Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 30 भगवद् गीता अध्याय 6 श्लोक 30 यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति। तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।6.30।। हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 6.30) ।।6.30।।जो सबमें मुझको देखता है और सबको मुझमें देखता है उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता। हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद ।।6.30।। जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता।। हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी ।।6.30।। व्याख्या  यो मां पश्यति सर्वत्र जो भक्त सब देश काल वस्तु व्यक्ति पशु पक्षी देवता यक्ष राक्षस पदार्थ परिस्थिति घटना आदिमें मेरेको देखता है। जैसे ब्रह्माजी जब बछड़ों और ग्वालबालोंको चुराकर ले गये तब भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ही बछड़े और ग्वालबाल बन गये। बछड़े और ग्वालबाल ही नहीं प्रत्युत उनके बेंत सींग बाँसुरी वस्त्र आभूषण आदि भी भगवान् स्वयं ही बन गये (टिप्पणी प0 364)। यह लीला एक वर्षतक चलती रही पर किसीको इसका पता नहीं चला। बछड़ोंमेंसे कई बछ़ड़े तो केवल दूध ही पीनेवाले थे इसलिये वे घरपर ही रहते थे और बड़े बछड़ोंको भगवान् श्रीकृष्ण अपने साथ वनमें ले जाते थे। एक दिन दाऊ दादा (बलरामजी) ने देखा कि छोटे बछड़ोंवाली गायें भी अपने पहलेके (बड़े) बछड़ोंको देखकर उनको दूध पिलानेके लिये हुंकार मारती हुई दौड़ पड़ीं। बड़े गोपोंने उन गायोंको बहुत रोका पर वे रुकी नहीं। इससे गोपोंको उन गायोंपर बहुत गुस्सा आ गया। परन्तु जब उन्होंने अपनेअपने बालकोंको देखा तब उनका गुस्सा शान्त हो गया और स्नेह उमड़ पड़ा। वे बालकोंको हृदयसे लगाने लगे उनका माथा सूँघने लगे। इस लीलाको देखकर दाऊ दादाने सोचा कि यह क्या बात है उन्होंने ध्यान लगाकर देखा तो उनको बछड़ों और ग्वालबालोंके रूपमें भगवान् श्रीकृष्ण ही दिखायी दिये। ऐसे ही भगवान्का सिद्ध भक्त सब जगह भगवान्को ही देखता है अर्थात् उसकी दृष्टिमें भगवत्सत्ताके सिवाय दूसरी किञ्चिन्मात्र भी सत्ता नहीं रहती।सर्वं च मयि पश्यति और जो भक्त देश काल वस्तु व्यक्ति घटना परिस्थिति आदिको मेरे ही अन्तर्गत देखता है। जैसे गीताका उपदेश देते समय अर्जुनके द्वारा प्रार्थना करनेपर भगवान् अपना विश्वरूप दिखाते हुए कहते हैं कि चराचर सारे संसारको मेरे एक अंशमें स्थित देख इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्। मम देहे ৷৷. (11। 7) तो अर्जुन भी कहते हैं कि मैं आपके शरीरमें सम्पूर्ण प्राणियोंको देख रहा हूँ पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान् (11। 15)। सञ्जयने भी कहा कि अर्जुनने भगवान्के शरीरमें सारे संसारको देखा तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा (11। 13)। तात्पर्य है कि अर्जुनने भगवान्के शरीरमें सब कुछ भगवत्स्वरूप ही देखा। ऐसे ही भक्त देखने सुनने समझनेमें जो कुछ आता है उसको भगवान्में ही देखता है और भगवत्स्वरूप ही देखता है।तस्याहं न प्रणश्यामि भक्त जब सब जगह मुझे ही देखता है तो मैं उससे कैसे छिपूँ कहाँ छिपूँ और किसके पीछे छिपूँ इसलिये मैं उस भक्तके लिये अदृश्य नहीं रहता अर्थात् निरन्तर उसके सामने ही रहता हूँ।स च मे न प्रणश्यति जब भक्त भगवान्को सब जगह देखता है तो भगवान् भी भक्तको सब जगह देखते हैं क्योंकि भगवान्का यह नियम है कि जो जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं मैं भी उसी प्रकार उनको आश्रय देता हूँ ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् (गीता 4। 11)। तात्पर्य है कि भक्त भगवान्के साथ घुलमिल जाते हैं भगवान्के साथ उनकी आत्मीयता एकता हो जाती है अतः भगवान् अपने स्वरूपमें उनको सब जगह देखते हैं। इस दृष्टिसे भक्त भी भगवान्के लिये कभी अदृश्य नहीं होता।यहाँ शङ्का होती है कि भगवान्के लिये तो कोई भी अदृश्य नहीं है वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन। भविष्याणि च भूतानि ৷৷. (गीता 7। 26) फिर यहाँ केवल भक्तके लिये ही वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता ऐसा क्यों कहा है इसका समाधान है कि यद्यपि भगवान्के लिये कोई भी अदृश्य नहीं है तथापि जो भगवान्को सब जगह देखता है उसके भावके कारण भगवान् भी उसको सब जगह देखते हैं। परन्तु जो भगवान्से विमुख होकर संसारमें आसक्त है उसके लिये भगवान् अदृश्य रहते हैं नाहं प्रकाशः सर्वस्य (गीता 7। 25)। अतः (उसके भावके कारण) वह भी भगवान्के लिये अदृश्य रहता है। जितने अंशमें उसका भगवान्के प्रति भाव नहीं है उतने अंशमें वह भगवान्के लिये अदृश्य रहता है। ऐसे ही बात भगवान्ने नवें अध्यायमें भी कही है कि मैं सब प्राणियोंमें समान हूँ। न तो कोई मेरा द्वेषी है और न कोई प्रिय है। परन्तु जो भक्तिपूर्वक मेरा भजन करते हैं वे मेरेमें हैं और मैं उनमें हूँ। सम्बन्ध  अब भगवान् ध्यान करनेवाले सिद्ध भक्तियोगीके लक्षण बताते हैं। हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी ।।6.30।। पहले यह कहा गया था कि ब्रह्मसंस्पर्श से योगी अत्यन्त सुख प्राप्त करता है। ब्रह्मसंस्पर्श से तात्पर्य आत्मा और ब्रह्म के एकत्व से है जो उपनिषदों का प्रतिपाद्य विषय है। इस ज्ञान को स्वयं भगवान् ही यहाँ स्पष्ट दर्शा रहे हैं। आत्मज्ञानी पुरुष सर्वत्र आत्मा का अनुभव करता है।जो मुझे सबमें और सब को मुझमें देखता है अन्य स्थानों के समान ही यहाँ प्रयुक्त मैं शब्द का अर्थ आत्मा है न कि देवकीपुत्र कृष्ण। इस व्याख्या के प्रकाश में जो पुरुष पूर्व श्लोक के साथ इस श्लोक को पढ़ेगा उसे प्रसिद्ध ईशावास्योपनिषद् की इस घोषणा का गूढ़ अर्थ स्पष्ट हो जायेगा ।वह मुझसे वियुक्त नहीं होता बुद्धि से अतीत आत्मा का अनुभव उससे भिन्न रहकर नहीं होता वरन् जीव पाता है कि वह स्वयं आत्मस्वरूप (शिवोऽहम्) है। स्वप्नद्रष्टा पुरुष जागने पर स्वयं जाग्रत् पुरुष बन जाता है वह जाग्रत् पुरुष को उससे भिन्न रहकर कभी नहीं जान सकता।और न मैं उससे वियुक्त होता हूँ द्वैतवादी लोग अपने जीवभाव और देहात्मभाव की दृढ़ता के कारण इस अद्वैत स्वरूप को स्वीकार नहीं कर पाते । जिस स्पष्टता से यहाँ जीव के दिव्य स्वरूप की घोषणा की गयी है उसे और अधिक स्पष्ट नहीं किया जा सकता। भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ किसी भी प्रकार से इस तथ्य को गूढ़ और गोपन नहीं रखना चाहते कि अनात्म उपाधियों से तादात्म्य को त्यागने पर योगी स्वयं परमात्मस्वरूप बन जाता है। हो सकता है कि किन्हींकिन्हीं लोगों के लिए यह सत्य चौंका देने वाला हो तथापि है तो वह सत्य ही। जिन्हें इसे स्वीकार करने में संकोच होता हो वे अपने जीव भाव को ही दृढ़ बनाये रख सकते हैं। परन्तु भारत में गुरुओं की परम्परा ने तथा विश्व के अन्य अनुभवी सन्तों ने इसी सत्य की पुष्टि की है कि एक व्यक्ति के हृदय में स्थित आत्मा ही सर्वत्र नामरूपों में स्थित है।वर्तमान दशा में हम अपने आप से ही दूर हो चुके हैं अहंकार एक राजद्रोही है जिसने आत्मसाम्राज्य से स्वयं का निष्कासन कर लिया है। आत्मप्राप्ति पर अहंकार उसमें पूर्णतया विलीन हो जाता है। स्वप्नद्रष्टा के जागने पर वह जाग्रत् पुरुष से भिन्न नहीं रह सकता। भगवान् यहाँ कहते हैं कि साधक और मैं एक दूसरे से कभी वियुक्त नहीं होते।वास्तव में यदि हम यह समझ लेते हैं कि आत्मविस्मृति के कारण परमात्मा जीवभाव को प्राप्त सा हुआ है तो यह भी स्पष्ट हो जायेगा कि आत्मज्ञान के द्वारा जीव पुन परमात्मस्वरूप को प्राप्त हो सकता है। जैसे एक अभिनेता रंगमंच पर भिक्षुक का अभिनय करते हुए भी वास्तव में भिक्षुक नहीं बन जाता और नाटक की समाप्ति पर भिक्षुक के वेष को त्यागकर पुन स्वरूप को प्राप्त हो जाता है वैसे ही आत्मज्ञान के विषय में भी जीव का ब्रह्मरूप होना है। वेदान्त की यह साहसिक घोषणा समझनी कठिन नहीं है परन्तु सामान्य अज्ञानी जन इससे स्तब्ध होकर रह जाते हैं और अपने दोषों के कारण इस सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते। उनमें इतना साहस और विश्वास नहीं कि वे दिव्य जीवन जीने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले सकें। इस श्लोक में भगवान् का कथन परमार्थ सत्य के स्वरूप के संबंध में उपनिषदों के निष्कर्ष के विषय में रंचमात्र भी सन्देह नहीं रहने देता।पूर्व श्लोक में कथित सम्यक् दर्शन को पुन बताकर कहते हैं