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Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 23

भगवद् गीता अध्याय 6 श्लोक 23

तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा।।6.23।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 6.23)

।।6.23।।जिसमें दुःखोंके संयोगका ही वियोग है उसीको योग नामसे जानना चाहिये। (वह योग जिस ध्यानयोगका लक्ष्य है) उस ध्यानयोगका अभ्यास न उकताये हुए चित्तसे निश्चयपूर्वक करना चाहिये।

हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी

।।6.23।। व्याख्या  तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् जिसके साथ हमारा सम्बन्ध है नहीं हुआ नहीं होगा नहीं और होना सम्भव ही नहीं ऐसे दुःखरूप संसारशरीरके साथ सम्बन्ध मान लिया यही दुःखसंयोग है। यह दुःखसंयोग योग नहीं है। अगर यह योग होता अर्थात् संसारके साथ हमारा नित्यसम्बन्ध होता तो इस दुःखसंयोगका कभी वियोग (सम्बन्धविच्छेद) नहीं होता। परन्तु बोध होनेपर इसका वियोग हो जाता है। इससे सिद्ध होता है कि दुःखसंयोग केवल हमारा माना हुआ है हमारा बनाया हुआ है स्वाभाविक नहीं है। इससे कितनी ही दृढ़तासे संयोग मान लें और कितने ही लम्बे कालतक संयोग मान लें तो भी इसका कभी संयोग नहीं हो सकता। अतः हम इस माने हुए आगन्तुक दुःखसंयोगका वियोग कर सकते हैं। इस दुःखसंयोग(शरीरसंसार) का वियोग करते ही स्वाभाविक योग की प्राप्ति हो जातीहै अर्थात् स्वरूपके साथ हमारा जो नित्ययोग है उसकी हमें अनुभूति हो जाती है। स्वरूपके साथ नित्ययोगको ही यहाँ योग समझना चाहिये।यहाँ दुःखरूप संसारके सर्वथा वियोगको योग कहा गया है। इससे यह असर पड़ता है कि अपने स्वरूपके साथ पहले हमारा वियोग था अब योग हो गया। परन्तु ऐसी बात नहीं है। स्वरूपके साथ हमारा नित्ययोग है। दुःखरूप संसारके संयोगका तो आरम्भ और अन्त होता है तथा संयोगकालमें भी संयोगका आरम्भ और अन्त होता रहता है। परन्तु इस नित्ययोगका कभी आरम्भ और अन्त नहीं होता। कारण कि यह योग मन बुद्धि आदि प्राकृत पदार्थोंसे नहीं होता प्रत्युत इनके सम्बन्धविच्छेदसे होता है। यह नित्ययोग स्वतःसिद्ध है। इसमें सबकी स्वाभाविक स्थिति है। परन्तु अनित्य संसारसे सम्बन्ध मानते रहनेके कारण इस नित्ययोगकी विस्मृति हो गयी है। संसारसे सम्बन्धविच्छेद होते ही नित्ययोगकी स्मृति हो जाती है। इसीको अर्जुनने अठारहवें अध्यायके तिहत्तरवें श्लोकमें नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा कहा है। अतः यह योग नया नहीं हुआ है प्रत्युत जो नित्ययोग है उसीकी अनुभूति हुई है।भगवान्ने यहाँ योगसंज्ञतिम् पद देकर दुःखके संयोगके वियोगका नाम योग बताया है और दूसरे अध्यायमें समत्वं योग उच्यते कहकर समताको ही योग बताया है। यहाँ साध्यरूप समताका वर्णन है और वहाँ (2। 48 में) साधनरूप समताका वर्णन है। ये दोनों बातें तत्त्वतः एक ही हैं क्योंकि साधनरूप समता ही अन्तमें साध्यरूप समतामें परिणत हो जाती है।पतञ्जलि महाराजने चित्तवृत्तियोंके निरोधको योग कहा है योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः (योगदर्शन 1। 2) और चित्तवृत्तियोंका निरोध होनेपर द्रष्टाकी स्वरूपमें स्थिति बतायी है तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् (1। 3)। परन्तु यहाँ भगवान्ने तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् पदोंसे द्रष्टाकी स्वरूपमें स्थितिको ही योग कहा है जो स्वतःसिद्ध है।यहाँ तम् कहनेका क्या तात्पर्य है अठारहवें श्लोकमें योगीके लक्षण बताकर उन्नीसवें श्लोकमें दीपकके दृष्टान्तसे उसके अन्तःकरणकी स्थितिका वर्णन किया गया। उस ध्यानयोगीका चित्त जिस अवस्थामें उपराम हो जाता है उसका संकेत बीसवें श्लोकके पूर्वार्धमें यत्र पदसे किया और जब उस योगीकी स्थिति परमात्मामें हो जाती है उसका संकेत श्लोकके उत्तरार्धमें यत्र पदसे किया। इक्कीसवें श्लोकके पूर्वार्धमें यत् पदसे उस योगीके आत्यन्तिक सुखकी महिमा कही और उत्तरार्धमें यत्र पदसे उसकी अवस्थाका संकेत किया। बाईसवें श्लोकके पूर्वार्धमें यम् पदसे उस योगीके लाभका वर्णन किया और उत्तरार्धमें उसी लाभको यस्मिन् पदसे कहा। इस तरह बीसवें श्लोकसे बाईसवें श्लोकतक छः बार यत् (टिप्पणी प0 356) शब्दका प्रयोग करके योगीका जो विलक्षण स्थिति बतायी गयी है उसीका यहाँ तम् पदे संकेत करके उसकी महिमा कही गयी है।स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा जिसमें दुःखोंके संयोगका ही अभाव है ऐसे योग(साध्यरूप समता) का उद्देश्य रखकर साधकको न उकताये हुए चित्तसे निश्चयपूर्वक ध्यानयोगका अभ्यास करना चाहिये जिसका इसी अध्यायके अठारहवेंसे बीसवें श्लोकतक वर्णन हुआ है।योगका अनुभव करनेके लिये सबसे पहले साधकको अपनी बुद्धि एक निश्चयवाली बनानी चाहिये अर्थात् मेरेको तो योगकी ही प्राप्ति करनी है ऐसा एक निश्चय करना चाहिये। ऐसा निश्चय करनेपर संसारका कितना ही प्रलोभन आ जाय कितनी ही भयंकर कष्ट आ जाय तो भी उस निश्चयको नहीं छोड़ना चाहिये।अनिर्विण्णचेतसा का तात्पर्य है कि समय बहुत लग गया पुरुषार्थ बहुत किया पर सिद्धि नहीं हुई इसकी सिद्धि कब होगी कैसे होगी इस तरह कभी उकताये नहीं। साधकका भाव ऐसा रहे कि चाहे कितनेही वर्ष लग जायँ कितने ही जन्म लग जायँ कितने ही भयंकरसेभयंकर दुःख आ जायँ तो भी मेरेको तत्त्वको प्राप्त करना ही है। साधकके मनमें स्वतःस्वाभाविक ऐसा विचार आना चाहिये कि मेरे अनेक जन्म हुए पर वे सबकेसब निरर्थक चले गये उनसे कुछ भी लाभ नहीं हुआ। अनेक बार नरकोंके कष्ट भोगे पर उनको भोगनेसे भी कुछ नहीं मिला अर्थात् केवल पूर्वके पाप नष्ट हुए पर परमात्मा नहीं मिले। अब यदि इस जन्मका साराकासारा समय आयु और पुरुषार्थ परमात्माकी प्राप्तिमें लग जाय तो कितनी बढ़िया बात है सम्बन्ध   पूर्वश्लोकके पूर्वार्धमें भगवान्ने जिस योग(साध्यरूप समता) का वर्णन किया था उसी योगकी प्राप्तिके लिये अब आगेके श्लोकसे निर्गुणनिराकारके ध्यानका प्रकरण आरम्भ करते हैं।