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Bhagavad Gita Chapter 7 Verse 20

भगवद् गीता अध्याय 7 श्लोक 20

कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया।।7.20।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद

।।7.20।। भोगविशेष की कामना से जिनका ज्ञान हर लिया गया है ऐसे पुरुष अपने स्वभाव से प्रेरित हुए अन्य देवताओं को विशिष्ट नियम का पालन करते हुए भजते हैं।।

हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी

।।7.20।। विवेक सार्मथ्य मानव जन्म की विशेषता है और यह सर्वथा असंभव है कि विवेक के प्रखर और सजग होने पर मनुष्य को आत्मज्ञान न हो सके। परन्तु मन की बहिर्मुखी प्रवृत्तियां और विषयभोग की कामनायें उसके विवेक को आच्छादित कर देती हैं।देवता शब्द के अनेक अर्थ हैं जैसे प्रकृति के नियमों के अधिष्ठाता देवता इन्द्र वरुण आदि इन्द्रियां किसी कार्य क्षेत्र में निहित उत्पादन क्षमता आदि। यहाँ इनमें से कोई भी अर्थ लेकर इस श्लोक का अध्ययन करने पर यही ज्ञात होता है कि भोगी पुरुष इनकी आराधना केवल वैषयिक सुख को प्राप्त करने के लिए ही करता है। वह कामना से प्रेरित होकर तत्पूर्ति के लिए अनेक प्रकार के प्रयत्न करता रहता है।शान्त मन में आत्मा का प्रतिबिम्ब स्पष्ट और स्थिर दिखाई देता है परन्तु कामनाओं के स्रोतों से प्रवाहित होने वाली विचारों की धारायें उसमें विक्षेप उत्पन्न करके प्रतिबिम्ब को भी विचलित कर देती हैं। मन के क्षुब्ध होने पर बुद्धि की विवेक सार्मथ्य लुप्त हो जाती है और स्वभावत फिर मनुष्य सत्य असत्य का विवेक नहीं कर पाता है। जब मनुष्य की बुद्धि का आलोक कामना के मेघों से आवृत हो जाता है तब आसक्तियों और अवगुणों के उलूक मन के जंगल में शोर मचाने लगते हैं।मन में इच्छा के उदय मात्र से मनुष्य का पतन नहीं होता बल्कि पतन का कारण है उत्पन्न इच्छा के साथ उसका तादात्म्य। इस तादात्म्य के द्वारा मनुष्य अनजाने में अपनी इच्छाओं को बढ़ावा देकर असंख्य विक्षेपों को जन्म देता हुआ स्वयं उनका शिकार बन जाता है।अन्न के सूक्ष्म तत्त्व का ही रूप वृत्ति (विचार) है और इसलिए वह स्वयं जड़ है। वृत्तिरूप मन आत्मा से चेतनता प्राप्त करता है और कामी व्यक्ति से सार्मथ्य। विचारों के अनुसार कर्म होता है। एक बार मनुष्य के मन में कोई कामना दृढ़ हो जाये तो वह यह विवेक खो देता है कि उस कामनापूर्ति से उसे नित्य शाश्वत सुख मिलेगा या नहीं। क्षणिक सुख की आसक्ति के कारण वह अन्यान्य देवताओं को सन्तुष्ट करने में व्यस्त रहता है।अब यह भी सर्वविदित तथ्य है कि प्रत्येक देवता को सन्तुष्ट करने के विशेष नियम होते हैं। इन्द्रादि देवताओं को यज्ञयागादि के द्वारा इन्द्रियों के शब्दादि विषयों के द्वारा तथा कार्यक्षेत्र की उत्पादन क्षमता को व्यक्त करने के लिए उचित उपकरणों और उनके योग्य उपयोग के द्वारा सन्तुष्ट करके इष्ट फल प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए यहाँ कहा गया है कि वे अन्यान्य देवताओं को विशिष्ट नियमों का पालन करके भजते हैं।एक वासुदेव को त्यागकर लोग अन्य देवताओं को क्यों भजते हैं इसका कारण श्लोक की दूसरी पंक्ति में बताया गया है कि प्रकृत्या नियत स्वया। प्रत्येक मनुष्य अपनी पूर्व संचित वासनाओं के अनुसार भिन्नभिन्न विषयों की ओर आकर्षित होकर तदनुसार कर्म करता है। यह धारणा कि स्वर्ग में बैठा कोई ईश्वर हमारे मन में इच्छाओं को उत्पन्न कराकर हमें पाप और पुण्य के कर्मों में प्रवृत्त करता है केवल निराशावादी निर्बल और आलसी लोगों की ही हो सकती है। बुद्धिमान साहसी और उत्साही पुरुष जानते हैं कि मनुष्य स्वयं ही अपने विचारों के अनुसार अपने वातावरण कार्यक्षेत्र आदि का निर्माण करता है।संक्षेप में एक मूढ़ पुरुष शाश्वत सुख की आशा में वैषयिक क्षणिक सुखों की मृगमरीचिका के पीछे दौड़ता रहता है जबकि विवेकी पुरुष उसकी व्यर्थता पहचान कर पारमार्थिक सत्य के मार्ग पर अग्रसर होता है।भगवान् आगे कहते हैं