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Bhagavad Gita Chapter 7 Verse 13

भगवद् गीता अध्याय 7 श्लोक 13

त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्।।7.13।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 7.13)

।।7.13।।इन तीनों गुणरूप भावोंसे मोहित यह सब जगत् इन गुणोंसे पर अविनाशी मेरेको नहीं जानता।

हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद

।।7.13।। त्रिगुणों से उत्पन्न इन भावों (विकारों) से सम्पूर्ण जगत् (लोग) मोहित हुआ इन (गुणों) से परे अव्यय स्वरूप मुझे नहीं जानता है।।

हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी

।।7.13।। व्याख्या  त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः ৷৷. परमव्ययम् सत्त्व रज और तम तीनों गुणोंकी वृत्तियाँ उत्पन्न और लीन होती रहती हैं। उनके साथ तादात्म्य करके मनुष्य अपनेको सात्त्विक राजस और तामस मान लेता है अर्थात् उनका अपनेमें आरोप कर लेता है कि मैं सात्त्विक राजस और तामस हो गया हूँ। इस प्रकार तीनों गुणोंसे मोहित मनुष्य ऐसा मान ही नहीं सकता कि मैं परमात्माका अंश हूँ। वह अपने अंशी परमात्माकी तरफ न देखकर उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वृत्तियोंके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है यही उसका मोहित होना है। इस प्रकार मोहित होनेके कारण वह मेरा परमात्माके साथ नित्यसम्बन्ध है इसको समझ ही नहीं सकता।यहाँ जगत् शब्द जीवात्माका वाचक है। निरन्तर परिवर्तनशील शरीरके साथ तादात्म्य होनेके कारण ही यह जीव जगत् नामसे कहा जाता है। तात्पर्य है कि शरीरके जन्मनेमें अपना जन्मना शरीरके मरनेमें अपना मरना शरीरके बीमार होनेमें अपना बीमार होना और शरीरके स्वस्थ होनेमें अपना स्वस्थ होना मान लेता है इसीसे यह जगत् नामसे कहा जाता है। जबतक यह शरीरके साथ अपना तादात्म्य मानेगा तबतक यह जगत् ही रहेगा अर्थात् जन्मतामरता ही रहेगा कहीं भी स्थायी नहीं रहेगा।गुणोंकी भगवान्के सिवाय अलग सत्ता माननेसे ही प्राणी मोहित होते हैं। अगर वे गुणोंको भगवत्स्वरूप मानें तो कभी मोहित हो ही नहीं सकते।तीनों गुणोंका कार्य जो शरीर है उस शरीरको चाहे अपना मान लें चाहे अपनेको शरीर मान लें दोनों ही मान्यताओंसे मोह पैदा होता है। शरीरको अपना मानना ममता हुई और अपनेको शरीर मानना अहंता हुई। शरीरके साथ अहंताममता करना ही मोहित होना है। मोहित हो जानेसे गुणोंसे सर्वथा अतीत जो भगवत्तत्त्व है उसको नहीं जान सकता। यह उस भगवत्तत्त्वको तभी जान सकता है जब त्रिगुणात्मक शरीरके साथ इसकी अहंताममता मिट जाती है। यह सिद्धान्त है कि मनुष्य संसारसे सर्वथा अलग होनेपर ही संसारको जान सकता है और परमात्मासे सर्वथा अभिन्न होनेपर भी परमात्माको जान सकता है। कारण इसका यह है कि त्रिगुणात्मक शरीरसे यह स्वयं सर्वथा भिन्न है और परमात्माके साथ यह स्वयं सर्वथा अभिन्न है।अस्वाभाविकमें स्वाभाविक भाव होना ही मोहित होना है। जो प्रतिक्षण नष्ट होनेवाले तीनों गुणोंसे परे हैं अत्यन्त निर्लिप्त हैं और नित्यनिरन्तर एकरूप रहनेवाले हैं ऐसे परमात्मा स्वाभाविक हैं। परमात्माकी यह स्वाभाविकता बनायी हुई नहीं है कृत्रिम नहीं है अभ्याससाध्य नहीं है प्रत्युत स्वतःस्वाभाविक है। परंतुशरीर तथा संसारमें अहंताममता अर्थात् मैं और मेराभाव उत्पन्न हुआ है एवं नष्ट होनेवाला है यह केवल माना हुआ है इसलिये यह अस्वाभाविक है। इस अस्वाभाविकको स्वाभाविक मान लेना ही मोहित होना है जिसके कारण मनुष्य स्वाभाविकताको समझ नहीं सकता।जीव पहले परमात्मासे विमुख हुआ या पहले संसारके सम्मुख (गुणोंसे मोहित) हुआ इसमें दार्शनिकोंका मत यह है कि परमात्मासे विमुख होना और संसारसे सम्बन्ध जोड़ना ये दोनों अनादि हैं इनका आदि नहीं है। अतः इनमें पहले या पीछेकी बात नहीं कही जा सकती। परन्तु मनुष्य यदि मिली हुई स्वतन्त्रताका दुरुपयोग न करे उसे केवल भगवान्में ही लगाना शुरू कर दे तो यह संसारसे ऊपर उठ जाता है अर्थात् इसका जन्ममरण मिट जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि यह मनुष्य प्रभुकी दी हुई स्वतन्त्रताका दुरुपयोग करके ही बन्धनमें पड़ा है। अपनी स्वतन्त्रताका दुरुपयोग करके नष्ट होनेवाले पदार्थोंमें उलझ जानेसे यह परमात्मतत्त्वको जान नहीं सकता।परमव्ययम् पदसे भगवान् कहते हैं कि मैं इन गुणोंसे पर हूँ अर्थात् इन गुणोंसे सर्वथा रहित असम्बद्ध निर्लिप्त हूँ। मैं न कभी किसी गुणसे बँधा हुआ हूँ और न गुणोंके परिवर्तनसे मेरेमें कोई परिवर्तन ही होता है। ऐसे मेरे वास्तविक स्वरूपको गुणोंसे मोहित प्राणी नहीं जान सकते। सम्बन्ध  अब आगेके श्लोकमें भगवान् अपनेको न जान सकनेमें हेतु बताते हैं।

हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी

।।7.13।। प्रश्न यह है कि यदि त्रिगुणों से परे कोई परम अव्यय तत्त्व है तो सामान्य मनुष्य उसे क्यों नहीं जान पाता है पूर्ण साक्षात्कार न भी सहज हो तब भी कम से कम उसके अस्तित्व के विषय में तो उसे शंका नहीं होनी चाहिए इसका उत्तर इस श्लोक में दिया गया है।त्रिगुणों से उत्पन्न राग द्वेषादि विकारों के कारण मनुष्य अपने दिव्य स्वरूप को भूलकर उपाधियों के साथ तादात्म्य स्थापित करके केवल विषयोपभोग का ही जीवन जीते हैं। स्वाभाविक है कि इस आसक्ति के कारण स्वस्वरूप की ओर इनका ध्यान तक नहीं जाता। एक बार स्तम्भ में प्रेत का आभास होने पर वह स्तम्भ उससे आच्छादित हो जाता है। यह एक तथ्य है कि जब तक यह आभास बना रहता है तब तक स्तम्भ का एक इञ्च भाग भी मोहित व्यक्ति को नहीं दिखाई देता इसी प्रकार माया से उत्पन्न उपाधियों के साथ तादात्म्य के कारण आत्मा को मानो जीवभाव प्राप्त हो जाता है। यह जीव बाह्य जगत् में व्यस्त और आसक्त होकर अपने शुद्ध स्वरूप को पहचानने में स्वयं को असमर्थ पाता है। स्वयं में स्वयं के साथ स्वयं का चल रहा लुकाछिपी का यह खेल विचित्र एवं रहस्यमय है जिसके कारण यह अपने लिए और जगत् के लिए अनन्त दुख और विक्षेप उत्पन्न करता रहता है।अगले श्लोक में इस आवरण शक्ति की परिभाषा का वर्णन किया गया है