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Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 42

भगवद् गीता अध्याय 6 श्लोक 42

अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्।।6.42।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 6.42)

।।6.42।।अथवा (वैराग्यवान्) योगभ्रष्ट ज्ञानवान् योगियोंके कुलमें ही जन्म लेता है। इस प्रकारका जो यह जन्म है यह संसारमें बहुत ही दुर्लभ है।

हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद

।।6.42।। अथवा (साधक) ज्ञानवान् योगियों के ही कुल में जन्म लेता है परन्तु इस प्रकार का जन्म इस लोक में निसंदेह अति दुर्लभ है।।

हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी

।।6.42।। व्याख्या  साधन करनेवाले दो तरहके होते हैं वासनासहित और वासनारहित। जिसको साधन अच्छा लगता है जिसकी साधनमें रुचि हो जाती है और जो परमात्माकी प्राप्तिका उद्देश्य बनाकर साधनमें लग भी जाता है पर अभी उसकी भोगोंमें वासना सर्वथा नहीं मिटी है वह अन्तसमयमें साधनसे विचलित होनेपर योगभ्रष्ट हो जाता है तो वह स्वर्गादि लोकोंमें बहुत वर्षोंतक रहकर शुद्ध श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है। (इस योगभ्रष्टकी बात पूर्वश्लोकमें बता दी)। दूसरा साधक जिसके भीतर वासना नहीं हैतीव्र वैराग्य है और जो परमात्माका उद्देश्य रखकर तेजीसे साधनमें लगा है पर अभी पूर्णता प्राप्त नहीं हुई है वह किसी विशेष कारणसे योगभ्रष्ट हो जाता है तो उसको स्वर्ग आदिमें नहीं जाना पड़ता प्रत्युत वह सीधे ही योगियोंके कुलमें जन्म लेता है (इस योगभ्रष्टकी बात इस श्लोकमें बता रहे हैं)।अथवा तुमने जिस योगभ्रष्टकी बात पूछी थी वह तो मैंने कह दी। परन्तु जो संसारसे विरक्त होकर संसारसे सर्वथा विमुख होकर साधनमें लगा हुआ है वह भी किसी कारणसे किसी परिस्थितिसे तत्कार मर जाय और उसकी वृत्ति अन्तसमयमें साधनमें न रहे तो वह योगभ्रष्ट हो जाता है। ऐसे योगभ्रष्टकी गतिको मैं यहाँ कह रहा हूँ।योगिनामेव कुले भवति धीमताम् जो परमात्मतत्त्वको प्राप्त कर चुके हैं जिनकी बुद्धि परमात्मतत्त्वमें स्थिर हो गयी है ऐसे तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त बुद्धिमान् योगियोंके कुलमें वह वैराग्यवान् योगभ्रष्ट जन्म लेता है।कुले कहनेका तात्पर्य है कि उसका जन्म साक्षात् जीवन्मुक्त योगी महापुरुषके कुलमें ही होता है क्योंकि श्रुति कहती है कि उस ब्रह्मज्ञानीके कुलमें कोई भी ब्रह्मज्ञानसे रहित नहीं होता अर्थात् सब ब्रह्मज्ञानी ही होते हैं नास्याब्रह्मवित् कुले भवति (मुण्डक0 3। 2। 9)।एतद्धि दुर्लभतरं (टिप्पणी प0 379) लोके जन्म यदीदृशम् उसका यह इस प्रकारका योगियोंके कुलमें जन्म होना इस लोकमें बहुत ही दुर्लभ है। तात्पर्य है कि शुद्ध सात्त्विक राजाओंके धनवानोंके और प्रसिद्ध गुणवानोंके घरमें जन्म होना भी दुर्लभ माना जाता है पुण्यका फल माना जाता है फिर तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त योगी महापुरुषोंके यहाँ जन्म होना तो दुर्लभतर बहुत ही दुर्लभ है कारण कि उन योगियोंके कुलमें घरमें स्वाभाविक ही पारमार्थिक वायुमण्डल रहता है। वहाँ सांसारिक भोगोंकी चर्चा ही नहीं होती। अतः वहाँके वायुमण्डलसे दृश्यसे तत्त्वज्ञ महापुरुषोंके सङ्गसे अच्छी शिक्षा आदिसे उसके लिये साधनमें लगना बहुत सुगम हो जाता है और वह बचपनसे ही साधनमें लग जाता है। इसलिये ऐसे योगियोंके कुलमें जन्म लेनेको दुर्लभतर बताया गया है।विशेष बातयहाँ एतत् और ईदृशम् ये दो पद आये हैं। एतत् पदसे तो तत्त्वज्ञ योगियोंके कुलमें जन्म लेनेवाला योगभ्रष्ट समझना चाहिये (जिसका इस श्लोकमें वर्णन हुआ है) और ईदृशम् पदसे उन तत्त्वज्ञ योगी महापुरुषोंके सङ्गका अवसर जिसको प्राप्त हुआ है इस प्रकारका साधक समझना चाहिये। संसारमें दो प्रकारकी प्रजा मानी जाती है बिन्दुज और नादज। जो मातापिताके रजवीर्यसे पैदा होती है वह बिन्दुज प्रजा कहलाती है और जो महापुरुषोंके नादसे अर्थात् शब्दसे उपदेशसे पारमार्थिक मार्गमें लग जाती है वह नादज प्रजा कहलाती है। यहाँ योगियोंके कुलमें जन्म लेनेवाला योगभ्रष्ट बिन्दुज है और तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषोंका सङ्गप्राप्त साधक नादज है। इन दोनों ही साधकोंको ऐसा जन्म और सङ्ग मिलना बड़ा दुर्लभ है।शास्त्रोंमें मनुष्यजन्मको दुर्लभ बताया है पर मनुष्यजन्ममें महापुरुषोंका सङ्ग मिलना और भी दुर्लभ है (टिप्पणी प0 380.1)। नारदजी अपने भक्तिसूत्रमें कहते हैं महत्सङ्गस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च अर्थात् महापुरुषोंका सङ्ग दुर्लभ है अगम्य है और अमोघ है। कारण कि एक तो उनका सङ्ग मिलना कठिन है और भगवान्की कृपासे ऐसा सङ्ग मिल भी जाय (टिप्पणी प0 380.2) तो उन महापुरुषोंको पहचानना कठिन है। परन्तु उनका सङ्ग किसी भी तरहसे मिल जाय वह कभी निष्फल नहीं जाता। तात्पर्य है कि महापुरुषोंका सङ्ग मिलनेकी दृष्टिसे ही उपर्युक्त दोनों साधकोंको दुर्लभतर बताया गया है। सम्बन्ध  पूर्वश्लोकमें भगवान्ने वैराग्यवान् योगभ्रष्टका तत्त्वज्ञ योगियोंके कुलमें जन्म होना बताया। अब वहाँ जन्म होनेके बाद क्या होता है यह बात आगेके श्लोकमें बताते हैं।

हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी

।।6.42।। इस श्लोक में ऐसे निष्काम साधक की गति दर्शायी गयी है जिसे स्वर्गादि लोकों की कोई आवश्यकता नहीं रहती। निष्कामभाव से की गई उपासना के फलस्वरूप योगी को शुद्धान्तकरण तथा एकाग्रता प्राप्त होती है जिसके द्वारा वह ध्यान की उच्च साधना करने योग्य बन जाता है। इस प्रकार के श्रेष्ठ साधक को ऐसा अवसर प्रदान करना चाहिए कि वह देहत्याग के पश्चात् सीधे ही पुन इस लोक में जन्म लेकर अपने मार्ग पर अग्रसर हो सके। उसे स्वर्ग जाने की आवश्यकता नहीं क्योंकि वह वैराग्यवान् है जबकि स्वर्ग भोग भूमि है। भगवान् कहते हैं कि ऐसा निष्काम साधक मृत्यु के पश्चात् तत्काल ही ज्ञानवान् योगियों के कुल में जन्म लेता है जहां वह अप्ानी साधना को निर्विघ्न पूर्ण कर सकता है।आजकल मनुष्य के दुराचरण के लिए बाह्य वातावरण एवं परिस्थितियों को ही दोषी बताकर सबको अपने आसपास के वातावरण के विरुद्ध उत्तेजित किया जाता है परन्तु उपर्युक्त श्लोकों में कथित सिद्धांत इस प्रचलित मान्यता का खण्डन करता है। निसन्देह ही मनुष्य एक सीमा तक बाह्य परिस्थितियों से प्रभावित होता है परन्तु दर्शनशास्त्र की दृष्टि से देखने पर ज्ञात होगा कि सभी मनुष्य वर्तमान में जिन वातावरण एवं परिस्थितियों में रह रहे हैं उनका कारण भूतकाल में किये गये उन्हीं के अपने कर्म ही हैं। बाह्य परिस्थितियों के परिवर्तन मात्र से व्यक्ति में वास्तविक सुधार नहीं हो सकता। यदि मदिरापान के अभ्यस्त व्यक्ति को किसी ऐसे नगर में ले जाये जहाँ सुरापान वर्जित है तो वह व्यक्ति वहां भी छिपकर मदिरापान करता ही रहेगा।श्रीशंकराचार्य ईसामसीह गौतम बुद्ध तथा अनेक अन्य महापुरुषों के उदाहरण विचाराधीन श्लोक में कथित सिद्धांत की पुष्टि करते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसे मेधावी पुरुष विरले ही होते हैं जिनमें कुमार अवस्था में ही अलौकिक बुद्धिमत्ता एवं ईश्वरीय ज्ञान के दर्शन होते हैं। भगवान् स्वयं कहते हैं कि इस प्रकार का जन्म लोक में अति दुर्लभ है। पूर्व श्लोक में कहा गया है कि रागयुक्त योगी स्वर्ग प्राप्ति के पश्चात् जन्म लेता है जबकि यहाँ वैराग्यवान् योगभ्रष्ट के विषय में कहते हैं कि वह सीधे ही ज्ञानी योगी के घर में जन्म लेकर पूर्णत्व प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर होता है।योगाभ्यास के लिए अनुकूल वातावरण में जन्मे हुए योगभ्रष्ट पुरुष की स्थिति क्या होती है भगवान् कहते हैं

English Translation - Swami Gambirananda

6.42 Or he is born in the family of wise yogis [Persons possessing knowledge of Brahman. (S. concedes that some rare householders also can have this knowledge, and he cites the instances of Vasistha, Agastya, Janaka and Asvapati of olden days, and Vacaspati and the author of Khanada of recent times.)] only. Such a birth as is of this kind is surely more difficult to get in the world.

English Translation - Swami Sivananda

6.42 Or he is born in a family of even the wise Yogis; verily a birth like this is very difficult to obtain in this world.

English Translation - Dr. S. Sankaranarayan

6.42. Or, he is born (rorn) nowhere other than in the family of the intelligent men of Yoga; for, this birth is more difficult to get in the world.

English Commentary - Swami Sivananda

6.42 अथवा or? योगिनाम् of Yogis? एव even? कुले in the family? भवति is born? धीमताम् of the wise? एतत् this?,हि verily? दुर्लभतरम् very difficult? लोके in the world? जन्म birth? यत् which? ईदृशम् like this.Commentary A birth in a family of wise Yogis is more difficult to obtain than the one mentioned in the preceding verse.

English Translation of Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya's

6.42 Athava, or; bhavati, he is born; kule, in the family; dhimatam, of wise; yoginam, yogis; eva, only, who are poor-which is different from the family of the prosperous. Etat janma, such a birth; yat idrsam, as is of this kind-a birth that is in the family of poor yogis, in a family as described; is hi, surely; durlabha-taram, more difficult to get, as compared with the earlier one; loke, in the world. Becuase,

English Translation of Commentary - Dr. S. Sankaranarayan

6.42 Atha va etc. If emancipation is destined to come to him by way of difference (or in grades), then he is rorn nowhere but in a family of the men of Yoga. That is why (the Lord) says : For, this birth is more difficult ot get. Indeed in the house of the rich there are necessarily many obstacles.

English Translation of Ramanuja's Sanskrit Commentary

6.42 If one swerves from the right path at an advanced stage of Yoga, he will be born in a family of wise Yogins who practise Yoga and are themselves capable of teaching Yoga. Thus, these two types of birth - one in the family of those who are fit to practise Yoga and the other in that of accomplished Yogins - are hardly met with among common people in this world. But Yoga is of such great potentiality that even this rare blessing is achieved through it.

Commentary - Chakravarthi Ji

The destination of yogis, who fell after doing a little practice has been described in the previous verse. This verse describes the different destination of yogis, who fell after practicing for a long time. They are born in the families of yogis such as Nimi.

Rudra Vaishnava Sampradaya - Commentary

The destination of one who after a short time has abandoned the practice of yoga or the science of the individual consciousness attaining communion with the ultimate consciousness was given in the previous verse. Now Lord Krishna describes the destination of the person who has been practising yoga for a long time and almost perfected it before expiring their life. They are born in families of enlightened yogis and sages, perfecting yoga and in possession of Vedic knowledge which leads to moksa or liberation from the material existence. Birth in this family is more advanced than birth in the families of the previous verse which although virtuous and prosperous had not yet engaged in the process of yoga.

Brahma Vaishnava Sampradaya - Commentary

There is no commentary for this verse.

Shri Vaishnava Sampradaya - Commentary

If one somehow or other was diverted and diverged almost at completion from the path of yoga or the science of the individual consciousness attaining communion with the ultimate consciousness; then they would be born in a family of enlightened sages or those illuminated within from the perfection of yoga. In both these cases it is extremely rare for one to take birth in either situation but when it does occasionally manifest it is the result of the efficacy of yoga that had been almost perfected in the previous life and was not possible to complete due to expiration of life.

Kumara Vaishnava Sampradaya - Commentary

If one somehow or other was diverted and diverged almost at completion from the path of yoga or the science of the individual consciousness attaining communion with the ultimate consciousness; then they would be born in a family of enlightened sages or those illuminated within from the perfection of yoga. In both these cases it is extremely rare for one to take birth in either situation but when it does occasionally manifest it is the result of the efficacy of yoga that had been almost perfected in the previous life and was not possible to complete due to expiration of life.

Transliteration Bhagavad Gita 6.42

Athavaa yoginaameva kule bhavati dheemataam; Etaddhi durlabhataram loke janma yadeedrisham.

Word Meanings Bhagavad Gita 6.42

prāpya—attain; puṇya-kṛitām—of the virtuous; lokān—abodes; uṣhitvā—after dwelling; śhāśhvatīḥ—many; samāḥ—ages; śhuchīnām—of the pious; śhrī-matām—of the prosperous; gehe—in the house; yoga-bhraṣhṭaḥ—the unsuccessful yogis; abhijāyate—take birth; atha vā—else; yoginām—of those endowed with divine wisdom; eva—certainly; kule—in the family; bhavati—take birth; dhī-matām—of the wise; etat—this; hi—certainly; durlabha-taram—very rare; loke—in this world; janma—birth; yat—which; īdṛiśham—like this