंको भी भोगते हैं। हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।9.20।। च्ड्ढड्ढ क्दृथ्र्थ्र्ड्ढदद्यठ्ठद्धन्र् द्वदड्डड्ढद्ध 9.21