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Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 19

भगवद् गीता अध्याय 6 श्लोक 19

यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः।।6.19।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 6.19)

।।6.19।।जैसे स्पन्दनरहित वायुके स्थानमें स्थित दीपककी लौ चेष्टारहित हो जाती है योगका अभ्यास करते हुए यतचित्तवाले योगीके चित्तकी वैसी ही उपमा कही गयी है।

हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद

।।6.19।। जिस प्रकार वायुरहित स्थान में स्थित दीपक में कम्प नहीं होता वैसी ही उपमा आत्मा के ध्यान में लगे हुए उस योगी के समाहित चित्त की कही गयी है।।

हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी

।।6.19।। व्याख्या  यथा दीपो निवातस्थो ৷৷. युञ्जतो योगमात्मनः जैसे सर्वथा स्पन्दनरहित वायुके स्थानमें रखे हुए दीपककी लौ थोड़ी भी हिलतीडुलती नहीं है ऐसे ही जो योगका अभ्यास करता है जिसका मन स्वरूपके चिन्तनमें लगता है और जिसने चित्तको अपने वशमें कर रखा है उस ध्यानयोगीकेचित्तके लिये भी दीपककी लौकी उपमा दी गयी है। तात्पर्य है कि उस योगीका चित्त स्वरूपमें ऐसा लगा हुआ है कि उसमें एक स्वरूपके सिवाय दूसरा कुछ भी चिन्तन नहीं होता।पूर्वश्लोकमें जिस योगीके चित्तको विनियत कहा गया है उस वशीभूत किये हुए चित्तवाले योगीके लिये यहाँ यतचित्तस्य पद आया है।कोई भी स्थान वायुसे सर्वथा रहित नहीं होता। वायु सर्वत्र रहती है। कहींपर वायु स्पन्दनरूपसे रहती है और कहींपर निःस्पन्दनरूपसे रहती है। इसलिये यहाँ निवातस्थः पद वायुके अभावका वाचक नहीं है प्रत्युत स्पन्दित वायुके अभावका वाचक है।यहाँ उपमेय चित्तको पर्वत आदि स्थिर अचल पदार्थोंकी उपमा न देकर दीपककी लौकी ही उपमा क्यों दी गयी दीपककी लौ तो स्पन्दित वायुसे हिल भी सकती है पर पर्वत कभी हिलता ही नहीं। अतः पर्वतकी ही उपमा देनी चाहिये थी इसका उत्तर यह है कि पर्वत स्वभावसे ही स्थिर अचल और प्रकाशहीन है जब कि दीपककी लौ स्वभावसे चञ्चल और प्रकाशमान है। चञ्चल वस्तुको स्थिर रखनेमें विशेष कठिनता पड़ती है। चित्त भी दीपककी लौके समान स्वभावसे ही चञ्चल है इसलिये चित्तको दीपककी लौकी उपमा दी गयी है।दूसरी बात जैसे दीपककी लौ प्रकाशमान होती है ऐसे ही योगीके चित्तकी परमात्मतत्त्वमें जागृति रहती है। यह जागृति सुषुप्तिसे विलक्षण है। यद्यपि सुषुप्ति और समाधि इन दोनोंमें संसारकी निवृत्ति समान रहती है तथापि सुषुप्तिमें चित्तवृत्ति अविद्यामें लीन हो जाती है। अतः उस अवस्थामें स्वरूपका भान नहीं होता। परन्तु समाधिमें चित्तवृत्ति जाग्रत् रहती है अर्थात् चित्तमें स्वरूपकी जागृति रहती है। इसीलिये यहाँ दीपककी लौका दृष्टान्त दिया गया है। इसी बातको चौथे अध्यायके सत्ताईसवें श्लोकमें ज्ञानदीपिते पदसे कहा है। सम्बन्ध  जिस अवस्थामें पूर्णता प्राप्त होती है उस अवस्थाका आगेके श्लोकमें स्पष्ट वर्णन करते हैं।

हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी

।।6.19।। योगी के समाहित चित्त का वर्णन करने के लिए निर्वात स्थान में रख दीप की उपमा यहाँ दी गयी है जो अत्यन्त समीचीन है। मन में निरन्तर वृत्तियां उत्पन्न और नष्ट होती रहती हैं और हमें एक अखण्ड मन का अनुभव होता है। इसी प्रकार दीपज्योति भी वास्तव में कभी स्थिर नहीं होती तथापि उसका कम्पन इतनी तीव्र गति से होता है कि हमें एक निश्चित आकार की ज्योति प्रतीत होती है।जब इस ज्योति को वायु के झकोरों से सुरक्षित रखा जाता है तब यह उर्ध्वगामी ज्योति स्थिर हो जाती है। ठीक उसी प्रकार सामान्यत वैषयिक इच्छाओं के कारण चंचल रहने वाला मन जब ध्यान के समय शान्त किया जाता है तब वह स्थिर हो जाता है और मन में एक अखण्ड ब्रह्माकार वृत्ति बनी रहती है। संक्षेप में समस्त जगत् के अधिष्ठान नित्य अनन्त आनन्दस्वरूप ब्रह्म का नित्य निरन्तर ध्यान ही आत्मयोग है।योगाभ्यास से इस एकाग्रता को प्राप्त करने के पश्चात् प्रगति के क्या सोपान हांेगे अगले चार श्लोकों में इसका वर्णन किया गया है