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Bhagavad Gita Chapter 9 Verse 1

भगवद् गीता अध्याय 9 श्लोक 1

श्री भगवानुवाच
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।9.1।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 9.1)

।।9.1।।श्रीभगवान् बोले -- यह अत्यन्त गोपनीय विज्ञानसहित ज्ञान दोषदृष्टिरहित तेरे लिये मैं फिर अच्छी तरहसे कहूँगा? जिसको जानकर तू अशुभसे अर्थात् जन्ममरणरूप संसारसे मुक्त हो जायगा।

हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी

।।9.1।। व्याख्या --  इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे -- भगवान्के मनमें जिस तत्त्वको? विषयको कहनेकी इच्छा है? उसकी तरफ लक्ष्य करानेके लिये ही यहाँ भगवान् सबसे पहले इदम् (यह) शब्दका प्रयोग करते हैं। उस (भगवान्के मनबुद्धिमें स्थित) तत्त्वकी महिमा कहनेके लिये ही उसको गुह्यतमम् कहा है अर्थात् वह तत्त्व अत्यन्त गोपनीय है। इसीको आगेके श्लोकमें राजगुह्यम् और अठारहवें अध्यायके चौंसठवें श्लोकमें सर्वगुह्यतमम् कहा है।यहाँ पहले गुह्यतमम् कहकर पीछे (गीता 9। 34 में) मन्मना भव ৷৷. कहा है और अठारहवें अध्यायमें पहले सर्वगुह्यतमम् कहकर पीछे (गीता 18। 65 में) मन्मना भव ৷৷. कहा है। तात्पर्य है कि यहाँका और वहाँका विषय एक ही है? दो नहीं।यह अत्यन्त गोपनीय तत्त्व हरेकके सामने नहीं कहा जा सकता क्योंकि इसमें भगवान्ने खुद अपनी महिमाका वर्णन किया है। जिसके अन्तःकरणमें भगवान्के प्रति थोड़ी भी दोषदृष्टि है? उसको ऐसी गोपनीय बात कही जाय? तो वह भगवान् आत्मश्लाघी हैं -- अपनी प्रशंसा करनेवाले हैं ऐसा उलटा अर्थ ले सकता है। इसी बातको लेकर भगवान् अर्जुनके लिये अनसूयवे विशेषण देकर कहते हैं कि भैया तू दोषदृष्टिरहित है? इसलिये मैं तेरे सामने अत्यन्त गोपनीय बातको फिर अच्छी तरहसे कहूँगा अर्थात् उस तत्त्वको भी कहूँगा और उसके उपायोंको भी कहूँगा -- प्रवक्ष्यामि।प्रवक्ष्यामि पदका दूसरा भाव है कि मैं उस बातको विलक्षण रीतिसे और साफसाफ कहूँगा अर्थात् मात्र मनुष्य मेरे शरण होनेके अधिकारी हैं। चाहे कोई दुराचारीसेदुराचारी? पापीसेपापी क्यों न हो तथा किसी वर्णका? किसी आश्रमका? किसी सम्प्रदायका? किसी देशका? किसी वेशका? कोई भी क्यों न हो? वह भी मेरे शरण होकर मेरी प्राप्ति कर लेता है -- यह बात मैं विशेषतासे कहूँगा।सातवें अध्यायमें भगवान्के मनमें जितनी बातें कहनेकी आ रही थीं? उतनी बातें वे नहीं कह सके। इसलिये भगवान् यहाँ तु पद देते हैं कि उसी विषयको मैं फिर कहूँगा।ज्ञानं विज्ञानसहितम् -- भगवान् इस सम्पूर्ण जगत्के महाकारण हैं -- ऐसा दृढ़तासे मानना ज्ञान है और भगवान्के सिवाय दूसरा कोई (कार्यकारण) तत्त्व नहीं है -- ऐसा अनुभव होना विज्ञान है। इस विज्ञानसहित ज्ञानके लिये ही इस श्लोकके पूर्वार्धमें इदम् और गुह्यतमम् -- ये दो विशेषण आये हैं।ज्ञान और विज्ञानसम्बन्धी विशेष बातइस ज्ञानविज्ञानको जानकर तू अशुभ संसारसे मुक्त हो जायगा। यह ज्ञानविज्ञान ही राजविद्या? राजगुह्य आदि है। इस धर्मपर जो श्रद्धा नहीं करते? इसपर विश्वास नहीं करते? इसको मानते नहीं? वे मौतरूपी संसारके रास्तेमें पड़ जाते हैं और बारबार जन्मतेमरते रहते हैं (9। 1 -- 3) -- ऐसा कहकर भगवान्ने ज्ञान बताया। अव्यक्तमूर्ति मेरेसे ही यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है अर्थात् सब कुछ मैंहीमैं हूँ दूसरा कोई है ही नहीं (9। 4 -- 6) -- ऐसा कहकर भगवान्ने विज्ञान बताया।प्रकृतिके परवश हुए सम्पूर्ण प्राणी महाप्रलयमें मेरी प्रकृतिको प्राप्त हो जाते हैं और महासर्गके आदिमें मैं फिर उनकी रचना करता हूँ। परन्तु वे कर्म मेरेको बाँधते नहीं। उनमें मैं उदासीनकी तरह अनासक्त रहता हूँ। मेरी अध्यक्षतामें प्रकृति सम्पूर्ण प्राणियोंकी रचना करती है। मेरे परम भावको न जानते हुए मूढ़लोग मेरी अवहेलना करते हैं। राक्षसी? आसुरी और मोहिनी प्रकृतिका आश्रय लेनेवालोंकी आशा? कर्म? ज्ञान सब व्यर्थ हैं। महात्मालोग दैवी प्रकृतिका आश्रय लेकर और मेरेको सम्पूर्ण प्राणियोंका आदि मानकर मेरा भजन करते हैं। मेरेको नमस्कार करते हैं। कई ज्ञानयज्ञके द्वारा एकीभावसे मेरी उपासना करते हैं आदिआदि (9। 7 -- 15) -- ऐसा कहकर भगवान्ने ज्ञान बताया। मैं ही क्रतु? यज्ञ? स्वधा? औषध आदि हूँ और सत्असत् भी मैं ही हूँ अर्थात् कार्यकारणरूपसे जो कुछ है? वह सब मैं ही हूँ (9। 16 -- 19) -- ऐसा कहकर,विज्ञान बताया।जो यज्ञ करके स्वर्गमें जाते हैं? वे वहाँपर सुख भोगते हैं और पुण्य समाप्त होनेपर फिर लौटकर मृत्युलोकमें आते हैं। अनन्यभावसे मेरा चिन्तन करनेवालेका योगक्षेम मैं स्वयं वहन करता हूँ। श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओंका पूजन करनेवाले वास्तवमें मेरा ही पूजन करते हैं? पर करते हैं अविधिपूर्वक। जो मुझे सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और स्वामी नहीं मानते? उनका पतन हो जाता है। जो श्रद्धाप्रेमपूर्वक पत्र? पुष्प आदिको तथा सम्पूर्ण क्रियाओंको मेरे अर्पण करते हैं? वे शुभअशुभ कर्मोंसे मुक्त हो जाते हैं (9। 20 -- 28) -- ऐसा कहकर भगवान्ने ज्ञान बताया। मैं सम्पूर्ण भूतोंमें सम हूँ। मेरा कोई प्रेम या द्वेषका पात्र नहीं है। परन्तु जो मेरा भजन करते हैं वे मेरेमें और मैं उनमें हूँ (9। 29) -- ऐसा कहकर विज्ञान बताया। इसके आगेके पाँच श्लोक (9। 30 -- 34) इस विज्ञानकी व्याख्यामें ही कहे गये हैं (टिप्पणी प0 484)।यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् -- असत्के साथ सम्बन्ध जोड़ना ही अशुभ है? कि जो ऊँचनीच योनियोंमें जन्म लेनेका कारण है। असत्(संसार) के साथ अपना सम्बन्ध केवल माना हुआ है? वास्तविक नहीं है। जिसके साथ वास्तविक सम्बन्ध नहीं होता? उसीसे मुक्ति होती है। अपने स्वरूपसे कभी किसीकी मुक्ति नहीं होती। अतः मुक्ति उसीसे होती है? जो अपना नहीं है किन्तु जिसको भूलसे अपना मान लिया है। इस भूलजनित मान्यतासे ही मुक्ति होती है। भूलजनित मान्यताको न माननेमात्रसे ही उससे मुक्ति हो जाती है। जैसे? कपड़ेमें मैल लग जानेपर उसको साफ किया जाता है? तो मैल छूट जाता है। कारण कि मैल आगन्तुक है और मैलकी अपेक्षा कपड़ा पहलेसे है अर्थात् मैल और कपड़ा दो हैं? एक नहीं। ऐसे ही भगवान्का अविनाशी अंश यह जीव भगवान्से विमुख होकर जिस किसी योनिमें जाता है? वहींपर मैंमेरापन करके शरीरसंसारके साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है अर्थात् मैल चढ़ा लेता है और जन्मतामरता रहता है। जब यह अपने स्वरूपको जान लेता है अथवा भगवान्के सम्मुख हो जाता है? तब यह अशुभ सम्बन्धसे मुक्त हो जाता है अर्थात् उसका संसारसे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है। इसी भावको लेकर भगवान् यहाँ अर्जुनसे कहते हैं कि इस तत्त्वको जानकर तू अशुभसे मुक्त हो जायगा। सम्बन्ध --  पूर्वश्लोकमें विज्ञानसहित ज्ञान कहनेकी प्रतिज्ञा करके उसका परिणाम अशुभसे मुक्त होना बताया। अब आगेके श्लोकमें उसी विज्ञानसहित ज्ञानकी महिमाका वर्णन करते हैं।