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Bhagavad Gita Chapter 8 Verse 24

भगवद् गीता अध्याय 8 श्लोक 24

अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः।।8.24।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 8.24)

।।8.24।।जिस मार्गमें प्रकाशस्वरूप अग्निका अधिपति देवता दिनका अधिपति देवता शुक्लपक्षका अधिपति देवता और छः महीनोंवाले उत्तरायणका अधिपति देवता है शरीर छोड़कर उस मार्गसे गये हुए ब्रह्मवेत्ता पुरुष (पहले ब्रह्मलोकको प्राप्त होकर पीछे ब्रह्माजीके साथ) ब्रह्मको प्राप्त हो जाते हैं।

हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद

।।8.24।। जो ब्रह्मविद् साधकजन मरणोपरान्त अग्नि ज्योति दिन शुक्लपक्ष और उत्तरायण के छः मास वाले मार्ग से जाते हैं वे ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।।

हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी

।।8.24।। व्याख्या --   अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् -- इस भूमण्डलपर शुक्लमार्गमें सबसे पहले अग्निदेवताका अधिकार रहता है। अग्नि रात्रिमें प्रकाश करती है दिनमें नहीं क्योंकि दिनके प्रकाशकी अपेक्षा अग्निका प्रकाश सीमित है। अतः अग्निका प्रकाश थोड़ी दूरतक (थोड़े देशमें) तथा थोड़े समयतक रहता है और दिनका प्रकाश बहुत दूरतक तथा बहुत समयतक रहता है।शुक्लपक्ष पंद्रह दिनोंका होता है जो कि पितरोंकी एक रात है। इस शुक्लपक्षका प्रकाश आकाशमें बहुत दूरतक और बहुत दिनोंतक रहता है। इसी तरहसे जब सूर्य भगवान् उत्तरकी तरफ चलते हैं तब उसको उत्तरायण कहते हैं जिसमें दिनका समय बढ़ता है। वह उत्तरायण छः महीनोंका होता है जो कि देवताओंका एक दिन है। उस उत्तरायण प्रकाश बहुत दूरतक और बहुत समयतक रहता है।तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः -- जो शुक्लमार्गमें अर्थात् प्रकाशकी बहुलतावाले मार्गमें जानेवाले हैं वे सबसे पहले ज्योतिःस्वरूप अग्निदेवताके अधिकारमें आते हैं। जहाँतक अग्निदेवताका अधिकार है वहाँसे पार कराकर अग्निदेवता उन जीवोंको दिनके देवताको सौंप देता है। दिनका देवता उन जीवोंको अपने अधिकारतक ले जाकर शुक्लपक्षके अधिपति देवताके समर्पित कर देता है। वह शुक्लपक्षका अधिपति देवता अपनी सीमाको पार कराकर उन जीवोंको उत्तरायणके अधिपति देवताके सुपुर्द कर देता है। फिर वह उत्तरायणका अधिपति देवता उनको ब्रह्मलोकके अधिकारी देवताके समर्पित कर देता है। इस प्रकार वे क्रमपूर्वक ब्रह्मलोकमें पहुँच जाते हैं। ब्रह्माजीकी आयुतक वे वहाँ रहकर महाप्रलयमें ब्रह्माजीके साथ ही मुक्त हो जाते हैं -- सच्चिदानन्दघन परमात्माको प्राप्त हो जाते हैं।यहाँ ब्रह्मविदः पद परमात्माको परोक्षरूपसे जाननेवाले मनुष्योंका वाचक है अपरोक्षरूपसे अनुभव करनेवाले,ब्रह्मज्ञानियोंका नहीं। कारण कि अगर वे अपरोक्ष ब्रह्मज्ञानी होते तो यहाँ ही मुक्त (सद्योमुक्त या जीवन्मुक्त) हो जाते और उनको ब्रह्मलोकमें जाना नहीं पड़ता। सम्बन्ध --   अब आगेके श्लोकमें कृष्णमार्गका अर्थात् लौटकर आनेवालोंके मार्गका वर्णन करते हैं।

हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी

।।8.24।। इस श्लोक में क्रममुक्ति के मार्ग को दर्शाया गया है। वेदप्रतिपादित कर्म एवं उपासना के समुच्चय अर्थात् दोनों का साथसाथ अनुष्ठान करने वाले साधक और उसी प्रकार जिन लोगों को वर्तमान जीवन में ही ब्रह्म का साक्षात् अनुभव न हुआ हो ऐसे ब्रह्म के उपासक इस क्रममुक्ति के अधिकारी होते हैं। उपनिषदों के अनुसार ये साधक जन देह त्याग के पश्चात् देवयान (देवताओं के मार्ग) के द्वारा ब्रह्मलोक अर्थात् सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी के लोक में प्रवेश करते हैं। वहाँ कल्प की समाप्ति तक दिव्य अलौकिक विषयों के आनन्द का अनुभव करके प्रलय के समय ब्रह्माजी के साथ वे सर्वथा मुक्त हो जाते हैं। उपनिषदों में प्रयुक्त शब्दों का उपयोग कर भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ देवयान को इंगित करते हैं। ऋषि प्रतिपादित तत्त्व ज्ञान के जिज्ञासुओं के लिये अध्यात्म दृष्टि से यह श्लोक विशेष अर्थपूर्ण है।अग्नि ज्योति दिन शुक्लपक्ष उत्तरायण के षण्मास ये सब सूर्य के द्वारा अधिष्ठित देवयान को सूचित करते हैं। प्रश्नोपनिषद् में परम सत्य की सृष्टि से उत्पत्ति का वर्णन करते हुए इन मार्गों को स्पष्ट रूप से बताया गया है। वहाँ गुरु बताते हैं कि सृष्टिकर्ता प्रजापति स्वयं सूर्य और चन्द्र बन गये। आकाश में दृश्यमान सूर्य और चन्द्र क्रमशः चेतन और जड़ तत्त्व के प्रतीक स्वरूप हैं।चेतन तत्त्व के साथ तादात्म्य स्थापित करके जो सत्य का उपासक अपना जीवन जीता है वह मरण के समय भी जीवन पर्यन्त की गई उपासना के उपास्य (ध्येय) का ही चिन्तन और स्मरण करता है स्वाभाविक है कि ऐसा उपासक अपने उपास्य के लोक को प्राप्त होगा क्योंकि वृत्ति के अनुरूप व्यक्ति बनता है। सम्पूर्ण जीवन काल में रचनात्मक दैवी एवं विकासशील विचारों का ही चिन्तन करते रहने पर मनुष्य निश्चित ही वर्तमान शरीर का त्याग करने पर विकास के मार्ग पर ही अग्रसर होगा। इस मार्ग को अग्नि ज्योति दिन आदि शब्दों से लक्षित किया गया है। इस प्रकार उपनिषदों की अपनी विशिष्ट भाषा में ब्रह्म के उपासकों की मुक्ति का मार्ग उत्तरायण कहलाता है। क्रममुक्ति को बताने के लिए ऋषियों द्वारा प्रायः प्रयोग किये जाने वाले इस शब्द उत्तरायण में उपर्युक्त सभी अभिप्राय समाविष्ट हैं।इस मार्ग के विपरीत वह मार्ग जिसे प्राप्त करने पर पुनः संसार को लौटना पड़ता है उसका वर्णन करते हुए भगवान् कहते हैं --