Bhagavad Gita Chapter 9 Verse 11 भगवद् गीता अध्याय 9 श्लोक 11 अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्। परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।9.11।। हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 9.11) ।।9.11।।मूर्खलोग मेरे सम्पूर्ण प्राणियोंके महान् ईश्वररूप परमभावको न जानते हुए मुझे मनुष्यशरीरके आश्रित मानकर अर्थात् साधारण मनुष्य मानकर मेरी अवज्ञा करते हैं। हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।9.11।। समस्त भूतों के महान् ईश्वर रूप मेरे परम भाव को नहीं जानते हुए मूढ़ लोग मनुष्य शरीरधारी मुझ परमात्मा का अनादर करते हैं।। हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी ।।9.11।। व्याख्या --  परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् -- जिसकी सत्तास्फूर्ति पाकर प्रकृति अनन्त ब्रह्माण्डोंकी रचना करती है? चरअचर? स्थावरजङ्गम प्राणियोंको पैदा करती है जो प्रकृति और उसके कार्यमात्रका संचालक? प्रवर्तक? शासक और संरक्षक है जिसकी इच्छाके बिना वृक्षका पत्ता भी नहीं हिलता प्राणी अपने कर्मोंके अनुसार जिनजिन लोकोंमें जाते हैं? उनउन लोकोंमें प्राणियोंपर शासन करनेवाले जितने देवता हैं? उनका भी जो ईश्वर (मालिक) है और जो सबको जाननेवाला है -- ऐसा वह मेरा भूतमहेश्वररूप सर्वोत्कृष्ट भाव (स्वरूप) है।परं भावम् कहनेका तात्पर्य है कि मेरे सर्वोत्कृष्ट प्रभावको अर्थात् करनेमें? न करनेमें और उलटफेर करनेमें जो सर्वथा स्वतन्त्र है जो कर्म? क्लेश? विपाक आदि किसी भी विकारसे कभी आबद्ध नहीं है जो क्षरसे अतीत और अक्षरसे भी उत्तम है तथा वेदों और शास्त्रोंमें पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध है (गीता 15। 18) -- ऐसे मेरे परमभावको मूढ़लोग नहीं जानते? इसीसे वे मेरेको मनुष्यजैसा मानकर मेरी अविज्ञा करते हैं।मानुषी तनुमाश्रितम् -- भगवान्को मनुष्य मानना क्या है जैसे साधारण मनुष्य अपनेको शरीर? कुटुम्बपरिवार? धनसम्पत्ति? पदअधिकार आदिके आश्रित मानते हैं अर्थात् शरीर? कुटुम्ब आदिकी इज्जतप्रतिष्ठाको अपनी इज्जतप्रतिष्ठा मानते हैं उन पदार्थोंके मिलनेसे अपनेको बड़ा मानते हैं और उनके न मिलनेसे अपनेको छोटा मानते हैं और जैसे साधारण प्राणी पहले प्रकट नहीं थे? बीचमें प्रकट हो जाते हैं तथा अन्तमें पुनः अप्रकट हो जाते हैं (गीता 2। 28)? ऐसे ही वे मेरेको साधारण मनुष्य मानते हैं। वे मेरेको मनुष्यशरीरके परवश मानते हैं अर्थात् जैसे साधारण मनुष्य होते हैं? ऐसे ही साधारण मनुष्य कृष्ण हैं -- ऐसा मानते हैं। ,भगवान् शरीरके आश्रित नहीं होते। शरीरके आश्रित तो वे ही होते हैं? जिनको कर्मफलभोगके लिये पूर्वकृत कर्मोंके अनुसार शरीर मिलता है। परन्तु भगवान्का मानवीय शरीर कर्मजन्य नहीं होता। वे अपनी इच्छासे ही प्रकट होते हैं -- इच्छयाऽऽत्तवपुषः (श्रीमद्भा0 10। 33। 35) और स्वतन्त्रतापूर्वक मत्स्य? कच्छप? वराह आदि अवतार लेते हैं। इसलिये उनको न तो कर्मबन्धन होता है और न वे शरीरके आश्रित होते हैं? प्रत्युत शरीर उनके आश्रित होता है -- प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवामि (गीता 4। 6) अर्थात् वे प्रकृतिको अधिकृत करके प्रकट होते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि सामान्य प्राणी तो प्रकृतिके परवश होकर जन्म लेते हैं तथा प्रकृतिके आश्रित होकर ही कर्म करते हैं? पर भगवान् स्वेच्छासे? स्वतन्त्रतासे अवतार लेते हैं और प्रकृति भी उनकी अध्यक्षतामें काम करती है।मूढ़लोग मेरे अवतारके तत्त्वको न जानकर मेरेको मनुष्यशरीरके आश्रित (शरण) मानते हैं अर्थात् उनको होना तो चाहिये मेरे शरण? पर मानते हैं मेरेको मनुष्यशरीरके शरण तो वे मेरे शरण कैसे होंगे हो ही नहीं सकते। यही बात भगवान्ने सातवें अध्यायमें कही है कि बुद्धिहीन लोग मेरे अजअविनाशी परमभावको न जानते हुए मेरेको साधारण मनुष्य मानते हैं (7। 24 -- 25)। इसलिये वे मेरे शरण न होकर देवताओंके शरण होते हैं (7। 20)।अवजानन्ति मां (टिप्पणी प0 498) मूढाः -- जिसकी अध्यक्षतामें प्रकृति अनन्त ब्रह्माण्डोंको उत्पन्न और लीन करती है? जिसकी सत्तास्फूर्तिसे संसारमें सब कुछ हो रहा है और जिसने कृपा करके अपनी प्राप्तिके लिये मनुष्यशरीर दिया है -- ऐसे मुझ सत्यतत्त्वकी मूढ़लोग अवहेलना करते हैं। वे मेरेको न मानकर उत्पत्तिविनाशशील पदार्थोंको ही सत्य मानकर उनका संग्रह करने और भोग भोगनेमें ही लगे रहते हैं -- यही मेरी अवज्ञा? अवहेलना करना है। सम्बन्ध --  अब भगवान् आगेके श्लोकमें अपनी अवज्ञाका फल बताते हैं। हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।9.11।। सातवें अध्याय में ब्रह्म की परा और अपरा प्रकृति का वर्णन करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण ने यह घोषित किया था कि मूढ़ लोग? मेरे अव्यय और परम भाव को नहीं जानते हैं और परमार्थत अव्यक्तस्वरूप मुझको व्यक्त मानते हैं।इस अध्याय में स्वयं को सबकी आत्मा बताते हुए श्रीकृष्ण पुन उसी कठोर शब्द मूढ़ का प्रयोग उन लोगों की निन्दा के लिए करते हैं? जो तत्त्व को छोड़कर केवल रूप को ही पकड़े रहते हैं। मेरे परम स्वरूप को नहीं जानते हुए मूढ़ लोग मुझे किसी देह विशेष में ही स्थित मानते हैं प्रतिमा को ही भगवान् मानना या गुरु के शरीर को ही अनन्त परमात्मा समझना उसी प्रकार की त्रुटि या विपरीत ज्ञान है? जैसे घट को ही उसमें निहित वस्तु मान लेना है। मूर्ति तो उस इन्द्रिय अगोचर सूक्ष्म सत्य का मात्र प्रतीक है। भूखे या प्यासे होने पर केवल दूध की बोतल से खेलने से ही ताजगी अनुभव नहीं होती वास्तव में भूखे होने पर थाली पर चम्मच बजाने से कोई सन्तोष नहीं मिलता। प्रतीक को ही ध्येय समझने का अर्थ है साधन को ही साध्य मानने की गलती करना। ऐसी विपरीत धारणायें धार्मिक कट्टरता एवं असहिष्णुता को जन्म देती हैं जो लोगों में शत्रुता और ईर्ष्या के बीज बोती हैं। इन बीजों से? समय आने पर? केवल विपत्ति और नाश की फसल ही प्राप्त होती है यह सब कुछ विभिन्न धर्मावलम्बियों के अपनेअपने पाषाण के देवता? काष्ठ के बने प्रतीक और पीपल के बने भगवान् के नाम पर होता है खादी का तिरंगा कपड़ा राष्ट्रध्वज हो सकता है? परन्तु वह स्वयं मेरी मातृभूमि नहीं है परन्तु जब ध्वजारोहण के समय मैं अपना शीश झुकाता हूँ तो राष्ट्र के प्रति अपना सम्मान व्यक्त करता हूँ वह ध्वज मेरे राष्ट्र की संस्कृति एवं महत्वाकांक्षाओं का पवित्र प्रतीक है।इस सिद्धांत को ध्यान में रखकर इस श्लोक का अध्ययन करने पर वह अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है। भगवान् कहते हैं कि साधारण भक्तजन मुझे भूतमात्र के महेश्वर के रूप में नहीं जानते हैं और मनुष्य शरीर धारण करने पर मेरा अनादर करते हैं।क्यों ये मूढ़ लोग आत्मा का सम्यक् परिचय प्राप्त करने में असमर्थ होते हैं उत्तर में कहते हैं --