Download Bhagwad Gita 6.22 Download BG 6.22 as Image

⮪ BG 6.21 Bhagwad Gita Swami Ramsukhdas Ji BG 6.23⮫

Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 22

भगवद् गीता अध्याय 6 श्लोक 22

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।।6.22।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 6.22)

।।6.22।।जिस लाभकी प्राप्ति होनेपर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके माननेमें भी नहीं आता और जिसमें स्थित होनेपर वह बड़े भारी दुःखसे भी विचलित नहीं किया जा सकता।

हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी

।।6.22।। व्याख्या  यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः मनुष्यको जो सुख प्राप्त है उससे अधिक सुख दीखता है तो वह उसके लोभमें आकर विचलित हो जाता है। जैसे किसीको एक घंटेके सौ रुपये मिलते हैं। अगर उतने ही समयमें दूसरी जगह हजार रुपये मिलते हों तो वह सौ रुपयोंकी स्थितिसे विचलित हो जायगा और हजार रूपयोंकी स्थितिमें चला जायगा। निद्रा आलस्य और प्रमादका तामस सुख प्राप्त होनेपर भी जब विषयजन्य सुख ज्यादा अच्छा लगता है उसमें अधिक सुख मालूम देता है तब मनुष्य तामस सुखको छोड़कर विषयजन्य सुखकी तरफ लपककर चला जाता है। ऐसे ही जब वह विषयजन्य सुखसे ऊँचा उठता है तब वह सात्त्विक सुखके लिये विचलित हो जाता है और जब सात्त्विक सुखसे भी ऊँचा उठता है तब वह आत्यन्तिक सुखके लिये विचलित हो जाता है। परन्तु जब आत्यन्तिक सुख प्राप्त हो जाता है तो फिर वह उससे विचलित नहीं होता क्योंकि आत्यन्तिक सुखसे बढ़कर दूसरा कोई सुख कोई लाभ है ही नहीं। आत्यन्तिक सुखमें सुखकी हद हो जाती है। ध्यानयोगीको जब ऐसा सुख मिल जाता है तो फिर वह इस सुखसे विचलित हो ही कैसे सकता हैयस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते विचलित होनेका दूसरा कारण है कि लाभ तो अधिक होता हो पर साथमें महान् दुःख हो तो मनुष्य उस लाभसे विचलित हो जाता है। जैसे हजार रुपये मिलते हों पर साथमें प्राणोंका भी खतरा हो तो मनुष्य हजार रुपयोंसे विचलित हो जाता है। ऐसे ही मनुष्य जिस किसी स्थितिमें स्थित होता है वहाँ कोई भयंकर आफत आ जाती है तो मनुष्य उस स्थितिको छोड़ देता है। परन्तु यहाँ भगवान् कहते हैं कि आत्यन्तिक सुखमें स्थित होनेपर योगी बड़ेसेबड़े दुःखसे भी विचलित नहीं किया जा सकता। जैसे किसी कारणसे उसके शरीरको फाँसी दे दी जाय शरीरके टुकड़ेटुकड़े कर दिये जायँ आपसमें भिड़ते दो पहाड़ोंके बीचमें शरीर दबकर पिस जाय जीतेजी शरीरकी चमड़ी उतारी जाय शरीरमें तरहतरहके छेद किये जायँ उबलते हुए तेलमें शरीरको डाला जाय इस तरहके गुरुतर महान् भयंकर दुःखोंके एक साथ आनेपर भी वह विचलित नहीं होता।वह विचलित क्यों नहीं किया जा सकता कारण कि जितने भी दुःख आते हैं वे सभी प्रकृतिके राज्यमें अर्थात् शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धिमें ही आते हैं जब कि आत्यन्तिक सुख स्वरूपबोध प्रकृतिसे अतीत तत्त्व है। परन्तु जब पुरुष प्रकृतिस्थ हो जाता है अर्थात् शरीरके साथ तादात्म्य कर लेता है तब वह प्रकृतिजन्य अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितिमें अपनेको सुखीदुःखी मानने लग जाता है (गीता 13। 21)। जब वह प्रकृतिसे सम्बन्धविच्छेद करके अपने स्वरूपभूत सुखका अनुभव कर लेता है उसमें स्थित हो जाता है तो फिर यह प्राकृतिक दुःख वहाँतक पहुँच ही नहीं सकता उसका स्पर्श ही नहीं कर सकता। इसलिये शरीरमें कितनी ही आफत आनेपर भी वह अपनी स्थितिसे विचलित नहीं किया जा सकता। सम्बन्ध  जिस सुखकी प्राप्ति होनेपर उससे अधिक लाभकी सम्भावना नहीं रहती और जिसमें स्थित होनेपर बड़ा भारी दुःख भी विचलित नहीं करता ऐसे सुखकी प्राप्तिके लिये आगेके श्लोकमें प्रेरणा करते हैं।