Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 38 भगवद् गीता अध्याय 6 श्लोक 38 कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति। अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि।।6.38।। हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 6.38) ।।6.38।।हे महाबाहो संसारके आश्रयसे रहित और परमात्मप्राप्तिके मार्गमें मोहित अर्थात् विचलित इस तरह दोनों ओरसे भ्रष्ट हुआ साधक क्या छिन्नभिन्न बादलकी तरह नष्ट तो नहीं हो जाता हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।6.38।। हे महबाहो क्या वह ब्रह्म के मार्ग में मोहित तथा आश्रयरहित पुरुष छिन्नभिन्न मेघ के समान दोनों ओर से भ्रष्ट हुआ नष्ट तो नहीं हो जाता है हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी ।।6.38।। व्याख्या  अर्जुनने पूर्वोक्त श्लोकमें कां गतिं कृष्ण गच्छति कहकर जो बात पूछी थी उसीका इस श्लोकमें खुलासा पूछते हैं।अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि वह सांसारिक प्रतिष्ठा(स्थिति) से तो जानकर रहित हुआ है अर्थात् उसने संसारके सुखआराम आदरसत्कार यशप्रतिष्ठा आदिकी कामना छोड़ दी है इनको प्राप्त करनेका उसका उद्देश्य ही नहीं रहा है। इस तरह संसारका आश्रय छोड़कर वह परमात्मप्राप्तिके मार्गपर चला पर जीवितअवस्थामें परमात्माकी प्राप्ति नहीं हुई और अन्तसमयमें साधनसे विचलित हो गया अर्थात् परमात्माकी स्मृति नहीं रही।कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ऐसा वह दोनों ओरसे भ्रष्ट हुआ अर्थात् सांसारिक और पारमार्थिक दोनों उन्नतियोंसे रहित हुआ साधक छिन्नभिन्न बादलकी तरह नष्ट तो नहीं हो जाता तात्पर्य है कि जैसे किसी बादलके टुकड़ेने अपने बादलको तो छोड़ दिया और दूसरे बादलतक वह पहुँचा नहीं वायुके कारण बीचमें ही छिन्नभिन्न हो गया। ऐसे ही साधकने संसारके आश्रयको तो छोड़ दिया और अन्तसमयमें परमात्माकी स्मृति नहीं रही फिर वह नष्ट तो नहीं हो जाता उसका पतन तो नहीं हो जाताबादलका दृष्टान्त यहाँ पूरा नहीं बैठता। कारण कि वह बादलका टुकड़ा जिस बादलसे चला वह बादल और जिसके पास जा रहा था वह बादल तथा वह स्वयं (बादलका टुकड़ा) ये तीनों एक ही जातिके हैं अर्थात् तीनों ही जड़ हैं। परन्तु जिस साधकने संसारको छोड़ा वह संसार और जिसकी प्राप्तिके लिये चला वह परमात्मा तथा वह स्वयं (साधक) ये तीनों एक जातिके नहीं हैं। इन तीनोंमें संसार जड़ है और परमात्मा तथा स्वयं चेतन हैं। इसलिये पहला आश्रय छोड़ दिया और दूसरा प्राप्त नहीं हुआ इस विषयमें ही उपर्युक्त दृष्टान्त ठीक बैठता है।इस श्लोकमें अर्जुनके प्रश्नका आशय यह है कि साक्षात् परमात्माका अंश होनेसे जीवका अभाव तो कभी हो ही नहीं सकता। अगर इसके भीतर संसारका उद्देश्य होता संसारका आश्रय होता तो यह स्वर्ग आदि लोकोंमें अथवा नरकोंमें तथा पशुपक्षी आदि आसुरी योनियोंमें चला जाता पर रहता तो संसारमें ही है। उसने संसारका आश्रय छोड़ दिया और उसका उद्देश्य केवल परमात्मप्राप्ति हो गया पर प्राणोंके रहतेरहते परमात्माकी प्राप्ति नहीं हुई और अन्तकालमें किसी कारणसे उस उद्देश्यके अनुसार साधनमें स्थिति भी नहीं रही परमात्मचिन्तन भी नहीं रहा तो वह वहाँसे भी भ्रष्ट हो गया। ऐसा साधक किस गतिको जायगाविशेष बातअगर इस श्लोकमें परमात्माकी प्राप्तिसे और साधनसे भ्रष्ट (च्युत) हुआ ऐसा अर्थ लिया जाय तो ऐसा कहना यहाँ बन ही नहीं सकता। कारण कि आगे जो बादलका दृष्टान्त दिया है वह उपर्युक्त अर्थके साथ ठीक नहीं बैठता। बादलका टुकड़ा एक बादलको छोड़कर दूसरे बादलकी तरफ चला पर दूसरे बादलतक पहुँचनेसे पहले बीचमें ही वायुसे छिन्नभिन्न हो गया। इस दृष्टान्तमें स्वयं बादलके टुकड़ेने ही पहले बादलको छोड़ा है अर्थात् अपनी पहली स्थितिको छोड़ा है और आगे दूसरे बादलतक पहुँचा नहीं तभी वह उभयभ्रष्ट हुआ है। परन्तु साधकको तो अभी परमात्माकी प्राप्ति हुई ही नहीं फिर उसको परमात्माकी प्राप्तिसे भ्रष्ट (च्युत) होना कैसे कहा जायदूसरी बात साध्यकी प्राप्ति होनेपर साधक साध्यसे कभी च्युत हो ही नहीं सकता अर्थात् किसी भी परिस्थितिमें वह साध्यसे अलग नहीं हो सकता उसको छोड़ नहीं सकता। अतः उसको साध्यसे च्युत कहना बनता ही नहीं। हाँ अन्तसमयमें स्थिति न रहनेसे परमात्माकी स्मृति न रहनेसे उसको साधनभ्रष्ट तो कह सकते हैं पर उभयभ्रष्ट नहीं कह सकते। अतः यहाँ बादलके दृष्टान्तके अनुसार वही उभयभ्रष्ट लेना युक्तिसंगत बैठता है जिसने संसारके आश्रयको जानकर ही अपनी ओरसे छोड़ दिया और परमात्माकी प्राप्तिके लिये चला पर अन्तसमयमें किसी कारणसे परमात्माकी याद नहीं रही साधनसे विचलितमना हो गया। इस तरह संसार और साधन दोनोंमें उसकी स्थिति न रहनसे ही वह उभयभ्रष्ट हुआ है। अर्जुनने भी सैंतीसवें श्लोकमें योगाच्चलितमानसः कहा है और इस (अड़तीसवें) श्लोकमें अप्रतिष्ठः विमूढो ब्रह्मणः पथि और छिन्नाभ्रमिव कहा है। इसका तात्पर्य यही है कि उसने संसारको छोड़ दिया और परमात्माकी प्राप्तिके साधनसे विचलित हो गया मोहित हो गया। सम्बन्ध  पूर्वोक्त सन्देहको दूर करनेके लिये अर्जुन आगेके श्लोकमें भगवान्से प्रार्थना करते हैं। हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।6.38।। सम्भव है कि ब्रह्म प्राप्ति के मार्ग पर चलता हुआ कोई श्रद्धावान् साधक मृत्यु का ग्रास बन जाए अथवा पर्याप्त संयम के अभाव में योग से पतित हो जाए। उसके पतन को दर्शाने के लिए जो अत्यन्त उपयुक्त और प्रभावोत्पादक दृष्टान्त अर्जुन के मुख से महर्षि व्यासजी ने दिया है उसे प्राय साहित्यिक क्षेत्र में उद्धृत किया जाता है।कभीकभी ग्रीष्म ऋतु में पर्वतों के पार्श्व भाग से कोई छत्रवत् मेघमालिका ऊर्ध्वदिशा में उठती हुई दृष्टिगोचर होती है। परन्तु तीव्र वेग से प्रवाहित वायु के स्पर्श से वह मेघ खण्ड अनेक छोटेछोटे मेघखण्डों में विभक्त हो जाता है। ये मेघखण्ड पूर्णतया प्रबल वायु की दया पर आश्रित इतस्तत लक्ष्यहीन भ्रमण करते रहते हैं। ग्रीष्म ऋतु के ये मेघ न कृषकों की अपेक्षाएं पूर्ण कर सकते हैं और न तृषितों की पिपासा को ही शान्त कर सकते हैं। किसी सुरक्षित स्थान को न प्राप्त कर अन्त में वे स्वयं भी नष्ट हो जाते है। अर्जुन का प्रश्न है कि क्या योगभ्रष्ट पुरुष की गति भी उस मेघ के समान ही नहीं होगीअर्जुन यह प्रश्न क्यों पूछता है वह स्वयं ही इसका कारण बताता है