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Bhagavad Gita Chapter 7 Verse 21

भगवद् गीता अध्याय 7 श्लोक 21

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।।7.21।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 7.21)

।।7.21।।(टिप्पणी प0 430) जोजो भक्त जिसजिस देवताका श्रद्धापूर्वक पूजन करना चाहता है उसउस देवताके प्रति मैं उसकी श्रद्धाको दृढ़ कर देता हूँ।

हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी

।।7.21।। व्याख्या    यो यो यां यां तनुं भक्तः ৷৷. तामेव विदधाम्यहम्   जोजो मनुष्य जिसजिस देवताका भक्त होकर श्रद्धापूर्वक यजनपूजन करना चाहता है उसउस मनुष्यकी श्रद्धा उसउस देवताके प्रति मैं अचल (दृढ़) कर देता हूँ। वे दूसरोंमें न लगकर मेरेमें ही लग जायँ ऐसा मैं नहीं करता। यद्यपि उनउन देवताओंमें लगनेसे कामनाके कारण उनका कल्याण नहीं होता फिर भी मैं उनको उनमें लगा देता हूँ तो जो मेरेमें श्रद्धाप्रेम रखते हैं अपना कल्याण करना चाहते हैं उनकी श्रद्धाको मैं अपने प्रति दृढ़ कैसे नहीं करूँगा अर्थात् अवश्य करूँगा। कारण कि मैं प्राणिमात्रका सुहृद् हूँ सुहृदं सर्वभूतानाम् (गीता 5। 29)।इसपर यह शङ्का होती है कि आप सबकी श्रद्धा अपनेमें ही दृढ़ क्यों नहीं करते इसपर भगवान् मानो यह कहते हैं कि अगर मैं सबकी श्रद्धाको अपने प्रति दृढ़ करूँ तो मनुष्यजन्मकी स्वतन्त्रता सार्थकता ही कहाँ रही तथा मेरी स्वार्थपरताका त्याग कहाँ हुआ अगर लोगोंको अपनेमें ही लगानेका मेरा आग्रह रहे तो यह कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि ऐसा बर्ताव तो दुनियाके सभी स्वार्थी जीवोंका स्वाभाविक होता है। अतः मैं इस स्वार्थपरताको मिटाकर ऐसा स्वभाव सिखाना चाहता हूँ कि कोई भी मनुष्य पक्षपात करके दूसरोंसे केवल अपनी पूजाप्रतिष्ठा करवानेमें ही न लगा रहे और किसीको पराधीन न बनाये।अब दूसरी शङ्का यह होती है कि आप उनकी श्रद्धाको उन देवताओंके प्रति दृढ़ कर देते हैं इससे आपकी साधुता तो सिद्ध हो गयी पर उन जीवोंका तो आपसे विमुख होनेसे अहित ही हुआ इसका समाधान यह है कि अगर मैं उनकी श्रद्धाको दूसरोंसे हटाकर अपनेमें लगानेका भाव रखूँगा तो उनकी मेरेमें अश्रद्धा हो जायगी। परन्तु अगर मैं अपनेमें लगानेका भाव नहीं रखूँगा और उनको स्वतन्त्रता दूँगा तो उस स्वतन्त्रताको पानेवालोंमें जो बुद्धिमान् होंगे वे मेरे इस बर्तावको देखकर मेरी तरफ ही आकृष्ट होंगे। अतः उनके उद्धारका यही तरीका बढ़िया है।अब तीसरी शङ्का यह होती है कि जब आप स्वयं उनकी श्रद्धाको दूसरोंमें दृढ़ कर देते हैं तो फिर उस श्रद्धाको कोई मिटा ही नहीं सकता। फिर तो उसका पतन ही होता चला जायगा इसका समाधान यह है कि मैं उनकी श्रद्धाको देवताओंके प्रति ही दृढ़ करता हूँ दूसरोंके प्रति नहीं ऐसी बात नहीं है। मैं तो उनकी इच्छाके अनुसार ही उनकी श्रद्धाको दृढ़ करता हूँ और अपनी इच्छाको बदलनेमें मनुष्य स्वतन्त्र है योग्य है। इच्छाको बदलनेमें वे परवश निर्बल और अयोग्य नहीं हैं। अगर इच्छाको बदलनेमें वे परवश होते तो फिर मनुष्यजन्मकी महिमा ही कहाँ रही और इच्छा (कामना) का त्याग करनेकी आज्ञा भी मैं कैसे दे सकता था जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् (गीता 3। 43)