Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 41 भगवद् गीता अध्याय 6 श्लोक 41 प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः। शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।।6.41।। हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।6.41।। योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों के लोकों को प्राप्त होकर वहाँ दीर्घकाल तक वास करके शुद्ध आचरण वाले श्रीमन्त (धनवान) पुरुषों के घर में जन्म लेता है।। हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।6.41।। परलोक की गति इहलोक में किये गये कर्मों तथा उनके प्रेरक उद्देश्यों पर निर्भर करती है। कर्म मुख्यत दो प्रकार के होते हैं पाप और पुण्य। पापकर्म का आचरण करने वालों की अधोगति होती है केवल पुण्यकर्म का आश्रय लेने वाले ही आध्यात्मिक उन्नति करते हैं। हमारे शास्त्रों में इन पुण्यकर्मों को भी दो वर्गों में विभाजित किया गया है (क) सकाम कर्म अर्थात् इच्छा से प्रेरित कर्म और (ख) निष्काम कर्म अर्थात् समर्पण की भावना से ईश्वर की पूजा समझकर किया गया कर्म। कर्म का फल कर्ता के उद्देश्य के अनुरूप ही होता है इसलिए सकाम और निष्काम कर्मों के फल निश्चय ही भिन्न होते हैं। स्वाभाविक है पूर्णत्व के चरम लक्ष्य तक पहुँचने के इन पुण्यकर्मियों के मार्ग भी भिन्नभिन्न होगें। इस प्रकरण में उन्हीं मार्गों को दर्शाया गया है।जो लोग स्वर्गादि लोकों को प्राप्त करने की इच्छा से ईश्वर की आराधना यज्ञयागादि तथा अन्य पुण्य कर्म करते हैं उन्हें देहत्याग के पश्चात ऐसे ही लोकों की प्राप्ति होती है जो उनकी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए अनुकूल हों। उस लोक में वास करके वे पुन इस लोक में शुद्ध आचरण करने वाले धनवान पुरुषों के घर जन्म लेते हैं। संक्षेप में यदि दृढ़ इच्छा तथा समुचित प्रयत्न किये गये हों तो मनुष्य की कोई भी इच्छा हो वह यथासमय पूर्ण होती ही है।परन्तु निष्काम भाव से पुण्य कर्म करने वालों की क्या गति होती है भगवान् कहते हैं