Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 3 भगवद् गीता अध्याय 6 श्लोक 3 आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते। योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।।6.3।। हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 6.3) ।।6.3।।जो योग(समता)में आरूढ़ होना चाहता है ऐसे मननशील योगीके लिये कर्तव्यकर्म करना कारण है और उसी योगारूढ़ मनुष्यका शम (शान्ति) परमात्मप्राप्तिमें कारण है। हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी ।।6.3।। व्याख्या  आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते जो योग(समता) में आरूढ़ होना चाहता है ऐसे मननशील योगीके लिये (योगारूढ़ होनेमें) निष्कामभावसे कर्तव्यकर्म करना कारण है। तात्पर्य है कि करनेका वेग मिटानेमें प्राप्त कर्तव्यकर्म करना कारण है क्योंकि कोई भी व्यक्ति जन्मा है पला है और जीवित है तो उसका जीवन दूसरोंकी सहायताके बिना चल ही नहीं सकता। उसके पास शरीर इन्द्रियाँमन बुद्धि और अहम्तक कोई ऐसी चीज नहीं है जो प्रकृतिकी न हो। इसलिये जबतक वह इन प्राकृत चीजोंको संसारकी सेवामें नहीं लगाता तबतक वह योगारूढ़ नहीं हो सकता अर्थात् समतामें स्थित नहीं हो सकता क्योंकि प्राकृत वस्तुमात्रकी संसारके साथ एकता है अपने साथ एकता है ही नहीं।प्राकृत पदार्थोंमें जो अपनापन दीखता है उसका तात्पर्य है कि उनको दूसरोंकी सेवामें लगानेका दायित्व हमारेपर है। अतः उन सबको दूसरोंकी सेवामें लगानेका भाव होनेसे सम्पूर्ण क्रियाओंका प्रवाह संसारकी तरफ हो जायगा और वह स्वयं योगारूढ़ हो जायगा। यही बात भगवान्ने दूसरी जगह अन्वयव्यतिरेक रीतिसे कही है कि यज्ञके लिये अर्थात् दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेवालोंके सम्पूर्ण कर्म लीन हो जाते हैं अर्थात् किञ्चिन्मात्र भी बन्धनकारक नहीं होते (गीता 4। 23) और यज्ञसे अन्यत्र अर्थात् अपने लिये किये गये कर्म बन्धनकारक होते हैं (गीता 3। 9)।योगारूढ़ होनेमें कर्म कारण क्यों हैं क्योंकि फलकी प्राप्तिअप्राप्तिमें हमारी समता है या नहीं उसका हमारेपर क्या असर पड़ता है इसका पता तभी लगेगा जब हम कर्म करेंगे। समताकी पहचान कर्म करनेसे ही होगी। तात्पर्य है कि कर्म करते हुए यदि हमारेमें समता रही रागद्वेष नहीं हुए तब तो ठीक है क्योंकि वह कर्म योगमें कारण हो गया। परन्तु यदि हमारेमें समता नहीं रही रागद्वेष हो गये तो हमारा जडताके साथ सम्बन्ध होनेसे वह कर्म योगमें कारण नहीं बना।योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते असत्के साथ सम्बन्ध रखनेसे ही अशान्ति पैदा होती है। इसका कारण यह है कि असत् पदार्थों(शरीरादि) के साथ स्वयंका सम्बन्ध एक क्षण भी रह नहीं सकता और रहता भी नहीं क्योंकि स्वयं सदा रहनेवाला है और शरीरादि मात्र पदार्थ प्रतिक्षण अभावमें जा रहे हैं। उन प्रतिक्षण अभावमें जानेवालोंके साथ वह स्वयं अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है और उनके साथ अपना सम्बन्ध रखना चाहता है। परन्तु उनके साथ सम्बन्ध रहता नहीं तो उनके चले जानेके भयसे और उनके चले जानेसे अशान्ति पैदा हो जाती है। जब यह शरीरादि असत् पदार्थोंको संसारकी सेवामें लगाकर उनसे अपना सर्वथा सम्बन्धविच्छेद कर लेता है तब असत्के त्यागसे उसको स्वतः एक शान्ति मिलती है। अगर साधक उस शान्तिमें भी सुख लेने लग जायगा तो वह बँध जायगा। अगर उस शान्तिमें राग नहीं करेगा उससे सुख नहीं लेगा तो वह शान्ति परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें कारण हो जाती है। सम्बन्ध  योगारूढ़ कौन होता है इसका उत्तर आगेके श्लोकमें देते हैं।