Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 37 भगवद् गीता अध्याय 6 श्लोक 37 अर्जुन उवाच अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः। अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति।।6.37।। हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 6.37) ।।6.37।।अर्जुन बोले हे कृष्ण जिसकी साधनमें श्रद्धा है पर जिसका प्रयत्न शिथिल है वह अन्तसमयमें अगर योगसे विचलितमना हो जाय तो वह योगसिद्धिको प्राप्त न करके किस गतिको चला जाता है हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।6.37।। अर्जुन ने कहा हे कृष्ण जिसका मन योग से चलायमान हो गया है ऐसा अपूर्ण प्रयत्न वाला (अयति) श्रद्धायुक्त पुरुष योग की सिद्धि को न प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होता है हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी ।।6.37।। व्याख्या अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः   जिसकी साधनमें अर्थात् जप ध्यान सत्सङ्ग स्वाध्याय आदिमें रुचि है श्रद्धा है और उनको करता भी है पर अन्तःकरण और बहिःकरण वशमें न होनेसे साधनमें शिथिलता है तत्परता नहीं है। ऐसा साधक अन्तसमयमें संसारेमें राग रहनेसे विषयोंका चिन्तन होनेसे अपने साधनसे विचलित हो जाय अपने ध्येयपर स्थिर न रहे तो फिर उसकी क्या गति होती हैअप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति विषयासक्ति असावधानीके कारण अन्तकालमें जिसका मन विचलित हो गया अर्थात् साधनासे हट गया और इस कारण उसको योगकी संसिद्धि परमात्माकी प्राप्ति नहीं हुई तो फिर वह किस गतिको प्राप्त होता हैतात्पर्य है कि उसने पाप करना तो सर्वथा छोड़ दिया था अतः वह नरकोंमें तो जा सकता नहीं और स्वर्गकी कामना न होनेसे स्वर्गमें भी जा सकता नहीं तथा श्रद्धापूर्वक साधनमें लगा हुआ होनेसे उसका पुनर्जन्म भी हो सकता नहीं। परन्तु अन्तसमयमें परमात्माकी स्मृति न रहनेसे दूसरा चिन्तन होनेसे उसको परमात्माकी प्राप्ति भी नहीं हुई तो फिर उसकी क्या गति होगी वह कहाँ जायगाकृष्ण सम्बोधन देनेका तात्पर्य है कि आप सम्पूर्ण प्राणियोंको खींचनेवाले हैं और उन प्राणियोंकी गतिआगतिको जाननेवाले हैं तथा इन गतियोंके विधायक हैं। अतः मैं आपसे पूछता हूँ कि योगसे विचलित हुए साधकको आप किधर खींचेंगे उसको आप कौनसी गति देंगे हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।6.37।। इस स्थान पर वेद व्यासजी अर्जुन के मुख से एक अत्यन्त उपयुक्त प्रश्न उठाते है जिससे भगवान् को वेदान्त के महान् आशावादी तत्त्वज्ञान को प्रकाश में लाने का पुन एक अवसर प्राप्त होता है। योग के दिव्य मार्ग पर चलने वाला कोई भी साधक कदापि नष्ट नहीं होता जो कोई उपलब्धि या सफलता वह प्राप्त कर चुकता है वह धरोहर के रूप में उसके साथ इहलोक और परलोक में भी उपलब्ध रहती है। असंख्य व्यतीत हुए कल की दीर्घश्रंखला में प्रत्येक आज एक कड़ी के रूप मे जुड़ जाता है। इस प्रकार यह श्रंखला निरन्तर बढ़ती ही जाती है। जीव के अस्तित्वकाल की असंख्य घटनाओं में मृत्यु भी मात्र एक घटना है और आने वाला कल न कोई आकस्मिक घटना हाेगी और न कोई अनिर्धारित प्रारम्भ। वर्तमान के विचारों तथा प्रयत्नों से प्रभावित एवं परिवर्तित भूतकाल ही भविष्य के रूप में प्रकट होता है।अर्जुन का भगवान् से सावधानी पूर्वक पूछा गया कुछ अस्पष्ट सा प्रश्न यह है कि जो पुरुष पूर्ण श्रद्धा से योग साधना करता है परन्तु अपने जीवन काल में पूर्ण आत्मसंयम को प्राप्त नहीं होता अथवा पर्याप्त प्रयत्न के अभाव में योग से उसका मन चलायमान हो जाता है उसकी गति क्या होगी तात्पर्य यह है कि योगाभ्यास में भोग का त्याग करने से उसे विषयों का सुख नहीं मिलेगा तथा उसी प्रकार योग में सफलता न मिलने के कारण योग का अनन्त आनन्द भी प्राप्त नहीं होगा। यद्यपि वेदान्ती केवल विषय भोग के जीवन की निन्दा करते हैं तथापि वे इस तथ्य को कभी नहीं नकारते कि विषयों में क्षणिक सुख तो होता ही है। परन्तु उनके मतानुसार विषयानन्द भी वस्तुत ब्रह्मानन्द का ही अंश है या आभास है। अर्जुन को भय है कि सम्भवत श्रीकृष्ण द्वारा उपदिष्ट योग के पालन में मनुष्य अल्प विषयानन्द और अनन्त ब्रह्मानन्द दोनों से ही वंचित रह जायेगा।ऐसा योगी प्रयत्नपूर्वक स्वयं को लौकिक विषयों के प्रलोभनों से सुरक्षित रखेगा। परन्तु यदि साधना में रत उस योगी के जीवनसूत्र को अनिश्चित काल की कैंची द्वारा काट दिया जाय तो वह ब्रह्मानन्द को पाने का अवसर खो देगा जिसे गीता में जीवन के लक्ष्य के रूप में निर्देशित किया गया है। अथवा हो सकता है कि योगी का मन किसी कारण से विचलित हो जाये। योग में सफलता पाना निसन्देह ही महान् विजय है सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि है। परन्तु यदि अदृश्य कामुक वृत्ति रूपी गदा के द्वारा साधक धराशायी हो जाये तो उसे इहलोक और परलोक का भी सुख नहीं मिलेगा। अत अर्जुन ऐसे साधक की गति जानना चाहता है।इस श्लोक में कथित श्रद्धा को अन्धविश्वास नहीं समझना चाहिए। बुद्धि की उस क्षमता को श्रद्धा कहते हैं जिसके द्वारा शास्त्र और आचार्य के उपदेशों के तात्पर्य को समझ कर तत्त्व को पहचाना जा सकता है। बुद्धि के निश्चय से हृदय में उमड़ने वाली भक्ति की उस प्रबल शक्ति को श्रद्धा कहते हैं जो पर्वतों को हिला सकती है और स्वर्ग को पृथ्वी पर उतार सकती है।योगभ्रष्ट पुरुष के चित्र को और अधिक स्पष्ट करने के लिए अर्जुन आगे कहता है